Saturday, April 28, 2012

-संबल-






नन्ही हथेलियाँ गुदगुदाती रेत,
हर बार मुट्ठियों से सरक जाती है
और वह,
उसे मुट्ठियों में भींच
वहां पहुँच जाता है,
जहाँ माँ,
उसका महल बनवा रही है .
मैं भी-
हाथों में रेत भर लेती है,
मुट्ठियाँ भिंचने लगती हैं
वह सरककर डह जाती है.
फिर अंजुरी में भर उसे
हवा के सुपुर्द कर देती हूँ.
पारदर्शी होती रेत ,
चारों ओर भुरभुरा जाती है ....
क्षणार्ध के लिए -
सूरज कई कणों में विभक्त हो जाता है !
और मैं
थककर उस ओर बढ़ जाती हूँ
जहाँ तुम,
एक और महल बनवा रहे हो!!!

Friday, April 27, 2012

-मेरे हिस्से की धूप -





जब मनको धुंध ने घेरा हो -
बोझिल ठंडक का डेरा हो -
जब भीतर सब कुछ जड़वत  हो -
और बहता सिर्फ उच्छवास हो-
ता हलके से कोई मुझे बुलाता -
हौले से कन्धा थपथपाता-
भीतर की ठंडक पिघलाकर-
जीवन की ऊष्मा भर जाता -
है उसका चिर परिचित सा रूप -
यह है मेरे हिस्से की धूप  ...!

Wednesday, April 25, 2012

बहुत सोचती हो माँ ...




बहुत सोचती हो माँ
बेटे के यह शब्द
पुन: उधेड़ देते हैं वह सच
जो ढक मूंदकर  रखा था अब  तक....

हाँ सोचती हूँ -
हफ़्तों महीनों के बाद मिले उन दिनों को -
जो हमने आज की कल्पना में काटे थे !

सोचती हूँ उन पलों को -
जो हमने -
"बस थोड़ी सी देर और " की ललक में
चुराए थे !
उस छटपटाहट  को जो हमारे "कल" में थी
हमारे "आज" के लिए ......

फिर सोचती हूँ वह आज -
जब नींद में छुआ हाथ,
तुम बेरुखिसे खींच लेते हो -
और महसूस होता है उन झरोखों का पट जाना-
जहाँ से एक दूसरे की आत्मा में झांकते थे कभी ....

क्या यही था वह आज !!!!!

.....फिर -
-यह बेरुखी -
-यह अजनबीपन -
-यह बर्फ-
कैसे घुल गयी हमारे रिश्ते में -
-शायद तुम ही बता सको....!!!!!

Monday, April 23, 2012

-यह शहर -




यह शहर सपनों का शहर है -
हर गली ....हर कूचे में जो पलते हैं-
अनबुझी ख्वाइशों की सूरत में-
रातभर करवटें बदलते हैं ...

यह शहर वादों का शहर है -
पर्त दर पर्त चस्पां होते जो -
उन चेहरों पे जो गाँव, कस्बों में-
राह तकते हैं..बात जोहते हैं .....

यह ज़ज्बातों का शहर भी है -
इनके मूँह मांगे दाम मिलते हैं -
यह हर दस्तूर को निभाते है -
हर मौके पे , मुफिक होते हैं ......

यह उम्मीदों का शहर भी है-
जो हर शिकस्त से लड़खड़ाती हैं-
लेकिन फिर थाम अपना ही दामन -
एक और जंग में जुट जाती हैं ....

इस शहर के अनेक चेहरों में -
एक चेहरा, छिपा अभी भी है -
उस कीमती कालीन के नीचे-
छिपा हुआ सा एक.....
 दलदल भी है ....!!!!!    

Saturday, April 14, 2012

-कबंध -











बरसों से इसी तरह ज़मीन में धंसी हुई -
श्रापग्रस्त -
तुम्हारी बाट जोती हुई -मैं !
और तुम ...!!!
मुझसे विमुख -
रुष्ट -
असंतुष्ट -
मेरी पहुँच से कोसों दूर !!!!!

मेरे राम ...
क्यों नहीं विध्वंस कर जला देते -
श्रापग्रस्त स्म्रितियोंको  -
.....जो कुरूप हैं ....
और जिला देते .
वह जो सुन्दर है ...
जो परिस्तिथियोंसे-
अभिशप्त नहीं ......

Monday, April 9, 2012

"सिक्स्त सेन्स"

                                  









 स्पर्श -
अहसासों से भरा वह शब्द
जो रिश्तों की ऊँगली पकड़
खुद अपनी पहचान बनाता है .....
- हर रिश्ते का अपना अनुभव -
जहाँ पिता का आश्वस्त करता स्पर्श -
अपूर्व विश्वास भर जाता है-
वहीँ भ्राता का रक्षा भरा स्पर्श ,
भयमुक्त कर जाता है -
पति या प्रेमी का सिहरन भरा स्पर्श -
असंख्य सितारों की मादकता भर जाता है -
तो वहीँ भीड़ की आड़ लेते लिजलिजे अजनबिओंका घिनोना ,
और अनचाहे रिश्तेदारों का मौका परस्त स्पर्श -
शरीर पर लाखों छिपकलीओं  की रेंगन भर जाता है -
- सभी स्पर्श !
लेकिन कितने भिन्न !!!
और इनकी सही पहचान -
ही हमारा सुरक्षा कवच है ...
 हमारा "सिक्स्त सेन्स" !!!!!!! 

Saturday, April 7, 2012

-क्षणिकाएं -

                           (१)

                   नार्सिस्सिज्म ( आत्ममोह )

                   हाँ ....
                   मैं नार्सिसिस्सिट  हूँ !
                   मैंने  'तुम्हारी ' नज़रों में
                   'अपने' ' ही अक्स को चाहा हरदम ....!


                      (२)

                  पिरामिड

              तुमने खड़ी कर ली हैं , भीमकाय दीवारें
             और क़ैद कर लिया है  खुदको भीतर !
             सभी अहसासों, संवेदनाओं से दूर.....
             'मिस्त्र के फेरो' की भाँती -
              पर .....वे तो अमर होना चाहते थे -
              .....................और तुम !!!!!

              
                  (३)

             आंसू

               आंसू हैं -
               रोक न इन्हें
               टूट के बह जाने दे -
               ठहरे आंसू ...
              नासूरों का घर होते हैं ...!!!



                                                                  
                                        

Thursday, April 5, 2012

माँ.... मैं दूध न पी पाऊँगी!

कई बार बच्चों की कोमल  सच्ची  भावनाएं हमें  जीवन  के भूले   हुए पाठ याद दिला जाती हैं


आज अचानक खेल अधूरा
छोडके वह बैठी
आँचल के छोरसे पोंछके आंसू
औंधे मूंह जा लेटी 
पूछा मैंने जाकर उससे
"अरे क्या हुआ है तुझको "
रोते रोते बोली -
"माँ ..अब दूध पीना मुझको "
बहला फुसलाकर मैंने फिर जब उससे कारण पूछा
आंसू का रेला उमड़ा ...
और दर्द उसका बह निकला  ....
"माँ, वह ग्वाला कितना गन्दा !.....
बछड़ा भूखा रोता था , था पड़ा गले रस्सी का फंदा
ग्वालेने जैसे ही फंदा , गले से निकाला
भूखा बछड़ा दौड़ता हुआ , माँ के पास था आया ....
थोडासा ही दूध अभी वह बछड़ा था पी पाया ...
ग्वालेने झटसे खींच के उसको
माँ से दूर भगाया ......!
बछड़ा दूर बंधा हुआ , था अपनी बारी जोहता
उतने में वह गन्दा ग्वाला ,
सारा दूध था दोहता ...
सारा दूध निकाल ग्वाला,
 लोगों में बाँट आया !
जब बछड़े की बारी आयी ,
उसने कुछ पाया.!!!  

माँ क्या ऐसा रोज़ है होता ?
रोज़ वह बछड़ा भूखा रोता ?
माँ उसका हक छीनकर
कैसे मैं खुश रह पाऊँगी
मेरी प्यारी अम्मा....
अब मैं दूध कभी पी पाऊँगी  !"

Wednesday, April 4, 2012

मीत ...









रोक एक दिन मैंने पूछा -
वन में उडती तितली को-
इतनी खुश, उत्साहित सी तुम ,
हरदम कैसे दिखती हो !
तुम्हे देख, गुम होजाता सब दुःख -
मन हल्का हो जाता है,
वह भी तुमसे प्रेरित होकर नभको छूना चाहता है !
दुखों के बोझोंसे कैसे मन हल्का कर पाती हो
कैसे चिंता भूलभालकर, यूँ स्वच्छंद उड़ पाती हो ?
बोली तितली ...सुनो सहेली,
दुखसे कातर हर कोई होता,
चोट मुझे भी लगती है ,
और दर्द भी मुझको अक्सर होता ...
लेकिन इनको ढोकर जब मैं -
नभ में दूर उड़ जाती हूँ ,
बादलों पर बोझ उतार सब,
फिर हल्की हो जाती हूँ !
अपना अपना बोझ सखीरी
हमें स्वयं ही ढोना है
लेकिन दर्द, कम करना है तो 

मीत प्यारासा खोजना है
कह उससे सब दर्द व्यथा फिर
तुम भी मुझ जैसी हो लो
अपना दुःख हल्का करने को
बादल एक तुम भी खोजो..!!!!