Thursday, December 13, 2012

'फ़र्क पड़ना '




तुम्हारा यह कहना की तुम्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
......तुम्हे फ़र्क पड़ता है  !
दिन की पहली चाय का पहला घूँट तुम ले लो -
मेरे इस इंतज़ार से
..... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
तुमसे अकारण ही हुई बहस से -
 माथे पर उभरीं उन सिल्वटोंसे
.....तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए , दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है  इस बात से
....... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
इस तरह ..रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बातसे  तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
फिर जीवन के अहम् निर्णयों में -
कैसे मान लूं ...की तुम्हे फ़र्क नहीं पड़ता ......
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर संध को भर
उसे मज़बूत बनाता है  .....
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी छोटी खुशियाँ उसपर खिलकर
उस रिश्ते को सम्पूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
जो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं  ...!!!!

Monday, December 10, 2012

चिंताएँ




कितनी उर्वरा होती है वह ज़मीन -
जहाँ बोते हैं हम बीज
चिंताओंके ---
बेटे की बेरोज़गारी -
घर की दाल रोटी-
बेटी की शादी -
रिश्तों में अविश्वास-
किस्म किस्म के बीज.....
देखते ही देखते
एक जंगल खड़ा हो जाता है -
एक घना जंगल-
चिंताओंका -
एक चलता फिरता जंगल-....

हम सब उस बोझ को ढोकर-
घूमते रहते हैं -
दिनों ..महीनों..सालों ...
जंगल गहराता जाता है -
बोझ बढ़ता जाता है
और कंधे झुकते जाते हैं...

क्यों न हम काट छांटकर
तराश दें उसे
और जंगली बेतरतीब बोझ को
उतार फेंके -
हाँ -
चिंताएँ फिर उग आएँगी
उस उर्वरा ज़मीन पर !
लेकिन हर चिंता का समाधान है -
उसे सिर्फ खोजना है ...तराशना  है....
और अपने बोझ को हल्का करते जाना है ....

Sunday, December 9, 2012

नासूर




टीस सी उठती है जब रगों में दौड़ता है धुआँ
जो तुम्हारी सिगरेट से निकलता हुआ
मुझे हर पल, हर घडी अहसास दिलाता है
कि तुम्हारा शौक हमें दूर कर देगा ....

कभी यह धुआँ तुम्हारे पास होने का अहसास दिलाता था
तब नित नए आकार खोजा करती थी उसमें ...
लेकिन अब तो बस दिखती हैं -दो धँसी ऑंखें
तीन अंतहीन खोहों  वाला चेहरा .....

क्यों नहीं सुन पाते उस आवाज़ को
जब मन चीखता है हर कश की टीस से
क्यों नहीं देख पाते वह बेबसी
जो हर सिगरेट के जलने से बुझने तक -
अविरल बहती है मेरी आँखों से ....
क्यों तुम हो जाते हो इस कद्र खुदगर्ज़
कि मेरी तड़प तुम्हे दिखाई नहीं देती .....

ऐसा तो नहीं कि तुमसे कुछ छिपा हो -
उन मनहूस पलों में जब रूठे हो तुम मुझसे अकारण ही -
अनगिनत सिगरेट एक कतार से पीते हो .....
हथेलियों  को कोंचती हूँ मैं सुइयों से
कि भीतर कि टीस कुछ कम हो .....

हर कश से वह टीस नासूर बनती  जाती है
मेरा दिल ...मेरी आत्मा किसी खोह में धंसती जाती है
पुकारती हूँ हर बार बेबसी से लेकिन
मेरी आवाज़ तुम्हें छूकर गुज़र जाती है -
एक ही बार सही ....मुड़के तो देखा होता
इस पार से आती उस आवाज़ को जाना होता ....

सुनो !
अब भी नहीं हुई है देरी -
सूरज अब भी नहीं डूबा है
अब भी हवाओं में जीवन की महक बाक़ी है
आओ मिलकर कोई और सहारा खोजें
'यह सहारा ' तो जीवन  से बेवफाई है ...!