Thursday, January 31, 2013

क्षणिकाएं------३




चश्मा -

बचपन की आदतें-
कभी नहीं भूलतीं -
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा -
कितनी शान से घूमते थे  -
जिस रंग का चश्मा -
उसी रंग की दुनिया -
सब कुछ एक ही रंग में ढला हुआ
कितना दिलचस्प लगता .

आदतें आज भी नहीं बदलीं
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है -
आँखों पर -
प्रेम-
द्वेष -
पक्षपात का चश्मा लगाये -
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!


विश्वास -

एक सुन्दर रिश्ता -
एक अदृश्य डोर-
जो बांधे रहती है -
एक शिशु को ...माता पिता की ऊँगली से -
एक पत्नी को समर्पण से -
एक भक्त को ईश्वर से -
एक योद्धा को अपने अस्त्र से-
इस सृष्टि को अपने नियमों से -
सदा......!

Wednesday, January 30, 2013

सुदामा तुम कहाँ हो ....




तुमहीसे सीखा प्यार लेना नहीं देना है -
प्रेम अपेक्षा नहीं त्याग है -
उस मुट्ठीभर चावल का मोल -
मेरे सारे कोषसे कहीं ज्यादा था -
वह उपहार तुम्हारे लिए तुच्छ था-
इसीलिए छिपाया था -
आज दुनिया का छल और स्वार्थ देख-
ह्रदय फिर भर आया है -
सुदामा तुम कहाँ हो.....!

जिस युग में द्रुपद और द्रोण
मित्र कहलाते थे -
द्रोण भी मित्र द्रुपद के घर पधारे थे -
वहीँ द्रोण का हुआ भयंकर अपमान !
मित्र का रक्खा - तनिक भी मान !
आज उन्हीं दृपदों का चहुँ और देख वास  -
अश्रु रहित नेत्रों से बही रक्त की धारा है -
सुदामा तुम कहाँ हो...!!!

.........???




प्रश्नों की बौछार लगी है
और मैं -
इनके बीच खड़ी
खोज रहीं हूँ उनके जवाब ...
' जो होता है क्यों होता है '?
शायद ईश्वर की मर्ज़ी ..
'क्या ईश्वर इतने निष्ठुर हैं '?
नहीं
जो होता है, अच्छे के लिए होता है...
शायद यह भी उसी अच्छे होने की
पहली कड़ी है ...
किसी भी ईमारत को बनाने के लिए -
'पहली ईंट' को नींव की ईंट बनना होता है -
वही उस ईमारत को
मजबूती , ताक़त और स्थिरता देती है -
लेकिन 'उसे'
अपनी आहुति देनी होती है ...
'तो क्या इश्वर ने उसकी आहुति ली '?
नहीं आहुति नहीं ...
बलिदान माँगा -
जो जला सके उस आग को -
जिला दे मानवता को -
जो जंगल की आग सा -
ध्वंस कर -
नेस्तनाबूत कर दे हैवानियत को ...!
दामिनी ......
आज उस ईंट पर
एक बुलंद इमारत की नींव पड़ चुकी है -
शायद यही इसमें छिपी अच्छाई हो ...
शायद यही ईश्वर की मंशा हो ...!

Monday, January 28, 2013

कोशिश





हर मुनासिब कोशिश की तुम्हें मनाने की
तुमने तो  ठान ली थी ...बस दूर जाने की

जानते थे तेरी किस बात से डर लगता है
अपना ली वही आदत पार पाने की

बहुत कोशिश थी गमे-दौराँ से रूबरू करूँ
तुम्हें तो जिद्द थी -सिर्फ अपनी सुनाने की

ज़ार ज़ार चाहा बरबादियों का इल्म तो हो
तुमने तो ठान ली थी..तबाहियाँ मचाने की

अब इल्तिजा क्या करें और शिकायत क्या
हाथ खींचा जिससे उम्मीद थी बचाने की

Saturday, January 26, 2013

गणतंत्र दिवस




सहसा याद आ गए
बचपन के वे दिन -
जब मनाते गणतंत्र और स्वंत्रता दिवस
सीने में जोश और आँखों में नमी भरे
जब झंडा स्कूल का फहराते थे -
जन गण मन  -
हर शब्द
दिलों की थाह से उभरते आते थे -
कितना अभिमान
देश और झन्डे पर अपने था
गौरव से सर अपने
ऊँचे उठ जाते थे
आँख टिकाये टीवी पर -
रहता इंतज़ार -ध्वजा रोहण का
फहराता तिरंगा जब -
वे क्षण वहीँ रुक जाते थे .....

आज फिर आया है गणतंत्र दिवस
लेकिन आज
वह जोश
वह जज़्बा नहीं
न है चाह की देखूं
परेड जनपथ की -
न इच्छा फहराऊं झंडा अभी -
वह ध्वज जिसमें
लिपटे शहीद आये  थे
सर जिनके किये थे ...
धड़ से जुदा ...

याद आया है फिर  उन शहीदों का जोश -
मरने मिटने वतन पे वे सब चल दिए -
पर समीधा बने जिस हवन के लिए
क्या वह आहुति थी
'इस' वतन के लिए ....?
जहाँ ज़ुल्म की नुमाईश
बद से बदतर हुई -
जहाँ सच्चाई को
सिर्फ सूली मिली -
जहाँ अपनों ने अपनों पे
ढाए सितम -
जहाँ औरत बनी आज सिर्फ
एक जिसम .......

क्या मनाएँ भला -
क्यों मनाएँ भला -
किस ख़ुशी , किस विजय का
बहाना गढ़ें -
बीत जायेगा यह भी
हर वर्ष की तरह -
आओ गिनती में इसकी इज़ाफा करें.....

Thursday, January 17, 2013

क्षणिकाएं- 2




अहम्

अक्सर देखा है रिश्तों को
पहल के दायरे में -
उलझते हुए -
वादे....
दावे....
रिश्तों की अहमियत.....
प्रघाड़ता.....
सब - दायरे के बाहर
विस्थापित से  -
सर झुकाए खड़े रहते हैं
और भीतर-
रहता है साम्राज्य
'अहम्' का !

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सेंध

आओ मिलकर -
अहम् के दायरे में सेंध लगायें -
बारी बारी से पहल दोहराएं -
इसे -
भीतर ही से तोड़ गिराए ....
और रिश्तों को पुन: -
उनकी गरिमा
दिलवाएँ....  !

Friday, January 11, 2013

.....तूने मुझे शर्मसार किया ...




'पुत्रवती भव'
रोम रोम हर्षित हुआ था -
जब घर के बड़ों ने -
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था -
कोख में आते ही -
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने ...
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ......
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था -
लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
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आज.....
तूने ...मेरी झोली भर दी !
शर्म से...
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं ...
उस धिक्कार से -
जो हर आत्मा से निकल रही है ...
उस व्यथा से -
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है ...
उन बददुआओंसे -
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ....!

मैंने तो इक इंसान जना था -
फिर - यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू ...

आज मेरी झोली में
नफरत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है -
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे -
वही बददुआ बन गया  !

तूने सिर्फ मुझे नहीं -
' माँ' - शब्द को शर्मसार किया .....

Thursday, January 3, 2013

क्षणिकाएं



    (१)
एक अनजाना चेहरा -
एक अज्ञात नाम -
लेकिन कमाल का जज़्बा-
फिर यह शिकायत क्यूं ,
की इंसानियत मर चुकी है ......!

   (२)

मौन से बढ़िया साथी आज तक नहीं मिला
वह न रोकता है ...न टोकता है ..
बस मेरे मनकी सुनता है ....
न बहस करता है  ...न उलझता है ...
न अपनी बात मनवाने की जिद्द करता है ...
मौन सिर्फ साथ देता है ...जब तक चाहो ...
जहाँ तक चाहो ....!!!!

    (३)

शोर सुना है अक्सर -
-सर पीटती लहरों का
-अस्फुट , अर्थहीन नारों का
-विस्फोटों के खौफ का
- नूरा कुश्ती करते  विचारों का ....
पर जो देहलाता है सबसे ज्यादा !
वह है शोर-
सन्नाटे का ...!!!