Thursday, September 26, 2013

नियति

 

नियति के विस्तृत सागर में
कब कौन कहाँ तर पाया है -
जिसको चाहा , रौंदा उसने
और पार किसीको लगाया है .
पेशानी पर जो लिखा है -
बस पेश उसीको आना है
कितना भी तुम लड़ लो भिड़ लो
उसका ही सच अपनाना है .
क्या देव और यह दानव क्या-
कोई भी बच न पाया है -
फिर तुम तो केवल इंसान हो -
सब पर नियति का साया है                                                                                                                                                                                                                                                
होता न ऐसा तो पांडव
क्यों दर दर भटके भेशों में -
महारानी द्रौपदी क्यों बन गयी-
सैरंध्री कीचक के देश में .
क्यों राम ने छोड़ा देस अपना -
और भटके जंगल जंगल में
था राज तिलक होना जिस दिन
वे निकले वन्य प्रदेश में.
 बस नियति ही करता धर्ता
उसके आगे सब बेबस हैं
फिर कौन गलत और कौन सही -
सब परिस्थितियों के फेर हैं .


Thursday, September 19, 2013

विरह



विरह का बीज तो उसी दिन पड़ गया था -
जब तुमने अचानक हाथ छुड़ाकर
जाने का फरमान सुनाया था
और मैं लम्हों को छील छीलकर -
अपनी गलती ढूंढता रहा था .....
 वह फरमान ..!
जैसे मौत की सज़ा सुनाकर 
कलम तोड़ दी थी तुमने ..!!

आज वह बीज
एक वृक्ष बन गया है
और मैं यहाँ बैठा
राहगीरों को विरह्के फल
तोड़ने से रोकता
आज भी तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ
पता नहीं क्यों ...!!!

Sunday, September 15, 2013

सौवीं पोस्ट




आज अपनी सौवीं पोस्ट लिख रही हूँ...जब २ फ़रवरी १९१२ में मैंने अपनी पहली पोस्ट लिखी थी ...तब एक आशंका  ... एक झिझक जकड़े हुए थी ...पता नहीं लिख भी पाऊँगी कि नहीं, कोई पढ़ेगा भी कि नहीं...अपनी बात कह भी पाऊँगी कि नहीं .....
कॉलेज के ज़माने में लिखती थी ...उसके बाद विवाह हुआ ....और एक रोक लग गयी...सोच में ..कल्पना शक्ति में .....गुलाब के सुर्ख लाल रंग में मिर्च का रंग दिखाई देने लगा और सरसों के खेत घर की चारदीवारी में खो गए ...और फिर एक लम्बा अन्तराल ...३० साल बाद फिरसे लेखनी उठाई .....डरते ....सहमते ...
जब धीरे धीरे लोगों ने जाना, सराहा , पोस्ट को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दी ....तो बहोत ख़ुशी हुई .....हिम्मत बढ़ी ....और मैंने अपने विचारों को परवाज़ देदी ...
फिर दोस्त बने....इस आभासी दुनिया में कुछ ऐसी शक्सियतें मिलीं ......जो बहुत अन्तरंग मित्र बन गयीं ...इनसे बहोत कुछ सीखा...और सीखती आ रही हूँ......जब सफ़र शुरू किया था तब अकेली थी ...पर अब बहोत सारे मित्रों का यह कारवां मेरी धरोहर ...मेरी ख़ुशी बन गया है ...किसी ने सखी कहा, किसी ने बेटी और किसी ने प्यार और अधिकार से 'दी' कहा तो किसी ने अग्रजा कहकर मान दिया .....
आज  अपनी सौवीं पोस्ट लिखते हुए मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है ...मित्रों आपका यह साथ सदा यूहीं बना रहे ...और आपका स्नेह, आपके क्रिटिसिज्म मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करते रहें ...बस यही चाहती हूँ...

आज बस इतना ही....:) :) :) 

Sunday, September 8, 2013

समंदर




देखे हैं कई समंदर
यादों के  -
प्यार के -
दुखों के -
रेत के -
और सामने दहाड़ता-
यह लहरों का समंदर !
हर लहर दूसरे पर हावी
पहले के अस्तित्व को मिटाती हुई...

इन समन्दरों से डर लगता है मुझे .
जो अथाह है
वह डरावना क्यों हो जाता है ?
अथाह प्यार-
अथाह दुःख-
अथाह अपनापन-
अथाह शिकायतें.......

इनमें डूबते ..उतराते -
सांस लेने की कोशिश करते -
सतह पर हाथ पैर मारते
रह जाते हैं हम -
और यह सारे समंदर
जैसे लीलने को तैयार
हावी होते रहते हैं .

और हम बेबस, थके हुए लाचार से
छोड़ देते हैं हर कोशिश
उबरने की
और तै करने देते हैं
समन्दरों को ही
हमारा हश्र.....!!

         


Thursday, September 5, 2013

मुग़ालते



अच्छा लगता है मुगालतों में जीना
उन एहसासों के लिए
जो आज भी धरोहर बन
महफूज़ हैं कहीं भीतर -
उन लम्हों के लिए
जो छूट गए थे गिरफ्त से ...
जिए जाने से महरूम ...
लेकिन आज भी
उतनी ही ख़ुशी देते हैं !
उन यादों के लिए
जो आज भी जीता रखे हैं
उन अंशों को
जो चेहरे पर उभर आयी मुस्कराहट
का सबब बन जाते हैं ...
हाँ ...मुग़ालते अच्छे होते हैं ...!!!!!