Friday, July 31, 2020

त्राण- लघुकथा



वह एक डरावनी रात थी। दूर से फौजी जूतों की पास आती ध्वनि, पूरे मोहल्ले में मृत्यु का आतंक फैला रही थी। देश के तानाशाह ने एक नया फरमान जारी किया था। एक विशेष समुदाय के लोगों को खोज खोजकर कोण्सेंट्रेशन कॅम्पस में ठूँसा जा रहा था। प्रतिरोध करने वालों को तुरंत मौत के घाट उतार देने का फरमान था। लोग छिपते फिर रहे थे। घरों के दरवाजे तोड़कर लोगों को तहखानों से घसीट घसीटकर लाया जा रहा था।
धर्म, मानवता, संवेदनशीलता कूड़े के ढेर पर दम तोड़ रहे थे। मनुष्य बेबसी से उन्हें मरते देख रहा था। 
दया, क्षमा, की संभावनाएँ ध्वस्त हो चुकी थीं। अब तो केवल प्रतीक्षा थी, पल पल पास आती मृत्यु की, जो आज या कुछ दिनों, महीनों बाद कॅम्पस में अनिवार्य थी। एल्ली अपनी तीन बहनों के साथ तहखाने में छिपी थी। एक एककर घर के सदस्य मारे जा चुके थे। आज इनकी बारी थी। वह चारों एक दूसरे के कंधों पर बाहें डाल, एक घेरा बनाकर खड़ी हो गईं। 
“मरना तो हमें है ही। क्यों न हम इन अंतिम पलों को खुशी खुशी गुजारें। पास आती मृत्यु के अस्तित्व को ही हम क्यों न कुछ पलों के लिए नकार दें। चलो हम सब मिलकर खूब नाचें गाएँ। ताकि मौत की अनिवार्यता में साथ बिताए यह खुशी के कुछ पल, उसकी भयावहता को कम कर दें। ताकि काल कोठरियों की उस नश्वरता  में जब हम  एक दूसरे को याद करें, तो हम सबका हँसता हुआ चेहरा आँखों के सामने उभरे, मृत्यु की विभीषिका से आतंकित चेहरा नहीं।” 
और वह सभी बहनें गाने लगीं, नाचने लगीं। उन्होने ऊँचे बर्फीले पहाड़ों से बहते झरनों के, बागों के खिलते सुंदर फूलों के, समुंदर के , आसमानों में उड़ते स्वतंत्र पंछियों के गीत गाये। उन्होने इन स्वप्नों के गीत गाये, जो पूरे न हो सके, उन्होने आश्वासनों के गीत गाये, कि वह पूरे होंगें। अगले जन्म में ही सही। वे नाचती रहीं, गातीं रहीं, खिलखिलाती रहीं। मौत की आहट पास आती गई। 
फौजी जूतों की निकट आती ध्वनि के साथ, उनके गीतों और नृत्य की गति तेज़ होती गई। 
वह दंड, अत्याचार और मृत्यु के भय से कहीं ऊपर उठ चुकीं थीं।

सरस दरबारी      

 

Friday, July 17, 2020

आलेख - भूमिकाएँ


इतिहास से बड़ी कोई पाठशाला नहीं और समय से बड़ा कोई गुरु नहीं। फिर भी हम आँखें मूँदकर वास्तविकता से अंजान बने रहना चाहते हैं। समय का चक्र, एक पूरा चक्कर काटकर फिर उसी जगह पहुँच जाता है। बस केवल पात्र और स्थान बदल जाते हैं। नहीं बदलती तो नियति, जो इंसान अपने स्वभाव , अपने आचरण से स्वयं निर्धारित करता है। सबको उसी क्रम से गुजरना होता है। पहले जहाँ पिता था, आज बेटा है, कल उसका बेटा होगा। उसी प्रकार जहाँ कल सास थी, वहाँ आज उसकी बहू है, कल उसकी बहू होगी। यह क्रम निरंतर चलता रहेगा।
ऐसा अक्सर देखा गया है, बेटा जब तक छोटा होता है, उसके पिता ही उसके सुपरमैन होते हैं। वह बहुत ही हसरत से उन्हें देखता है। उनके जैसा बनना चाहता है, पर जैसे जैसे वह बड़ा होता है, उसे अपने पिता की  कमियाँ दिखाईं देने लगतीं हैं। वहीं पिता बड़े होते बेटे के साथ सख्ती बरतने लगता है। बेटे को यह नागवार गुज़रता है, और धीरे धीरे दोनों के बीच की खाई बढ़ती जाती है। एक समय ऐसा आता है, जब दोनों एक दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सबकी अपनी वाजिब वजह, वाजिब तर्क होते हैं। दोनों ही अपनी अपनी जगह सही होते हैं। बस नज़रिये का फर्क होता है। वह नज़रिया, जो समय और उम्र के साथ बदलता है। पिता को इसका एहसास अंत तक नही होता, पर बेटे को होता है, जब वह पिता बनता है। जैसे जैसे वह अपने बेटे को बड़ा होता देखता है, उसे अपने पिता के तर्क समझ आने लगते हैं। क्योंकि अब उसकी सोच, उसका नज़रिया उनके जैसा होने लगता है। अपने बेटे को बात बात पर टोकना, उसपर बिगड़ना, अंकुश लगाना, शुरू हो जाता है। और इतिहास फिर खुद को दोहराता है। यह क्रम अबाध्य गति से चलता आ रहा है, पीढ़ी दर पीढ़ी, दर पीढ़ी।
वह स्त्री जो यह सब होता देखती है, वह पहले बहू होती है, फिर माँ। दोनों ही स्थितियों में उसका एक ही रोल होता है। बीच बचाव करना। जब बहू होती है, ससुर के कहर से पति को बचाती रहती है, कभी सच्चाई छिपा कर, कभी आधा सच बताकर, कभी पति से माफी मंगवाकर। और जब माँ बनती है, तो उसी पति से बेटे को बचाती रहती है, कभी सच्चाई छिपाकर, कभी आधा सच बताकर, कभी बेटे से माफी मंगवाकर। वह पति को समझाती है, “जो बातें आपको बुरी लगती थीं, आज वही वह अपने बेटे के साथ कर हैं। क्यों नहीं समय देते उसे। हर चीज़ समझने की एक उम्र होती है, वह ठोकबजाने से नहीं, अपने आप समझ में आती है, क्यों नहीं उसे अपने आप समझने देते। आप भी उस समय से गुजरे हैं। मैं गवाह रही हूँ, फिर आप क्यों ऐसा करते हैं।” पिता मजबूर है। वह चाहते हुए भी अपने आपको बदल नहीं सकता। क्योंकि उम्र के साथ उसकी भी सोच बदल कर ठोस, परिपक्व हो गई है। वह भी अब समझने लगा है, कि पिता ऐसा क्यों कहते थे। उनकी जिन बातों से उसे चिढ़ होती थी आज बेटे को उन्हीं बातों से होती है।
उसी तरह एक सास का किरदार भी होता है। अक्सर सुना है सासों को अपनी बहुओं से अपनी सास की बुराई करते हुए। हमारे साथ ऐसा होता था , यह होता था, पर हम चुपचाप बर्दाश्त करते थे। बहू जो सब कुछ सुन रही है, महसूस करती है, कि उसी जगह पर तो आज वह है। ऐसा ही कुछ तो वह भी महसूस करती है। पर उसकी सास यह बात क्यों नहीं समझ पा रहीं, कि जाने अंजाने वह भी उसके साथ वही सब कर रही हैं। सास नहीं समझ पाएगी क्योंकि वह जान बूझकर नही कर रही। उसे एहसास भी नहीं हो रहा कि वह अंजाने में बहू के साथ ज्यादती कर रही है।
यहाँ एक बात साफ कर देना चाहती हूँ, कि मैं उन सासों का उदाहरण ले रही हूँ, जो बहुओं को चाहती हैं। उनसे कोई बैर नहीं रखतीं।यह सिर्फ उनकी सोच की वजह से होता है, किसी प्रयोजन के तहत नहीं। यह ऐसी समस्या है, जिसका समाधान कठिन है। क्योंकि बदलती उम्र के साथ सोच का बदलना अनिवार्य है, और सोच के साथ स्वभाव और बर्ताव का। और जब तक दुनिया कायम है, यह प्रक्रिया चलती रहेगी।
सरस दरबारी   

Wednesday, July 15, 2020

शहीदों के जब ताबूतों में अवशेष आते हैं





  

देश की खातिर वीरों ने दी
जीवन की कुर्बानी
हर शहीद के साथ जुड़ी 
शहादत की कहानी।
इन वीरों के परिवार की
अपनी एक कहानी
सिर्फ नहीं देता शहीद
देता कुनबा कुर्बानी
पीछे रह जाते हैं
एक बेवा बूढ़ी माता
जर्जर शरीर लिए पिता
एक बहन और एक भ्राता
इनके सपने, इनके अरमान काठ हो जाते हैं
शहीदों के जब ताबूत में अवशेष आते हैं ।    

बूढ़ी माँ थी खड़ी वहाँ
लिए आँखें पथराईं 
भेजा था जिसको तिलक लगा  
करे उसकी अगुआई 
दोनों हाथों से शीश झुका 
जो माथा चूमा था
उसकी काठी के टुकड़ों की 
बस गठरी है आई
अर्थी चूम बिलखना उसका देख न पाते हैं
शहीदों के जब ताबूतों में अवशेष आते हैं
   
एक शहीद की ब्याहता थी
चूड़ा था हाथों में
पथराई सी थी खड़ी हुई
उजड़े हालातों में
उसका अंश भीतर पल रहा 
यह खबर सुनानी थी
उसके अरमान शहीद हुए
किस्मत की घातों में
उजड़ी किस्मत देख आँसू रुक न पाते हैं
शहीदों के जब ताबूतों में अवशेष आते हैं
 
 
उसी भीड़ में कोने में
 बैठा था बूढ़ा बाप
कर्ज़ बीमारी बन गए थे
अब जीवन का श्राप 
उसके बुढ़ापे की तो अब
लाठी भी टूटी थी
अब तक थी जो पल रही
वह आस भी छूटी थी
जर्जर सहमी काया देख के मन भर आते हैं
शहीदों के जब ताबूतों में अवशेष आते हैं

सरस दरबारी 

Sunday, July 12, 2020

गुनाह बेलज्जत- व्यंग्य




मिसेज शर्मा अपने मोटापे से बहुत परेशान थीं । अब तक बेचारी सारी तरकीबें आज़मा कर थक चुकी थीं। शायद ही कोई सलाह, कोई सुझाव उन्होने छोड़ा हो। शायद ही कोई नुस्खा हो जो उन्होने न आज़माया हो।  किसी ने कहा मिसेज शर्मा आपने कुनकुने पानी में नीबू और शहद डालकर पिया है? बहुत फायदा करता है । मेरी तो पेट की चर्बी उसीसे कम हुई । पूरे 6 महीने से पी रही हूँ । आँखों में चमक लिए उन्होने नीबू पानी  शहद पिया पर घबराहट और कँपकँपी शुरू हो गई। बेचारी फिर भी पीती रहीं, जब तबीयत बिगड़ने लगी , तो हारकर छोड़ दिया।
दिनभर इंटरनेट खोलकर दुबले होइने के नुस्खे ढूँढा करतीं । वहाँ तो जैसे बाढ़ ही आई हुई थी । हर कोई आपकी दुखती रग पर हाथ रख रहा था और नए नए उपाय बता रहा था , इस दावे के साथ की यह तो रामबाण नुस्खा है , अगर आपने इसे ट्राइ नही किया, तो कुछ नहीं किया। इतने लोगों को इससे फायदा हुआ है । सुनिए उन्हीकी जुबानी । लगा जैसे सारी वेबसाइटस के लिए आपका मोटापा एक गंभीर मुद्दा है , और सब ही आपकी सहायता करने को तत्पर हैं।
बेचारी हर वह नुस्खा आज़माती जो उनके वश में होता पर मोटापा टस से मस नहीं होता।
एक दिन एक पुरानी सहेली से मौल में टकरा गईं ।
लग तो वह सुधा ही रही है , पर इतनी दुबली छरहरी , वह तो मुझसे बीस ही थी ...उन्होने मन ही मन सोचा ।
"अरे निशि मैं हूँ सुधा, पहचाना नहीं ।"
मिसेज शर्मा को विश्वास नहीं हुआ । "सुधा अरे यार तुम तो पहचान में नहीं आ रहीं । इतनी दुबली कैसे हो गईं तुम। हमें भी तो बताओ । कितनी चार्मिंग लग रही हो" मिसेज शर्मा के सीने पर उसे देख साँप लोट रहा था , पर चेहरे पर कैसे ज़ाहिर होने देतीं ।
"अरे यार यह काया पलट कैसे हुई । हमें भी राज़ बताओ ।"
"अरे यार निशि मैंने डाँस शुरू कर दिया है। मुझे किसीने बताया की डाँस करने से वज़न घटता है। बस रोज़  एफ़एम रेडियो बजाकर , 2 घंटे वही करती हूँ।"
"तुझे अटपटा नहीं लगता"
"अरे कमरा बंद कर लेती हूँ अंदरसे और क्या ...! सबसे कह रखा है , एक्सर्साइज़ कर रही हूँ, कोई डिस्टर्ब न करे।"
उसके बाद सुधा ने क्या कहा , मिसेज शर्मा ने नहीं सुना । उनके दिमाग में खलबली शुरू हो गई थी ।
घर पहुँचकर जल्दी जल्दी काम निबटाये और पूरी तैयारी के साथ कमरे में बंद हो गईं ।
 बहुत मज़ा आया। वह अपने आप को हवा सा हल्का महसूस कर रही थीं । बहुत बढ़िया रहा यह सेशन। यार सुधा तू पहले क्यों नहीं मिली।
अगले दिन पूरा बदन पके फोड़े से टीस रहा था। हाथ पैर हिलाये नहीं जा रहे थे। उनकी तो  रुलाई छूट गई । जितना चल फिर पा रही थीं, वह भी बंद हो गया ।
अगर उन्होने सुधा की पूरी बात ध्यान से सुनी होती तो इतनी निराश न होतीं ।
उसने ठोक बजाकर कहा था, एकदम से शुरू मत कर देना , पहले कुछ दिन आधा घंटा करना फिर धीरे धीरे बढ़ाना । और हाँ पहले कुछ दिन शरीर में दर्द भी बहुत होगा पर घबराकर छोड़ मत देना ।
पर उस वक़्त मिसेज शर्मा की आँखों में सितारे नाच रहे थे , हवा से हल्की हूँ मैं , की धुन दिमाग में गूँज रही थी ।
एक दिन कई दिनों बाद उनके पति के एक मित्र घर पर मिलने आए।
"अरे भाईसाहब आप इतने दुबले कैसे हो गए।"
"क्या बताएँ भाभीजी डाइबेटीज़ हो गई," उन्होंने मायूसी से कहा।
"क्या डाइबेटेज होने से दुबले हो जाते हैं ...!"
"हाँ भाभीजी इसमें जो दवाइयाँ खाई जाती है, उससे वज़न कम हो जाता है।"
मिसेज शर्मा की आँखों में फिर सितारे चमकने लगे ।
डाइबीटीज...!!!
फिर एक नया शगल शुरू हो गया।
"काश मुझे डाइबीटीज हो जाए। फिर तो मैं भी दुबली हो जाऊँगी।"
एक दिन अपने पति से बोलीं , "ए सुनो , हमारे लिए भी वह दवा ला दो न जिसे खाने से दुबले हो जाते है।"
"तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया। जानती हो कितनी बुरी बीमारी होती है। ऐसा क्या पागलपन सवार है तुमपर। हद कर दी तुमने तो।"
"दुबला होना है तो आलू चावल बंद करो और ब्रिस्क वॉक करो । तभी दुबली होगी। और वह तो तुम्हें जान से प्यारा है। वह  तुमसे छूटेगा नहीं।"
अब तो बस उठते बैठते एक ही धुन सवार थी । काश मुझे डाइबीटीज हो जाए ।
वह कहते हैं न की अगर शिद्दत से कोई चीज़ चाहो तो पूरी कायनात .......
रूटीन ब्लड टेस्ट करवाया तो उसमें शुगर बढ़ी हुई निकली।
भारी मन से शर्मा जी ने उन्हें बताया कि तुम्हें डाइबीटीज हो गई है"
"डाइबीटीज..!"  मिसेज शर्मा .खुशी से चीख़ीं, मानो उनके नाम मिस यूनिवर्स का खिताब घोषित हुआ हो ।
अब तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था।
दवाई भी शुरू हो गई। रोज़ सुबह उठकर पहले वजन लेतीं। कुछ दिन तो वास्तव में वज़न घटा। बगैर किसी मेहनत के ७३ किलो से 70 किलो हो गया । वह बहुत खुश थीं। पर फिर धीरे धीरे सुई ने नीचे जाना बंद कर दिया। अब वह निरंतर बढ़त की ओर अग्रसर थी। उन्होने सोचा शायद मशीन सही जगह नहीं रखी। उन्होने तीन चार जगह बदल बदलकर वज़न लिया , पर वज़न जितना है , उतना ही तो आयेगा ।
मशीन कि सुई ने भी मानो ठान लिया था, कि अब चाहे जो हो जाए , नीचे तो नहीं जाना है।
इस बीच मिसेज शर्मा की सारी पसंदीदा चीज़ें छूट चुकीं थीं । आलू और आलू से जुड़ी हर वह चीज़ जिसमें उनके प्राण बसते थे, समोसा, मसाला डोसा , चाट, सब कुछ ।
बेचारी मरतीं क्या न करतीं। इस गुनाह बेलज्जत से लिपटकर रोने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। 

सरस दरबारी 

Saturday, July 11, 2020

हदें तै करनी होंगी


हदें तै करनी होंगी  
अभी हाल ही में एक खबर पढ़ी। एक युवती के पास एक फोन आया। लाइन पर कोई पुरुष था। बहुत ही घबराया हुआ। मैंने एक खून होते हुए देखा है और उसे अपने फोन पर उसका विडियो बना लिया है, और अब वह लोग मेरी जान के पीछे पड़ गए हैं।कहकर उसने घबराकर फोन रख दिया। युवती के हाथ पाँव फूल गए। उसने तुरंत पुलिस को फोन मिलाया, और पूरी वारदात उन्हें बता दी, कि एक बहुत ही घबराए हुए शक्स का फोन आया था , और वह ऐसा कह रहा था। जब उसने इस बात का ज़िक्र अपनी एक सहेली से किया, तो उसने बताया कि उसके पास भी ऐसा ही एक फोन आया था, और उसने भी घबराकर अपने दोस्तों से ज़िक्र किया, तो उन्होने बताया कि उस इंसान ने उससे आगे कहा, कि इसके बाद क्या हुआ यह जानने के लिए देखिये, फलाँ चैनल का फलाँ शो। वह बिफर गई जब उसने जाना कि यह सिर्फ इस टीवी चैनल का प्रोमोशनल  गिमिक था। वे अपने आनेवाला शो को प्रोमोट करने के लिए, ऐसे झूठे कॉल कर रहे थे। उसने एक मशहूर सोश्ल नेटवर्किंग साइट पर उस चैनल की जमकर भर्तस्ना की।
इस चैनल के ऍड कॅम्पेन वालों का दिमाग खराब है, या इनकी मति मारी गई है ? इन्होने कभी यह सोचा, कि उनकी इस हरकत से किसी कमजोर हृदय वाले की जान भी जा सकती है। आखिर कोई तो लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए, जो आपकी हद निर्धारित कर सके। उसके लिए उस चैनल के सेल्स मैनेजर की जवाबदेही है। उसपर मानसिक उत्पीड़न ( मेंटल हरासमेंट) के लिए मुकदमा चलाना चाहिए।
जब बहुत शोर शराबा हो गया, तो चैनल ने उसी सोश्ल साइट पर सबसे माफी माँगी और असुविधा के लिए खेद प्रकट कर दिया। क्या उनकी ज़िम्मेदारी यहाँ खत्म हो जाती है। अगर खुदा न खासता, कोई हादसा हो जाता और कोई अपनी जान से हाथ धो बैठता, तो क्या वह चैनल इसकी भरपाई करता।
भेड़िया आया, भेड़िया आया की झूठी खबर वाकई सच्ची हो गई, तो कोई ज़रूरतमन्द बेमौत मारा जाएगा। उसके कॉल पर लोग यही समझेंगे, कि फिर कोई प्रोमोशनल गिमिक है, और कोई उसकी सहायता को आगे नहीं आएगा।
एडवर्टाइजिंग और प्रमोशन, बाजारवाद की एक अहम ज़रूरत है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। पर ऐसा करते हुए, प्रोमोटेर्स को अपना विवेक अपना संयम, अपनी सूझ बूझ से काम लेना होगा। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की होड में अपनी उड़ान पर अंकुश लगाना होगा। ऐसा न हो इस अंधी दौड़ में उनसे कोई ऐसी भूल हो जाए, जिसकी वजह से उनकी साख मिट्टी में मिल जाये, और वह फिर लीपा पोती करते फिरें

सरस दरबारी     



Tuesday, July 7, 2020

आम आदमी और सिनेमा




जब भी आम आदमी का ज़िक्र होता है, तो एक जीवन से हारे , संघर्षों से झूझते, जैसे तैसे ज़िंदगी गुज़ारते, समय के साथ समझौता करते इंसान का स्वरूप ही मस्तिष्क में उभरता है । एक ऐसा इंसान जो हर जगह भीड़ के पीछे दिखाई देता है, जीवन में कुछ ठोस न कर पाने की घुटन को लिए। और यह आम आदमी उम्र के हर पड़ाव पर पाया जाता है। कभी बच्चा बनकर , समृद्ध बच्चों के ऐशोआराम को दूर से निहारता हुआ, कभी युवा बनकर कुछ न हासिल कर पाने की कसमाहट से उफनता हुआ।
ऐसे में वह निकास ढूँढता है। वास्तविकता से कुछ समय के लिए पलायन करना चाहता है । और ऐसे में सिनेमा एक ऐसा विकल्प बनकर उभरता है , जो कुछ समय के लिए ही सही , उसे उस सच से दूर ले जाता है जो दुखदायी है, अवसादपूर्ण है। ऐसे में वह ढूँढता है चैन , खुशी , खूबसूरती के कुछ खुशनुमा पल जहाँ जीवन की विसंगतियाँ , दुख दर्द उसे याद न आए। और वह जाकर छिप जाता सिनेमा घरों के अंधेरे में , जहाँ सिमला, कश्मीर, स्विट्ज़रलैंड की खूबसूरत वादियों में वह कुछ समय के लिए गुम होकर, खूबसूरत नायिकाओं की अदाओं में खो, नायक की जगह स्वयं को देखता है।
निर्माता निर्देशकों ने सदा आम आदमी पर कड़ी नज़र रखी, उसकी नब्ज़ को टटोला, क्योंकि फिल्म को हिट या फ्लॉप करने का दारोमदार सदा से ही उसपर रहा है, चाहे वह कोई भी दौर रहा हो। आज से दस दशक पहले जब दादा साहेब फालके ने हिन्दी सिनेमा की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई तब उन्हे इसका अंदाज़ भी नहीं होगा कि उन्होने मनोरंजन के क्षेत्र में क्रांति का वह बीज बो दिया था, जो सिनेमा की दुनिया में एक विशाल वटवृक्ष बन जाएगा , जिसकी शाखाएँ कई प्रान्तों और शहरों में क्षेत्रीय और प्रांतीय सिनेमा उद्योग की शक्ल में उग आयेंगी। पर शुरू में यह सबके लिए एक अजूबा था। हर आदमी भौंचक्का था , कि क्या यह भी मुमकिन है।  फिर मूक फिल्में बोलने लगीं। श्वेत श्याम की जगह रंगीन फिल्मों ने ले ली। इस तरह धीरे धीरे सिनेमा जीवन का हिस्सा बन गया। निर्माताओं ने तभी से आम आदमी की नब्ज़ टटोलनी शुरू कर दी थी । उसीकी पसंद को टटोलते हुए, पहले धार्मिक फिल्में बनी फिर ऐतिहासिक, फिर सामाजिक। फिर आया सॉफ्ट रोमांटिक फिल्म का दौर , जो काफी समय तक चला। आम आदमी उसी काल्पनिक दुनिया में जीता रहा।
कुछ समय बाद वह उस सबसे भी ऊब गया। जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि जीवन सिर्फ पेड़ों के इर्द गिर्द घूमना नहीं । अब उसे कुछ नया चाहिए था। कुछ ऐसा जो सच के करीब हो। मृणाल सेन , बिमल रॉय,  सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, ने आम आदमी को केंद्र में रखकर फिल्में बनायीं, मृगया, दो बीघा ज़मीन, पाथेर पांचाली, इत्यादि। पर वह फिल्में आम आदमी को बिलकुल नहीं लुभा सकी। अलबत्ता वह फिल्में अंतर राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में खूब सराही गईं। दो बीघा ज़मीन तो कान्स फिल्म समारोह में पुरस्कृत भी हुई। एक किसान के जीवन पर बनी यह फिल्म आज भी उतनी ही सामयिक है ।वी शांताराम की दो आँखें बारह हाथ, तीसरी कसम, जागते रहो, नदिया के पार, सत्यजित राय की पाथेर पांचाली, इन सारे कथानकों के मध्यस्थ आम आदमी ही था। इसी लीक की फिल्मों में थोड़ीसी तबदीली लाकर बसु चैटर्जी, बसु भट्टाचार्य ने, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्म कारों ने आम आदमी के जीवन के हल्के फुल्के पहलुओं पर फिल्में बनायीं, अंगूर, बावर्ची, चुपके चुपके, रजनीगंधा। यह फिल्में लोगों  ने खूब सराहीं। पर बॉक्स ऑफिस पर उतना प्रभावपूर्ण प्रदर्शन नहीं रहा।
सत्तर के ही दशक में बनी भूमिका सारांश , अंकुर मंथन भले ही बॉक्स ऑफिस पर अपना जलवा नहीं दिखा सकीं पर सिने प्रेमी आज भी उन फिल्मों को याद करते हैं। यह सभी आम आदमी की कहानियाँ थीं। सारांश में एक बुजुर्ग दंपति, की जो अपने मृत बेटे की अस्थियाँ पाने के लिए लाल फीताशाही के शिकंजे में जकड़े किस कदर त्रस्त होते हैं, अंकुर में जमींदारों द्वारा नौकरों पर होने वाले अत्याचार की कहानी है। इन सभी कहानियों के बीच आम आदमी, जब ऐसी फिल्में देखता है, तो कहीं उसे वे अपने से जुड़ी लगतीं हैं। लाल फीताशाही, सत्ता और प्रशासन के अत्याचार, भ्रष्टाचार, के विरुद्ध जब वह असहाय हो जाता है, जब लड़ने की शक्ति खो देता है, तब एक घुटन, एक आक्रोश भीतर पालने लगता है तब गंगाजल, अपहरण, घातक, जैसी फिल्में उसकी हिम्मत बढ़ाती हैं, भीतर दबा आक्रोश निकास पाता है, और रजनीकान्त सलमान खान अजय देवगन, सनी देओल, जैसे  पर्दे के नायक असल ज़िंदगी में उसके आदर्श बन जाते हैं।
हिंसा से आजिज़ हो जाने के बाद फिल्मों का ट्रेंड फिर बदला। फिर एक नई धारा का उद्गम हुआ। वह जिसमें व्यावसायिक सिनेमा का गैर ज़रूरी लटके झटके नहीं थी, और न ही सार्थक फिल्मों की उबाऊ खींचातानी। बल्कि सार्थक फिल्मों की कलात्मकता और व्यावसायिक फिल्मों की गंभीरता ने उन्हे बहुत खास बना दिया। तारे ज़मीन पर, रंग दे बसंती, मुन्नाभाइ जैसी फिल्में एक खास मकसद को लेकर चलीं, विषय उनका भी आम आदमी ही था , उसकी समस्याएँ ही थीं। तारे ज़मीन पर डिसलेक्सिक बच्चों पर एक गंभीर फिल्म थी , पर उसके ट्रीटमंट ने उसे खास बना दिया, कहीं किसी पल वह उबाऊ नहीं लगी। इन फिल्मों को लोगों ने हाथों हाथ लिया और बॉक्स ऑफिस पर भी फिल्मों ने नए कीर्तिमान स्थापित किए ।  
स्त्री प्रधान फिल्में भी इसी दौरान बननी शुरू हुईं। स्त्री जिसे हमेशा ही एक दोयम दर्जा दिया गया , जिसकी समस्याओं को हमेश अनदेखा किया गया , जिसकी मुश्किलों को हमेशा हाशिये पर रखा गया , आज फिल्मों के माध्यम से उन समस्याओं पर भी रोशनी डाली जा रही है । मधुर भंडारकर जैसे निर्माताओं ने औरतों कि समस्याओं को समझा , और चाँदनी बार में तबू, पेज थ्री में कोंकणा सेन, फ़ैशन में प्रियंका चोपड़ा, और कॉर्पोरेट में बिपाशा बसु को लेकर नायिका प्रधान फिल्में बनायीं। चौंका देने वाले तथ्य सामने आए , जो शायद उस महकमे मे कार्यरत लोगों के अलावा कोई नहीं जानता था । एक बार फिर इन सच्चाईयों को जानकर लोग चौंके। कई गंभीर  विषयाओं पर फिल्में बनी , कास्टिंग काउच जैसे घिनौने सच पर बनी फिल्म दी डरटी पिक्चर को लोगों ने हाथों हाथ लिया। एक बोल्ड विषय पर बनी फिल्म , आज के आम आदमी ने समझी और स्वीकार की ।   
आम आदमी अब जागरूक हुआ है। उसने कदम कदम पर परिस्थितियों के अनुकूल अपनी पसंद दर्ज की है। आज भी फिल्म निर्माता,निर्देशक , आम आदमी की नब्ज़ टटोलते हैं । उन्हे जो पसंद है वही परोसा जाता है , पुरानी शराब नई बोतलों में अलग अलग लेबेल्स लगाकर , बेची जाती है । आज आम आदमी तै करता है , कि उसे कौनसी फिल्म हिट होगी, और कौनसी एक सिरे से नकार दी जाएगी।
लेकिन यह बात भी अपने जगह सच है, की फिल्म उद्योग ने सदा उसकी भावनाओं का शोषण किया है, उसकी नुमाइश कर, एक भीमकाय व्यवसाय  खड़ा किया है, और जहाँ तक आम आदमी का प्रश्न है, उसकी स्तिथि में आज भी कोई विशेष सुधार नहीं आया है । यह क्रम यूहीं ही चलता रहेगा और आम आदमी और सिनेमा एक दूसरे की ज़रूरत बने रहेंगे।

सरस दरबारी   

  


Monday, July 6, 2020

किरचें



बंद करो दौड़ना उस रेस में
जिसके लिए तुम
नही बनी
तुमने फ़र्ज़ों को अंजाम दिया
बखूबी निबटाया
बच्चों को पाला
सही संस्कार दिए
सफल मुकाम तक पहुँचाया
अब छोड़ो यह सब
लिखना पढ़ना
तुम्हारे बस का यह
हुनर नही
नही हो तुम इस दुनिया की
इस जग के लिए नही बनी

बनके लौंदा
अपमान
कंठ में रुक जाता
पीड़ा बन
फैल जाता
भर सिसकी सहसा
मन उसका
विवाह के पूर्व
की दुनिया में
पहुँच जाता
उसका परिचय ही
उसका लेखन था
जो त्यज दिया था स्वयं
गृहस्थी की डोर संभालते ही
फिर नही देखा था
पलटकर भी
बहुत दूर चली आयी थी
भूलकर सब कुछ
बस अपनी गृहस्थी में
समाई थी

देखती थी संगी साथियों को
ऊँचाइयों पर जब भी
कितना पिछड़ा पाती
खुद को उस दौड़ में
कचोटता  भी
कभी कभी
पर कर्तव्य सदा
सर्वोपरि रहे
बाकी सब भूल गयी।

आज जब हुई मुक्त
उन उत्तरदायित्वों से
जुटाई हिम्मत
फिर कलम उठाने की
तो महसूस किया
उम्र के इस पड़ाव पर
जिस निशान से
भी वह दौड़ेगी
हरदम पीछे ही
 दौड़ना होगा

पर वह हारी नही
लगाई एड़
फिरसे हिम्मत को
अपने लेखन को फिर पहचान दी
सराहा अपनों ने
गैरों ने भी तारीफ की
बुझती लौ
फिर जी उठी

पर जो सबसे प्यारा था
उसका लेखन उसे
नहीं सुहाया
लेखन उसका,
फिर धीरे धीरे
आँख की किरकिरी सा
उभर आया

फिर आरोप, प्रत्यारोपों
को खेल हुआ
एक एककर
कमियों का उसकी
दौर चला
ठीकरा
हर बार
उसके लेखन के
 सिर ही फूटा

भूल कर्तव्य
व्यर्थ जज़्बातों में उलझी हो
किसी मकाम पे
नही पहुँच पाओगी
चाहो इस उम्र में
दौड़ जीतना तुम
किसी सूरत से
न जीत पाओगी
हार की चोट से अलबत्ता
मायूसी के खोह में
गुम हो जाओगी

उठती हर बार
फिरसे गिरती है
अपनी कमियों को
दूर करती है
वह जो कुछ पल
अकेले मिलते हैं
उसी में भावों को
मुखर करती है

 छोड़ो रोना यह
अबला नारी का
मानो आभार
जो नेमतें
बरसतीं हैं
तुम्हें रुतबा मिला
जो इस घर में
सारी दुनिया 
तरसती है

फिर कहता हूँ
जो मिला है उसकी कद्र करो
अपनी खुशियों को यूँ
तबाह न करो
झूठी वाह वाहियों में
कुछ नही रखा
सच को जानो
आभास से बाहर निकलो

तैरना जाने तब ही इंसान को
गहरे पानी का रुख करना है
वरना किनारों पर खड़े होकर
लौटती  मौजों को ही तकना है।
अब भी कहता हूँ
छोड़ो पागलपन
घर की खुशियों को फिर
सँवारो तुम
बँद करके यह लेखन वेखन
मुझको मेरे घर को ही
संभालो तुम।

सरस दरबारी