बंद करो दौड़ना उस रेस में
जिसके लिए तुम
नही बनी
तुमने फ़र्ज़ों को अंजाम दिया
बखूबी निबटाया
बच्चों को पाला
सही संस्कार दिए
सफल मुकाम तक पहुँचाया
अब छोड़ो यह सब
लिखना पढ़ना
तुम्हारे बस का यह
हुनर नही
नही हो तुम इस दुनिया की
इस जग के लिए नही बनी
बनके लौंदा
अपमान
कंठ में रुक जाता
पीड़ा बन
फैल जाता
भर सिसकी सहसा
मन उसका
विवाह के पूर्व
की दुनिया में
पहुँच जाता
उसका परिचय ही
उसका लेखन था
जो त्यज दिया था स्वयं
गृहस्थी की डोर संभालते ही
फिर नही देखा था
पलटकर भी
बहुत दूर चली आयी थी
भूलकर सब कुछ
बस अपनी गृहस्थी में
समाई थी
देखती थी संगी साथियों को
ऊँचाइयों पर जब भी
कितना पिछड़ा पाती
खुद को उस दौड़ में
कचोटता
भी
कभी कभी
पर कर्तव्य सदा
सर्वोपरि रहे
बाकी सब भूल गयी।
आज जब हुई मुक्त
उन उत्तरदायित्वों से
जुटाई हिम्मत
फिर कलम उठाने की
तो महसूस किया
उम्र के इस पड़ाव पर
जिस निशान से
भी वह दौड़ेगी
हरदम पीछे ही
दौड़ना
होगा
पर वह हारी नही
लगाई एड़
फिरसे हिम्मत को
अपने लेखन को फिर पहचान दी
सराहा अपनों ने
गैरों ने भी तारीफ की
बुझती लौ
फिर जी उठी
पर जो सबसे प्यारा था
उसका लेखन उसे
नहीं सुहाया
लेखन उसका,
फिर धीरे धीरे
आँख की किरकिरी सा
उभर आया
फिर आरोप, प्रत्यारोपों
को खेल हुआ
एक एककर
कमियों का उसकी
दौर चला
ठीकरा
हर बार
उसके लेखन के
सिर ही
फूटा
भूल कर्तव्य
व्यर्थ जज़्बातों में उलझी हो
किसी मकाम पे
नही पहुँच पाओगी
चाहो इस उम्र में
दौड़ जीतना तुम
किसी सूरत से
न जीत पाओगी
हार की चोट से अलबत्ता
मायूसी के खोह में
गुम हो जाओगी
उठती हर बार
फिरसे गिरती है
अपनी कमियों को
दूर करती है
वह जो कुछ पल
अकेले मिलते हैं
उसी में भावों को
मुखर करती है
छोड़ो
रोना यह
अबला नारी का
मानो आभार
जो नेमतें
बरसतीं हैं
तुम्हें रुतबा मिला
जो इस घर में
सारी दुनिया
तरसती है
फिर कहता हूँ
जो मिला है उसकी कद्र करो
अपनी खुशियों को यूँ
तबाह न करो
झूठी वाह वाहियों में
कुछ नही रखा
सच को जानो
आभास से बाहर निकलो
तैरना जाने तब ही इंसान को
गहरे पानी का रुख करना है
वरना किनारों पर खड़े होकर
लौटती
मौजों को ही तकना है।
अब भी कहता हूँ
छोड़ो पागलपन
घर की खुशियों को फिर
सँवारो तुम
बँद करके यह लेखन वेखन
मुझको मेरे घर को ही
संभालो तुम।
सरस दरबारी
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