तुमहीसे सीखा
प्यार लेना नहीं
देना है -
प्रेम अपेक्षा नहीं त्याग
है -
उस मुट्ठीभर चावल का
मोल -
मेरे सारे कोषसे
कहीं ज्यादा था
-
वह उपहार तुम्हारे लिए
तुच्छ था-
इसीलिए छिपाया था -
आज दुनिया का छल
और स्वार्थ देख-
ह्रदय फिर भर
आया है -
सुदामा तुम कहाँ
हो.....!
जिस युग में
द्रुपद और द्रोण
मित्र कहलाते थे -
द्रोण भी मित्र
द्रुपद के घर
पधारे थे -
वहीँ द्रोण का हुआ
भयंकर अपमान !
मित्र का न
रक्खा - तनिक भी
मान !
आज उन्हीं दृपदों का
चहुँ और देख
वास -
अश्रु रहित नेत्रों
से बही रक्त
की धारा है
-
सुदामा तुम कहाँ
हो...!!!
सुदामा उस चने के स्नेहिल स्वाद की मुझे ज़रूर है ....तुम जहाँ भी हो आ जाओ
ReplyDeleteऐसा प्यार करने वाला ...और ऐसा निभाने वाला ...दोनों की ही दरकार है ...तभी तो सुदामा का मोल होगा
Deleteआपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 02/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteरचना के चयन के लिए आपका हार्दिक आभार यशोदाजी
Deleteबहुत सुन्दर बेहतरीन रचना...आभार
ReplyDeleteमैं भी सुदामा बन जाऊं जो कृष्ण कहीं मिल जाए यदि :)
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण कविता.
कृष्ण तो खुद सुदामा की तलाश में हैं.....छूटते ही पहुँच जायेंगे ...प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार शिखा
Deleteअनुपम भाव ... लिये उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर
सुदामा हम सब के अन्दर कहीं है ...
ReplyDeleteउसे जीवित रखना जरुरी है ....
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ...!!
वही तो इंसानियत का एकमात्र अंश रह गया है भीतर......प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार हीर जी
Deleteबहुत भावपूर्ण .....बहुत सशक्त सुंदर खोज ......अन्तर्मन को सकारात्मक आवाज़ देती हुई .....
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी रचना ....सरस जी ....
आपका यह प्रोत्साहन बहुत अच्छा लगा ...आभार
Deleteसीख तो मिलती है पर जीवन में कहाँ उतर पाती है. गहन भाव...
ReplyDeleteतुमहीसे सीखा प्यार लेना नहीं देना है -
प्रेम अपेक्षा नहीं त्याग है -
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई स्वीकारें.
हाँ आजकल के परिवेश्में शायद यह मुमकिन न हो .......प्रोत्साहन के लिए आभार
Deleteभावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,,,
ReplyDeleteबेहतरीन भाव
हीर जी सही कह रही है ....बस जान लो ...पहचान लो !
ReplyDeleteहमने भी गाँठ बाँध ली...:) .....आभार !
Deleteकहाँ कहीं नज़र आती है, अब कृष्ण और सुदामा की वो निश्छल दोस्ती ,
ReplyDeleteस्वार्थ से भर गयी है दुनिया,
मार्मिक कविता
प्रेम अपेक्षा नहीं त्याग है - कितनी सटीक अभिव्यक्ति है. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteउऋण हो गये सुदामा -मित्र के हिस्से के चने स्वयं चबा गये थे वही उधार इस रूप में चुकता हुआ और भाग्य के कपाट खुल गये ऍ
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण उत्कृष्ट रचना:
ReplyDeleteNew postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
New post तुम ही हो दामिनी।
सुदामा जैसे स्वार्थरहित मित्र आज कहाँ ? द्रुपद और द्रोण की बहुत सुंदर उपमाएँ दी हैं ... सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकहाँ वो सुदामा आज, कहाँ वो कृष्ण हैं ... बहुत सुन्दर भावों से भरी प्रस्तुति!
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