Saturday, May 29, 2021

'अकाल में उत्सव '

 


पंकज सुबीर जी की अब तक की सारी कृतियाँ पढ़ चुकी हूँ . हर कृति को एक ही सिटिंग में ख़त्म किया. उनकी गठी हुई शैली और मारक बिंब उनके लेखन को इतना रोचक बना देते  हैं  कि किताब के पन्ने खुद ब खुद पलटते जाते हैं .

अकाल में उत्सव पढ़ते वक़्त शुरुआत में दिमाग कई बार भटका,पर जब कहानी ने गति पकड़ी, तो फिर किताब हाथ से नहीं छूटी. कहानी ख़त्म होते होते नौकरशाहों की पूरी कौम से नफरत हो गयी. नीचता की हर पराकाष्ठा लाँघकर भी यह कैसे सर उठाकर समाज में सम्माननीय व्यक्तियों की तरह जीते हैं, देखकर, पूरे सिस्टम से आस्था उठ गयी.

एक पूरी बिसात बिछी हुई है, सबके खाने तै हैं और सत्ता करती है सुनिश्चित किसे हाथी बनाना है, किसे घोडा , किसे ऊँट - और एक आम आदमी, एक गरीब किसान, उनकी चालों में फँसकर, अपनी जान से हाथ धोकर , उनकी शै और मात का बायस बनता रहता है. न जाने कितने किसान इस सियासी खेल में, काल का ग्रास बन गए , बनते जा रहे हैं .

इस किताब की विशेषता है, इसके मारक वाक्य, जो लेखक बीच बीच में धीरे से कह जाते हैं, और यही वाक्य इस पूरी कहानी का मर्म हैं .

" छोटा किसान जब तक लड़ सकता है, तब तक किसान रहता है और फिर हारकर मज़दूर हो जाता है"

जब बीवी के शरीर से वह आखरी गहना भी उत्तर जाता है, तब किसान पूरी तरह से टूट जाता है।  जब परंपराएं मजबूरी की भेंट चढ़ जाती हैं, जब कोई सहारा शेष नहीं बचता, जब फसल भी ओले और बेमौसम बरसात की भेंट चढ़ जाती है , जब क़र्ज़ की सिल्ली के बोझ से साँसें उखड़ने लगती हैं, तब वह किसानी छोड़, मज़दूर बनने पर विवश हो जाता है , क्योंकि पेट की आग कभी किसी की सगी नहीं होती. एक ऐसा सच जो गले में दर्द की गाँठ सा अटक जाता है  . 

" किसान के जीवन में बढ़ते दुःख उसकी पत्नी के शरीर पर घटते ज़ेवरों से आँक लिए जाते हैं”.

बदहाली में यही गहने तो उसके और उसके भूखे परिवार के लिए एकमात्र सहारा होते हैं, भूखे पेट में  निवाला  होते हैं . हर गहना, फसल कटने पर , फिर छुड़वा लेने की मंशा से गिरवी रखा जाता है, पर अंतत: उसी साहूकार की तिजोरी का निवाला बन जाता है. और दोहरी तिहरी मार से बेदम होता किसान टुकड़े टुकड़े बिखरता जाता है.

"धृतराष्ट्र को हर युग में देखने के लिए संजय की आवश्यकता पड़ती थी, पड़ती है और पड़ती रहेगी".

ओले और बेमौसम बारिश से नष्ट हुई फसल के नुक्सान का आंकलन राजधानी में बैठी सरकार, अपने नियुक्त किये लालची , घुरघों द्वारा – करती है। बिना सच झूठ जाने। सही तो है , बगैर तंत्र के सत्ता पंगु  थी और सदा रहेगी.

" क्रूरता आपको बहुत सारी इमोशनल मूर्खताओं से बचा लेती है ".

एक बहुत ही दुखद मोड़ कहानी का, जब अपनी पत्नी का आखरी ज़ेवर उसके पाँव की तोड़ी , वह सुनार के पास बैठा पिघलवा रहा है. चाँदी की हर रिसती बूँद के साथ उससे जुडी मीठी यादें धुआं होती जा रही है, एक गरीब किसान की  भावनाओं का भी कोई मोल नहीं. सुनार जानता है , कि किसान बहुत मजबूरी में ही गहना तुड़वाता है , उसके आँसू भी उससे छिपे नहीं रहते. पर उसे क्रूर होना पड़ता है, हर इमोशनल मूर्खता से बचे रहने  के लिए। एक और निष्ठुर सच।

दो दृश्य  इस कहानी में लेखक ने अपने कौशल से कालजयी कर दिए हैं.

एक जब वह अपनी पत्नी कमला का आखरी गहना गलवाने सुनार के पास जाता है. उस गहने से जुडी अनगिनत मीठी यादें आँसू बनकर उसके कुर्ते की आस्तीन में जज़्ब होती जाती हैं, उस दर्द की तरह जो उसके भीतर एक आग सा सब कुछ जलाता जाता है। चाँदी की तोड़ी की हर रिसती बूँद, राम प्रसाद का सीना छेदती जाती है , और वह दुखों के महासागर में डूबता उतराता विलाप करता जाता है . कितना करुण है वह दृश्य.

और दूसरा जब वह अपनी पत्नी को बैठाकर, कलेक्टर के दफ्तर से माँगकर लाये हुए पकवान खिलाता है.  दुनिया के मशहूर रोमांटिक सीन्स भी इस एक दृश्य के आगे फीके पड़ जाएंगे . लेखक की कलम ने स्याह रंगों में भी ऐसे रंग भर दिए हैं जो दुरूह है, उस लिपि कुटिया में इतने पुखराज बिखेर दिए हैं , जिनकी आभा कभी फीकी नहीं हो सकती. लेखक ने उस प्रेम मय पल को अमर कर दिया है.

एक बदसूरत सच्चाई को कितनी खूबसूरती से पेश किया जा सकता है, वह ‘अकाल में उत्सव’ को पढ़कर जाना। इस खूबसूरत कलाकृति के लिए पंकज सुबीर जी को अनंत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।   

 

Monday, May 3, 2021

 


२२ मार्च को खबर मिली कि सागर सरहदी नही रहे..!

बहुत ही दुःखद खबर..!

दसवीं कक्षा में थे तबसे जानते थे उन्हें। अक्सर हफ्ते में एक बार घर ज़रूर आते। हर शनिवार गोष्ठियाँ होतीं घर पर, उनमें सागर अंकल भी शिरकत करते। 

उन्हें पैदल चलने का बहुत शौक था। यह उन दिनों की बात है जब वे वर्ली में रहते थे, और हम बांद्रा में। टैक्सियों की स्ट्राइक जब होती तो वे पैदल वर्ली से हमारे घर चले आते। ताज्जुब होता..!

"आप थकते नही', हम अक्सर पूछते। वे हँसकर कहते "चलने से में नही थकता। जितना चाहो चला लो। मेरा पसंदीदा शगल है।"

हम लोगों ने उनका नाम 'पदयात्रा अंकल ' रख दिया था।

एक और खासियत थी उनकी। उनके बाल सफेद और मूँछें बिल्कुल काली थीं। जब भी उनसे पूछा यह कैसे, तो हँसकर कहते, " अरे ये उगीं भी तो 16 साल बाद..!

बाजार और कभी कभी, का ट्रायल दिखाने ले गए थे। तब हम छोटे थे, पहली बार ट्रायल रूम देखा था। 

बहुत सी यादें जुड़ीं हैं उनसे। विवाह पश्चात हम अलाहाबाद आ गए। जब घर जाना होता तब अवश्य मिलने आते। फिर तो वर्षों उनसे भेंट नही हुई। अभी कुछ वर्ष पहले अलाहाबाद आये थे। हमें पता न था। जब अगले दिन अखबार में पढ़ा कि उन्हें अलाहाबाद में 'लाइफटाइम अचीवमेंट' से सम्मानित किया गया है, तो तुरंत पता लगाया कहाँ रुके हैं। वे यात्रिक में रुके थे। जब फ़ोन किया तो रात काफी हो चुकी थी। जब याद दिलाया "अंकल हम सरस बोल रहे हैं", तो उन्हें याद करने में कुछ समय लगा। उनकी बोली से एहसास हो रहा था, कि उम्र ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है। दिमाग पर ज़ोर दिया। हमने फिर कहा, "अंकल शब्द कुमार जी की बेटी।" एक दम से थकी सी आवाज़ चहक उठी।

" अरे बेटा तुम..!यहाँ कैसे।"

हमने कहा "अंकल शादी करके यहीं तो आये थे।

आपके आने की कोई खबर ही नही मिली नही तो हम भी उस प्रोग्राम में आते, आपको अवार्ड लेता देख, खूब जोरसे तालियाँ बजाते।"

वह हँस दिए, "क्या बताएँ बेटा इन लोगों ने बुलाया और मुझे ले आये। में तो आने की हालत में भी नही था। हमें याद ही नही रहा। उम्र हो गयी है अब। कब आ रही हो मिलने।"

मन हुआ उड़कर पहुँच जाएँ। पर रात बहुत हो चुकी थी, और वे थके हुए थे। हमने कहा "कल सुबह आयेंगे उनके आपसे मिलने।" वे बोले "बेटा हम तो सुबह सुबह निकल जायेंगे"

हम मन मसोसकर रह गए। कहा, "चलिए वहीं मुम्बई आकर ही मिलते हैं।"

मिलना टलता गया। और आज यह खबर..!

इतने प्रसिद्ध थे, उतनी सारी हिट्स दीं, सिलसिला, कभी कभी, बाजार, चाँदनी,इत्यादि। पर लेशमात्र भी घमंड नही था उनमें।

इत्तेफ़ाक़ से हमें गूगल पर उनकी वह तस्वीर मिल गयी, जैसा हमने उन्हें शुरू में देखा था। 

आप हमेशा याद रहेंगे अंकल..!

विनम्र श्रद्धांजलि...!


सरस दरबारी


 


 


तुम अब कूच की तैयारी करो...!



कोरोना इस शब्द से जितनी दहशत होती थी उतनी ही चिढ़ होने लगी है। बस कर भाई। यह कैसी प्यास है तुम्हारी जो बुझती ही नही। खप्परों खून पी गये, नर मुंडों का ढेर लगा पड़ा है, मरघट पटे पड़े हैं लाशों से, घरों में हाहाकार, दिलों में चीत्कार मचा है, पर तुमपर कोई असर नही हो रहा है, गिद्ध की तरह अब भी चोंच और पंजे गढ़ाए हो..!

लेकिन याद रखना, बार बार एक ही जगह पर चोट, उसे सुन्न कर देती है। हम भी सुन्न होते जा रहे हैं। और जिस दिन पूरी तरह सुन्न हो गए, तुम्हारा आतंक मिट जाएगा। नेस्तनाबूत हो जाओगे तुम। यह बात और है तब तक कितनों के घर बर्बाद कर जाओगे। 

आँगन से किलकरियाँ छीनी, सरों पर से छत, बड़ों का आशीष छीना तो कहीं जीवन से आश्रय।

 तुम पहली बार दहशत बनकर आये थे। लोग सहम गए थे, घरों में दुबक गए थे। उस गली से  दूरी रखते, उस मोहल्ले से न गुजरते जिसमें किसी को कोरोना हुआ होता। हउआ बन गए थे तुम। तुमने अपनी इज़्ज़त बना ली थी समाज में। लोग तुम्हारा मान रखते थे, दहशत ही से सही, पर कुछ इज़्ज़त थी तुम्हारी। अब लोग गालियाँ देते हैं तुम्हें, बद्दुआएं बरसती हैं तुमपर। 

तुम जब पहली बार आये थे, तो तुमने हमें हमारी गलतियों का एहसास  करवाया था। प्रकृति के साथ मिलकर कैसे रहा जा सकता है, यह पाठ पढ़ाया था। मछलियाँ तटों के करीब आ गईं थीं, पशु सड़कों पर विचरने लगे थे, पंछियों की बोलियाँ फिरसे रस घोलने लगीं थीं। बरसों से प्रदूषण के धुंध में छिपीं बर्फीली पहाड़ों की चोटियाँ दिखने लगीं थीं।आकाश, वायु जल सब  हमारा हस्तक्षेप न रहने से स्वच्छ प्रदूषण रहित हो गए थे।

 आश्चर्य आश्चर्य घोर आश्चर्य...यह भी तुम्हारी ही देन थी।

 सदैव अपनी दुनिया, सोशल मीडिया में लिप्त रहनेवालों को घर का , अपनों का महत्व समझाया था। घर की दाल रोटी में भी स्वाद है, यह जताया था। हम कितनी फिजूलखर्ची करते हैं, यह एहसास दिलवाया था। 

पर अब धिक्कार है तुमपर..!

तुमने इंसान को लालच का ऐसा घड़ा बनाकर छोड़ दिया, जिसका पेट भरता ही नही, तुमने मनुष्य को एक कफन नोच दानव बना दिया, जो बेबस, बीमार, मजबूरों का खून चूस रहा है। उनकी चिता पर अपनी रोटी सेक रहा है। लोग बीमारों को लेकर अस्पताल अस्पताल घूम रहे हैं, इलाज को तरस रहे हैं, और तुम्हें सिर्फ पैसा दिख रहा है...!

जिन अस्पतालों की तरफ कोई देखता न था, वह जीभर कर उगाही कर रहे हैं। ऑक्सीजन जैसी चीज किसे प्रकृति ने इफ़रात में दिया, उसीका मोल लगा काला बाजारी कर रहे हैं। लोगों की साँसों का सौदा कर रहे हैं। 

ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कला कृति हैं वह, यह भी भूल गया..!

तुमने बहुत कोशिश की, पर फिर भी 'कुछ' लोगों से हार गये। वे जो अपनी परवाह न कर तुमसे लोहा लेने को आगे बढ़े। वे जो अपनी संपत्ति बेचकर ज़रूरतमंदों की सहायता कर रहे हैं। वे जो दिन रात एक कर, सहायता पहुँचाने को तत्पर है। ऐसे भी लोग हैं दुनिया में, और ऐसे लोग ही तुम्हें तुम्हारी औकात बताएँगे। कर लो जितना ज़ुल्म चाहो, बिगाड़ दो इंसानों की नस्ल, पर यह मुट्ठीभर लोग अडिग रहकर तुम्हें धता बता रहे हैं। बस कुछ दिन और कर लो मनमानी, तुम्हारे दिन भी चुकने को हैं। तुम्हारे पाँव अब उखड़ने को है। रात कितनी भी काली हो, भोर नही रुकती । अब भी नही रुकेगी। बाँधो अपना बोरिया बिस्तर और हो जाओ दफा। बस कुछ दिन और..!

हफ्ता दो हफ्ता..!

चलते बनो। जब तक  निस्वार्थ लोग इस दुनिया में रहेंगे, बड़ी से बड़ी आपदा के पाँव उखड़ जाएँगे। 

तुम भी कूच की तैयारी करो..!


सरस दरबारी