Friday, July 17, 2020

आलेख - भूमिकाएँ


इतिहास से बड़ी कोई पाठशाला नहीं और समय से बड़ा कोई गुरु नहीं। फिर भी हम आँखें मूँदकर वास्तविकता से अंजान बने रहना चाहते हैं। समय का चक्र, एक पूरा चक्कर काटकर फिर उसी जगह पहुँच जाता है। बस केवल पात्र और स्थान बदल जाते हैं। नहीं बदलती तो नियति, जो इंसान अपने स्वभाव , अपने आचरण से स्वयं निर्धारित करता है। सबको उसी क्रम से गुजरना होता है। पहले जहाँ पिता था, आज बेटा है, कल उसका बेटा होगा। उसी प्रकार जहाँ कल सास थी, वहाँ आज उसकी बहू है, कल उसकी बहू होगी। यह क्रम निरंतर चलता रहेगा।
ऐसा अक्सर देखा गया है, बेटा जब तक छोटा होता है, उसके पिता ही उसके सुपरमैन होते हैं। वह बहुत ही हसरत से उन्हें देखता है। उनके जैसा बनना चाहता है, पर जैसे जैसे वह बड़ा होता है, उसे अपने पिता की  कमियाँ दिखाईं देने लगतीं हैं। वहीं पिता बड़े होते बेटे के साथ सख्ती बरतने लगता है। बेटे को यह नागवार गुज़रता है, और धीरे धीरे दोनों के बीच की खाई बढ़ती जाती है। एक समय ऐसा आता है, जब दोनों एक दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सबकी अपनी वाजिब वजह, वाजिब तर्क होते हैं। दोनों ही अपनी अपनी जगह सही होते हैं। बस नज़रिये का फर्क होता है। वह नज़रिया, जो समय और उम्र के साथ बदलता है। पिता को इसका एहसास अंत तक नही होता, पर बेटे को होता है, जब वह पिता बनता है। जैसे जैसे वह अपने बेटे को बड़ा होता देखता है, उसे अपने पिता के तर्क समझ आने लगते हैं। क्योंकि अब उसकी सोच, उसका नज़रिया उनके जैसा होने लगता है। अपने बेटे को बात बात पर टोकना, उसपर बिगड़ना, अंकुश लगाना, शुरू हो जाता है। और इतिहास फिर खुद को दोहराता है। यह क्रम अबाध्य गति से चलता आ रहा है, पीढ़ी दर पीढ़ी, दर पीढ़ी।
वह स्त्री जो यह सब होता देखती है, वह पहले बहू होती है, फिर माँ। दोनों ही स्थितियों में उसका एक ही रोल होता है। बीच बचाव करना। जब बहू होती है, ससुर के कहर से पति को बचाती रहती है, कभी सच्चाई छिपा कर, कभी आधा सच बताकर, कभी पति से माफी मंगवाकर। और जब माँ बनती है, तो उसी पति से बेटे को बचाती रहती है, कभी सच्चाई छिपाकर, कभी आधा सच बताकर, कभी बेटे से माफी मंगवाकर। वह पति को समझाती है, “जो बातें आपको बुरी लगती थीं, आज वही वह अपने बेटे के साथ कर हैं। क्यों नहीं समय देते उसे। हर चीज़ समझने की एक उम्र होती है, वह ठोकबजाने से नहीं, अपने आप समझ में आती है, क्यों नहीं उसे अपने आप समझने देते। आप भी उस समय से गुजरे हैं। मैं गवाह रही हूँ, फिर आप क्यों ऐसा करते हैं।” पिता मजबूर है। वह चाहते हुए भी अपने आपको बदल नहीं सकता। क्योंकि उम्र के साथ उसकी भी सोच बदल कर ठोस, परिपक्व हो गई है। वह भी अब समझने लगा है, कि पिता ऐसा क्यों कहते थे। उनकी जिन बातों से उसे चिढ़ होती थी आज बेटे को उन्हीं बातों से होती है।
उसी तरह एक सास का किरदार भी होता है। अक्सर सुना है सासों को अपनी बहुओं से अपनी सास की बुराई करते हुए। हमारे साथ ऐसा होता था , यह होता था, पर हम चुपचाप बर्दाश्त करते थे। बहू जो सब कुछ सुन रही है, महसूस करती है, कि उसी जगह पर तो आज वह है। ऐसा ही कुछ तो वह भी महसूस करती है। पर उसकी सास यह बात क्यों नहीं समझ पा रहीं, कि जाने अंजाने वह भी उसके साथ वही सब कर रही हैं। सास नहीं समझ पाएगी क्योंकि वह जान बूझकर नही कर रही। उसे एहसास भी नहीं हो रहा कि वह अंजाने में बहू के साथ ज्यादती कर रही है।
यहाँ एक बात साफ कर देना चाहती हूँ, कि मैं उन सासों का उदाहरण ले रही हूँ, जो बहुओं को चाहती हैं। उनसे कोई बैर नहीं रखतीं।यह सिर्फ उनकी सोच की वजह से होता है, किसी प्रयोजन के तहत नहीं। यह ऐसी समस्या है, जिसका समाधान कठिन है। क्योंकि बदलती उम्र के साथ सोच का बदलना अनिवार्य है, और सोच के साथ स्वभाव और बर्ताव का। और जब तक दुनिया कायम है, यह प्रक्रिया चलती रहेगी।
सरस दरबारी   

18 comments:

  1. शुक्रिया आपका..😊

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  2. बेटा, बहु, सास, ससुर, पिता, माता सबका मनोविज्ञान बहुत अच्छे से लिखा है आपने। कहते हैं न कि इतिहास अपने को दोहराता है। बस वही मामला है। बढ़िया आलेख।

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    1. दिलसे शुक्रिया जेनी जी..😊

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  3. आपका बहुत बहुत आभार..😊

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  4. बहुत बढ़िया लेख सरस ।

    रेखा श्रीवास्तव

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    1. शुक्रिया रेखा जी..😊

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  5. सरस जी , आपने बहुत बारीकी से लिखा है कि भूमिकाएं कैसे बदल जाती हैं ... विचारणीय लेख .

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  6. अपने अपने कर्तव्य और भूमिका,सब समय के साथ परिवर्तित होते हैं,बिलकुल सही आलेख ।

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  7. मानवीय संबधों की सहजता और जटिलता सामन्यतः मनुष्य के व्यवहार-विचार पर आधारित होती है जो शायद परिस्थितिजन्य घटनाक्रम से प्रभावित होती है।
    मनुष्य व्यवहार का सुंदर एवं महीन विश्लेषण।
    सादर।

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  8. बेहतरीन आलेख।

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  9. दोनों ही अपनी अपनी जगह सही होते हैं। बस नज़रिये का फर्क होता है। वह नज़रिया, जो समय और उम्र के साथ बदलता है। पिता को इसका एहसास अंत तक नही होता, पर बेटे को होता है, जब वह पिता बनता है। जैसे जैसे वह अपने बेटे को बड़ा होता देखता है, उसे अपने पिता के तर्क समझ आने लगते हैं। क्योंकि अब उसकी सोच, उसका नज़रिया उनके जैसा होने लगता है।
    बहुत सटीक एवं सार्थक...
    लाजवाब लेख

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  10. समय के साथ भूमिकाएं तो परिवर्तित होती ही हैं। अपना दृष्टिकोण तर्कपूर्ण एवं सकारात्मक रहना चाहिए। आपका विस्तृत विवेचन उपयोगी एवं व्यावहारिक है।

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  11. बहुत ही बढिया लिखा आपने सरस जी. बहुत कुछ सीखा इस लेख से. हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

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