Wednesday, February 29, 2012

सहारा

अपने आसपास जमे चेहरों को देख,
न जाने कितनी बार ....
कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ -
अन्तरिक्ष में डूबते , उबरते ...
किसी मज़बूत सतह की खोज में -
कई बार देखा है एक दानव ...
रस्सियों में जकड़ा हुआ ....
फिर उसने मुझे करीब से देखकर -
दे पटका है किसी मज़बूत सतह पर -
और में
एक मज़बूत सतह पाकर ..
पागलोंसी अपने हाथ पैर -
इकठ्ठा करती फिरी हूँ...
...अपने आसपास जमे चेहरों को देख
न जाने कितनी बार ..
कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ!!!!!!!

10 comments:

  1. वाह!...बहुत ही बढ़िया।

    सादर

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  2. वाह!!!!!!!!बहुत अच्छी प्रस्तुति,इस सुंदर रचना के लिए बधाई,...

    MY NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...

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  3. ...अपने आसपास जमे चेहरों को देख
    न जाने कितनी बार ..
    कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ……………और फिर जुडी हूँ विभक्त होने के लिये

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  4. सरस जी, बहुत ही अद्भुत अभिव्यक्ति है आपकी ... पता नहि कितनी ही बार, कितने हिस्सो में विभक्त होते हैं हुं !!

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  5. जितने हिस्से , उतने अनुभव ...

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  6. इस सुंदर रचना के लिए बधाई,"कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ……………और फिर जुडी हूँ विभक्त होने के लिये"
    welcome on MY NEW POST "MAAN"

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  7. विभक्त होना और फिर जुड़ना ... गहन अभिव्यक्ति

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  8. वाह ......बेहतरीन और शानदार.....बहुत ही अच्छी लगी पोस्ट.....हैट्स ऑफ इसके लिए ।

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  9. वाह!!!सुन्दर भाव...
    सरस जी आपकी बिटिया बहुत प्यारा लिखती हैं..हमने बेटे को पढवाई उनकी रचना...मेरा स्नेह उसको दीजियेगा.

    सादर.

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    1. बहुत बहुत धन्यववाद विद्याजी !

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