Monday, April 15, 2013

परिभाषाएँ - (५) ..............सलीब !




सलीब !

वह बोझ !
जिसे हर किसी को ढोना है
अलग अलग पड़ावों पर
अलग अलग रूपों में ....!!!

वह सज़ा !
जो समाज के ठेकेदारों ने
बेगुनाहों को दी है
बगैर सच जाने .....!!!

वह लेखा जोखा !
जहाँ अपने हर किये की
सफाई देनी होती है
समाज को ...खुद को ......!!!

वह सांत्वना !
जो कभी कभी
अपने ही पापों का बोझ
कुछ कम कर देती है .....!!!

वह उम्मीद का क़तरा  !
जो इंसान की हिम्मत को
कुछ और ठेलता है -
'बस अब दर्द ख़त्म ही हुआ',समझाता हुआ ....!!!

वह ख़तरा !
जो हरदम अहसास दिलाता है
की जहाँ यह बोझ उतरा
तुम्हारा अंत नज़दीक है ......!!!

वह घाव !
जो अपनों के दिए दर्द हैं
जो कभी अनजाने में ...कभी जबरन
कर दिए थे ...रूह पर .......!!!

वह धरोहर !
जिसे सहेजना है
उम्र के आखरी पड़ाव तक
बिना रियायत .......!!!

         

Sunday, April 7, 2013

परिभाषाएं -- (४)






ज़िन्दगी -

एक अज़ीम- ओ- शान खैरात ..!
जो सिर्फ
किश्तों में है मिलती..

वह जुम्बिश ..!
जो साँसे चलते रहने के गुमाँ को
है जिंदा रखती ....

वह फ़रियाद ..!
जिसकी कहीं ..कभी
सुनवाई नहीं होती ...

वह मुफ़्लिस नदी ..!
जो सिर्फ मौसम के रहमो-करम से
है बहती .....

वह नेमत..!
जिसे मांगते सभी हैं
पर क़ुबूल नहीं होती ....

नूर का वह बेरंग कतरा ..!
अपनी मर्ज़ी के रंग भर जिसमें
शिकायत इंसां को...
ख़ुदा से हैं होती  .....



Thursday, April 4, 2013

शीशा







एक पुरानी कविता जो स्कूल में लिखी थी


एक अंतराल के बाद देखा...
मांग के करीब सफेदी उभर आई है
आँखें गहरा गयी हैं,
दिखाई भी कम देने लगा है...
कल अचानक हाथ कापें ..
दाल का दोना बिखर गया-
थोड़ी दूर चली ,
और पैर थक गए .
अब तो तुम भी देर से आने लगे हो..
देहलीज़ से पुकारना ,अक्सर भूल जाते हो
याद है पहले हम हार रात पान दबाये,
घंटों घूमते रहते...
..अब तुम यूहीं टाल जाते हो...
कुछ चटख उठता है-
आवाज़ नहीं होती ...
पर जानती हूँ
कुछ साबित नहीं रह जाता.....
और यह कमजोरी...
यह गड्ढे....
यह अवशेष .....
जब सतह पर उभरे ...
एक चटखन उस शीशे में बिंध गयी ..
और तुम उस शीशे को...
फिर कभी देख सके...!