Sunday, December 21, 2014

पेशावर संहार पर ............




यह एक ऐसा दर्द है
जिसकी न कोई थाह
चीर कलेजा रख दिया
रह रह निकले आह

रह रह उठती हूक
वह मंज़र कैसा होगा
खेले जिसके संग
तड़पता देखा होगा

दिल देहलादे जो
वह चीखें गूंजी होंगीं
पथरा जाये आँख
नज़ारा देखा होगा

चीखा होगा मन
सलाखें भुंकती होंगी
ढेर शिशुओं का जब
तड़पता देखा होगा

रीति आँखों से
उसने सहलाया होगा
अंतिम बार उसे जब
माँ ने नहलाया होगा

पूछा  होगा ईश से
चुप रहा वह कैसे
मासूम सी जानों को
मिटने दिया क्यूँ ऐसे

क्या था उनका दोष
करते थे हँसी ठिठोली
इंसानी वहशत बनी
जब, सीने की गोली

अब तो खालीपन है
हर आँगन हर ठाँव
आँसू ही अब मरहम हैं
रोये सारा  गाँव

सरस दरबारी

  

Monday, December 8, 2014

समाधान हमारे हाथ में है ............




एक कहानी पढ़ी थी कभी -
दूर देश की किसी अनजान सड़क पर एक पुरुष रास्ता पार करने के लिए खड़ा था . गाड़ियों का रेला ख़त्म ही नहीं हो रहा था - तभी उसने एक वृद्ध महिला को देखा जो बड़ी कातर  दृष्टि से इधर उधर किसीको ढूंढ रही थी कि कोई उसे सड़क पार करा दे.पर उससे अनजान सब अपनी ही दौड़ में व्यस्त थे . तभी वह उसकी और बढ़ा. पास जाकर बड़े प्रेम से उसका हाथ थाम उसे सड़क के दूसरी और ले गया . कृतज्ञ नेत्रों से आशिश्ते हुए जब उस  वृद्धाने  उस पुरुष को धन्यवाद कहना चाहा तो वह बोला , " नहीं माजी, मुझे इस बात के लिए धन्यवाद न कहिये , इसमें मेरा ही स्वार्थ था. मैंने तो यह सिर्फ यही सोचकर किया की दूर अपने देश में जब मेरी वृद्धा माँ इसी तरह सड़क पर खड़ी सहायता खोज रही होगी , तब कोई मेरा यह ऋण चुका देगा.
कितना अच्छा हो अगर हमारी सोच भी ऐसी ही हो जाये तब न जाने जीवन की कितनी जटिल समस्याओं का समाधान निकल आये .
आज के दौर में हर परिवार अपनी बेटी अपनी बहु की सुरक्षा को लेकर चिंतित है . बेटियाँ जब तक घर नहीं लौट आतीं एक अनजानी आशंका, एक वीभत्स डर घेरे रहता है हमें जिसे हम खुद को आश्वस्त कर, बार बार परे धकेलते रहते हैं. आशंकाएं फिर भी सुगबुगाती रहती हैं भीतर.
अक्सर ऐसी खबरें पढने सुनने में आतीं हैं की यात्रियों से भरी बस या ट्रेन में कुछ शोहदे किसी लड़की को छेड़ रहे थे और कोई बीच बचाव नहीं कर रहा था ........क्यों .......”.क्योंकि वह हमारी रिश्तेदार थोड़ी है ..हम क्यों पचड़े में पड़े ...जान है तो जहाँ है भाई .....शांत बैठो ”. पर उसके बाद कितनी असंतुष्टि, स्वयं के प्रति कितनी हिकारत महसूस करते हैं हम.
बस यही सोच बदल जाये तो हमारे समाज की बहू-बेटियाँ सुरक्षित हो जाये . जब कोई वारदात होती है और भीड़ के बीच होती है तो उस वक़्त वह भीड़ ही उस वारदात को होने से रोक सकती है बशर्ते उस भीड़ में भी यह जज्बा हो. आखिर उन मुट्ठीभर लफंगों की क्या मजाल की वे कोई अश्लील हरकत करें. उन्हें अपनी शामत बुलानी है क्या.
उस युवती के आपत्ति उठाने पर अगर सारी भीड़ सचेत हो जाये और उन लफंगों को धुन डालें तो दोबारा ऐसी कोई हरकत करने की उनकी हिम्मत नहीं होगी. और अगली बार उसकी निरर्थकता भांपकर खुद ही उस जोखिम से गुरेज़ करेंगे.
आज आप किसी की बेटी को बचाएँगे तो हो सकता है खुदा न खास्ता कल जब आपकी बेटी असुरक्षित होगी, तो कोई न कोई ईश्वर का भेजा फ़रिश्ता वहां मौजूद होगा उसकी रक्षा करने के लिए क्योंकि कोई भी सवाब ज़ाया नहीं जाता. कोई भी पुण्य कभी बेकार नहीं होता .
क्या यह विश्वास ही पर्याप्त नहीं है कि हम खुद सड़क चलती हर लड़की की सुरक्षा  का बीड़ा उठाएँ? जब कोई अनहोनी घटते देखें तो पूरे बलसे उसका प्रतिकार करें..?
विश्वास कीजिये सिर्फ यही जज़्बा काफ़ी है स्त्रियों की सुरक्षा के लिए और ऐसा करने से जो संतुष्टि मिलेगी उसका तो कोई मोल ही नहीं ........और अपनी नज़रों में जो हम उठ जायेंगे ....सो अलघ .

सरस दरबारी
 

  

Thursday, November 20, 2014

प्रीत























ओस की वह बूँद
अपना हश्र जानते हुए भी
हर रात
बिछ जाती है
पृथ्वी के कण कण पर ...
...........
प्रीत जो ठहरी ...!!


सरस

Thursday, October 30, 2014

कैनवस





अनगिनत रंग , बिखरे पड़े थे सामने
दोस्ती....विरह....दुःख..समर्पण ...
और एक कोरा कैनवस
बनाना  चाहा एक चित्र ....जीवन का
जब चित्र पूरा हुआ
तो पाया सभी रंग एक दूसरे से मिलकर
अपनी पहचान खो चुके थे ..!
लाल ...पीले से मिलकर नारंगी हो गया था
पीले नीले में घुलकर हरा ...
नीला लाल में घुलकर बैंगनी .....
जीवन ऐसा ही तो है
आज की ख़ुशी में हम -
कल की चिंताएँ मिलाकर-
बीते दुःख को आज में शामिल कर -
प्यार और विश्वास में शक को घोल -
उसे ईर्ष्या ....अविश्वास में बदल देते हैं
और उस साफ़ सुथरे कैनवस पर
खिले रंगों को  विकृत कर.... खोजते फिरते हैं
अर्थ...!!!!!!




Thursday, October 9, 2014

जूनून



घंटों बीत जाते हैं सोचते सोचते
अगर ऐसा न होकर
कुछ ऐसा हुआ होता तो -
उसने यह न कहकर
 कुछ यह कहा होता तो -
तो मैं भी कुछ ऐसा कहती !
शनै: शनै:
मैं बादलों पर उतर आती
नर्म फाये तलवे गुदगुदाते
और ज़मीन कोसों दूर रह जाती
तभी सच के ठन्डे स्पर्श से
संक्षेपित-
मैं हरहराकर
ज़मीन से टकराती
पर वह चोट
रोक न पाती मुझे
अगले ही पल
वही सिलसिला फिर रवां हो जाता.....
जूनून जो ठहरा !

सरस

Wednesday, August 27, 2014

आक्रोश



अक्सर
हादसा होने के बाद....
उसके अंजाम के डर से ....
सन्नाटे गूँजा करते हैं भीतर..... !
और खड़े हो जाते हैं पहाड़ पलों के -
(एक एक पल तब
पहाड़ सा लगता है )
तुम जब आपा खो
बरस पड़ते हो मुझपर...!!
और मैं खोजती रह जाती हूँ
वजह ......
उस आक्रोश की..!!!

Tuesday, April 8, 2014

दर्द ..




तक़दीर का वह बदरंग स्याह सा टुकड़ा
जो मुख़तलिफ़ रंगों में सदा ढलता है
कभी ममता का रंग ओढ़कर वह
अपनी लाड़ो को विदा करता है
और कभी ओढ़कर फ़र्ज़ की चादर
भस्के रिश्तों के पैबंदों को सीता है
जब मोहब्बतों को पहन इतराता है
तोहमत-औ-ज़ुल्म के हर बोझ को वह ढ़ोता  है
तंग आ जाते जो ज़ीस्त की परेशानी से
थककर चूर हुए उस ज़हन को पनाह देता है  
 दर्द एक दोस्त भी है हमदर्द भी हमराज़ भी है
वह हर हाल में सिर्फ हमसे वफ़ा करता है ......!

Thursday, March 27, 2014

ख़्वाब -






नीलाभवर्ण बादलों में छिपी बूँदें 
वे ख़्वाब हैं 
जो देखे थे हमने 
कभी झील के किनारे उस बेंच पर 
कभी बारिश में ठिठुरते हुए 
तो कभी 
तुम्हारी छूटती ट्रेन को दौड़कर पकड़ते हुए 

सोचा न था कभी 
वाष्प बन 
वह हो जायेंगे दूर 
हमारी पहुँच के परे 

लेकिन 
संवेदनाओं की नमी
उन्हें दूर न रख सकी 
अब्र कणों से फिर बिछ गए  
चहुँ ओर......


Monday, March 3, 2014

शापित



सूरज उससे अनभिज्ञ है
किरणें अनजान !
ख़ौफ़ज़दा रहती है वह
शाम के धुंधलके से -
और रात लाती है फरमान !
चल तेरे मरना का वक़्त आ गया

बंद कर देती  है सारी
ख्वाइशें , सपने , यादें
और रख देती है वह संदूकची
उसी आले पर .....
जड़ लेती है चेहरे पर हंसी -
पोत लेती है रंग रोगन -
और बन जाती है नुमाइश ...

हसरतों पर कोई पाबंदी नहीं
जितना चाहे चुग्गा डाल दे
घेरे रहती हैं उसे -
पर पालती नहीं उन्हें
लहू लुहान होने के डर से
और नामुराद आंसू-
मूँह छिपाये फिरते हैं

हंसी उसका वस्त्र है
और उपहास उसकी नियति
और रिश्ते....!
एक मृगमरीचिका -
जिसमें केवल आस है
यहाँ लोग रिश्ते कायम तो करते हैं
निभाते नहीं
सदियों से ब्रह्मकमल सी खिलती आयी है
सुबह होते ही ...मुरझा जाने के लिए ....


Tuesday, February 18, 2014

अश्मिभूत



तुमने एक बार फिर
उस सतह को बींधा
जिसके नीचे दबे थे
बहुत से अहसास-
अनगिनत सपने-
कुछ वादे-
कुछ टूटे
कुछ अनछुए-
कुछ कोशिशें-
उन्हें निभाने की
कुछ टुकड़े कमज़ोर पलों के -
जो वक़्त से छूटकर -
छितर गए थे -
और साथ ही बिखर गयी -
हर उम्मीद -
उन्हें दोबारा जीने की -

छेड़ा होता
उस शांत नीरव सतह को -
तो हो सकता है
सब कुछ -
वक़्त के बोझ तले जो जाता
अश्मिभूत !
.........................

रहता तो भीतर ही...!!!