Thursday, June 28, 2012

.........आज कुछ बातें कर लें ...(३)



कौरवों के विनाश के बहुत दिनों पश्चात नारदजी ने श्री कृष्ण से प्रार्थना की कि जिस कार्यवश वे धरती पर अवतरित हुए थे वह तो पूर्ण हो गया ....इसलिए अब वे वैकुण्ठ को प्रस्थान करें .कृष्ण ने कहा " परन्तु अभी एक कार्य शेष है. यदुवंशी बल, विवेक, वीरता, शूरता और धन वैभव में उन्मत्त होकर सारी पृथ्वी को ग्रस लेने पर तुले हुए हैं ..इन्हें मैंने वैसे ही बांध रखा है जैसे सागर के तट को भूमिसे . यदि मैं घमंडी और उच्छ्श्रंखल, यदुवंशीओंका यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला गया, तो वे मर्यादा का उल्लंघन कर सारे लोकों का संहार कर डालेंगे. इनका अंत हो जाने पर मैं वैकुण्ठ को प्रस्थान कर जाऊँगा".
                                  (श्रीमदभागवत  पुराण अंक ६: २९, ३०, ३१ I  पृष्ट ७४६ गीता प्रेस )
ठीक यही स्तिथि लंका की थी ......अब आगे (उन्ही के शब्दों में )......

रावण ने इतनी प्रलयंकारी शक्तियां उत्पन्न कर दीं थीं, जो उसकी मृत्यु के पश्चात् निरंकुश होकर सारी मानवता के लिए अभिशाप बन जातीं. यह बात रावण जान चुका था और उसने निश्चय कर लिया था कि अपनी मृत्यु के पूर्व वह इन सारी शक्तियों का विनाश कर देगा.

एक और प्रश्न जो उठता है .....वह यह कि क्या राम विष्णु के अवतार थे ?

रामायण के मूल लेखक वाल्मीकि के अनुसार , राम अवतार नहीं थे . वे एक आदर्श पुरुष थे, एक आदर्श पुत्र, एक आदर्श राजा और एक वीर राजकुमार . महाभारत में व्यास जी ने इस बात का समर्थन करते हुए गीता में कृष्ण से कहलाया है ,"पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में मैं दशरथ पुत्र राम हूँ."
                                                                   ( भगवदगीता १०: ३९ )

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुसार भी "राम को पता नहीं था कि वे अवतार हैं, पर कृष्ण को पता था कि वे अवतार हैं. महाभारत और रामायण का अध्ययन करते समय यह भेद ध्यान में रखना आवश्यक है ."                                                          
                                                                  ( चक्रवर्ती राजगोपालाचारी )

 तुलसीदासने रामको विष्णु का अवतार माना है. रावण भी राम को विष्णु का अवतार मानकर मन ही मन उनकी पूजा करता था .

रामचरित मानस में मंदोदरी को राम-भक्तिन के रूप में चित्रित किया गया है , जो अपने पति से एक नहीं पूरे ६ बार अनुरोध करती है कि वे सीता को वापस कर राम से संधि कर लें.एक बार सुन्दरकाण्ड में ३५:३ और ५ बार लंकाकाण्ड में ५:४, ६:३, ४< १३:४, १४, और १५.
केवल मंदोदरी ही नहीं मारीच (अरण्यकाण्ड २४:२, २५ और २६ ) और कुम्भकर्ण ( ६२:१,२, ३, और ४ ) ने भी रावण से कहा कि राम विष्णु के अवतार हैं; और सीता को वापस कर राम से क्षमा मांगने का अनुरोध किया था .
क्या यह संभव है कि मंदोदरी, विभीषण और कुम्भकर्ण जानते थे कि राम अवतार हैं और रावण जो सबसे बुद्धिमान था इस भेद से अनभिज्ञ था ? क्या यह विचारणीय नहीं है कि राम की शरण में जाने के प्रस्ताव पर वह केवल विभीषण पर रुष्ट हुआ था और भरी सभा में उसे लात मारी थी जबकि उसने मंदोदरी और कुम्भकर्ण को वही परामर्श देने पर एक भी अपशब्द नहीं कहा था ? रावण जानता था कि इतने अपमान और तिरस्कार के बाद विभीषण का जाकर राम से मिलना उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तो क्या उसने विभीषण का अपमान किसी गुप्त योजना के अंतर्गत किया था ?

एक नहीं अनेक रामायण और दूसरे ग्रंथों में यह उलेख है कि रावण जानता था कि राम विष्णु के अवतार हैं. अध्यात्म रामायण के युद्धकाण्ड  में रावण मंदोदरी से कहता है कि वह रामको साक्षात् विष्णु और जानकी को भगवती लक्ष्मी जानता था. और यह जानकार ही राम के हाथों मरने के लिए वह सीता को तपोवन से बलपूर्वक ले आया था .
                                                                    ( अध्यात्म रामायण  ६: ११: ५७ )

डोंगरे महाराजकी तत्वार्थ रामायण में लिखा है कि एक बार रावण ने मंदोदरी से कहा, " मैं जानता हूँ कि राम परमात्मा है, फिर भी उनसे बैर लिया है क्योंकि मैं अकेला बैठकर ध्यान करूंगा तो केवल मुझे ही मुक्ति मिलेगी; परन्तु अगर में रामचन्द्रजी के साथ विरोध करता हूँ तो मेरे संपूर्ण वंश का कल्याण होगा ."

कनरीज़ में लिखी तोर्वे रामायण के अनुसार रावण  ने अंतिम बार युद्ध में जाने से पूर्व अपना सारा धन दान कर दिया था , कारावास के बंदी मुक्त कर दिये थे  और यह कह गया था कि यदि वह युद्ध में मारा जाये तो उसके स्थान पर उसके 'विश्वासपात्र ' भाई विभीषण को लंका के सिंहासन पर बैठाया जाए .
                                                                                       ( रामकथा ५९७)

( क्रमश: )  



Monday, June 25, 2012

…आज कुछ बातें कर लें ...( २




 पिछली कड़ी में मैंने पापा के संस्मरणों के विषय में लिखा था कि रामायण , महाभारत के पात्रों को लेकर ....उनके मन में कई प्रश्न उठे .......कुछ का जवाब तो उन्हें मिल गया ......पर कुछ प्रश्न अभी भी अनुत्तरित ही थे .....उन्ही में से एक पात्र था रावण .......
उन्ही के शब्दों में ...अब आगे .......

ऐसे ही कुछ प्रश्न रावण के विषय में भी उठे थे जो वेदों का ज्ञाता और एक शिव भक्त होने के साथ साथ एक दुष्ट और दुरात्मा के रूप में हमारे सम्मुख रखा गया है . सीता का हरण करने के अतिरिक्त रावण ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया है जिसके कारण उसे दोषी या नीच समझा जाये .

एक व्यक्ति दो सुन्दर नारियों का आलिंगन करता है . उसमें से एक उसकी प्रेमिका है और दूसरी बहन ; दोनों आलिंगन एक से हैं , दृश्य भी एक सा है , पर उसके पीछे जो विचार हैं, जो भावना है वो दोनों कृत्यों को एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न कर देती है .किसी भी व्यक्ति के अच्छे बुरे होने का निर्णय उसके कृत्य नहीं   बल्कि उसके पीछे निहित भावना पर  निर्भर होता है .
अब प्रश्न यह उठता है कि रावण कि सबसे बड़ी भूल के पीछे , जो उसके सर्वनाश का कारण बनी , क्या भावना थी..क्या उसने  सीता का हरण, राम और लक्ष्मण से , अपनी बहन शूर्पनखा के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए किया था ; या वह सीता पर मोहित हो गया था और उसे अपनी रानी बनाना चाहता था  अथवा किसी और कारणवश ...

रावण को समझने के लिए अनेक राम कथाओं का अध्ययन आवश्यक है . इनमें  सबसे अधिक लोकप्रिय है तुलसीदास कृत रामचरितमानस, जिसमें लिखा है :

) सीता स्वयंवर में रावण ने शिव धनुष को स्पर्श तक नहीं किया था.

                                                 रावण वान छुआ नहिं चापा I
                                                                            (बालकाण्ड २५५:)

अब प्रश्न यह उठता है कि जब रावण भी वहां और दूसरे राजाओं कि भाँती सीता से विवाह करने के विचार से गया था तो उसने शिव धनुष को क्यों नहीं स्पर्श किया ?

) सीता का हरण करने से पूर्व रावण सीता को अपनी रानी बनाने का आग्रह करता है . प्रतिउत्तर में सीता के कठोर वचन सुनकर रावण क्रोधित होता  है मगर मन ही मन सीता के चरणों को वंदन कर अत्यंत प्रसन्न होता है .

                                                  सुनत वचन दससीस रिसाना I
                                                  मन महूँ चरन बंदि सुख माना II  
                                                                              (उत्तरकाण्ड २७: )

यह बात बड़ी असंगत प्रतीत होती है कि एक कामातुर राक्षस जो एक नारी का हरण करने आया है, उससे अपमानित होकर  मन ही मन प्रसन्न होता है और उसके चरणों की वंदना करता है .

) लंकाकाण्ड में मंदोदरी जब अपने पति रावण से पूछती है, कि जब राम ने धनुष तोड़कर सीता से विवाह किया तब आपने राम से युद्ध कर सीता से क्यों नहीं विवाह कर लिया (यदि आप उसे इतना ही चाहते थे)

                                              भांजी धनुष जानकी बिआही I
                                              तब संग्राम जितेहूँ किन ताहिं II
                                                                            (लंकाकाण्ड: ३५: )
रावण ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया

) सीता हरण के पश्चात जब जटायु ने रावण पर आक्रमण किया तो रावण ने केवल उसके पंख काटकर उसे घायल कर जीवित छोड़ दिया . कोई भी समझदार व्यक्ति जो एक नारी का अपहरण कर रहा है, अपने पीछे कोई प्रमाण या संकेत छोड़ कर नहीं जायेगा, जिससे उसके सम्बन्धियों को उसके अपहरणकर्ता का नाम पता ज्ञात हो सके. पर हुआ ऐसा ही. रावण ने जटायु को जीवित छोड़ दिया और उसने राम को बता दिया कि सीता को बलपूर्वक ले जानेवाला लंकापति रावण ही था.

) रामायण और तुलसीदास दोनों कि ही रामायण में रावण सीता को उठाकर अपने पवन रथ पर ले जा रहा था , जहाँ सीता विलाप करती हुई अपने आभूषण फ़ेंक रहीं थीं जिससे लोगों का ध्यान उनकी   ओर आकर्षित हो रहा था . वह चाहता तो हलके से प्रहार से उन्हें अचेत भी कर सकता था जिससे लोगों को फेंके गए आभूषणों से मार्ग का पता चले, किन्तु रावण ने ऐसा नहीं किया. उन्ही को पहचानकर राम ने जाना कि रावण सीता को लंका की और ले गया गया है.
जटायु को जीवित छोड़ देना और सीता को  यूँ विलापकर अपने आभूषण फेंकने का अवसर देना , यह स्पष्ट करता है की रावण स्वयं चाहता था की राम उसका पीछा करते हुए लंका तक पहुंचें

) लंका में रावण चाहता तो सीता को अपने किसी भी विशाल भवन में, जिसे देख कोई भी नारी प्रभावित हो जाती, रख सकता था, पर उसने ऐसा नही किया ..क्यों?
रावण जानता था की सीता ने भी चौदह वर्ष के लिए वन में रहने का व्रत लिया है . संभवत: वह सीता के उस व्रत को भंग नहीं करना चाहता था ...और  इसीलिए उसे भवन में रखकर अशोक वाटिका में रखा .

) रामायण के सभी रचयीता इस बात से सहमत हैं की रावण ने लंका में सीता का स्पर्श नहीं किया था . वाल्मीकि रामायण के दक्षिणात्य पाठ में ( जो अत्यंत प्रचलित और व्यापक है ), यह माना गया है की रावण ने सीता को लंका ले जाकर एक माता के सामान उसकी रक्षा की थी .

                                                       लंकामानीय यत्नेन मातेव परिरक्षिता
                                                                                   ( सर्ग :५४ I रामकथा : ४८८ )

) मानस के अरण्यकाण्ड में, सीता हरण से बहुत पहले , रावण सोचता है की खर दूषण भी उसके ही सामान बलवान थे ...उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है.

                                                      खर दूषण मोहि सम बलवंता I
                                                      तिन्ही को मारै बिन भगवंता II 
                                                                                           ( अरण्यकाण्ड २२: )
ततपश्चात् रावण विचार करता है यदि भगवान स्वयं अवतरित हुए हैं तो , " मैं जाकर उनसे हठपूर्वक बैर लूँगा, और प्रभु के बाणों के आघात से प्राण त्यागकर  भवसागर को तर जाऊंगा ".

                          सुर रंजन  भंजन महि मारा  I
                          जो भगवंत लीन्ह अवतारा  ई
                          तो मैं जाई वैर हठ करऊँ    I
                          प्रभु सर प्रान ताजे भाव तरऊँ  II
                                          ( अरण्यकाण्ड ३: २२ : २ )

मानस के अतिरिक्त और भी निम्नलिखित रामायणों में यह माना गया  है कि रावण ने मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से ही सीता का हरण किया था .

१) आध्यात्म रामायण  (३ I ५ I  ६० II  ७ I ३ I ४० II ७ I ४ I १० II )
२) आनंद रामायण      (१I ११I २४४ II १I १३I १२०-१२६ )
३) पद्म पूरण           ( ६ I  २५५ I  २६९ I ) एवं
४) भावार्थ रामायण  ( ६ I २३ I )

९) यद्यपि वाल्मीकि , तुलसीदास  और कम्ब कि रामायण में इसका उल्लेख नहीं है पर ऐसा माना जाता है कि रावण ने राम का निमंत्रण स्वीकार कर रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की थी . रावण ने राम से पूछा था, " इस पूजा का प्रयोजन क्या है ?" राम ने कहा था " लंका विजय " और रावण ने आशीर्वाद दिया था  "विजयी भव ".

यह सब जानने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि रावण ने सीता का हरण किसी काम वासना से प्रेरित होकर नहीं वरन राम के हाथों वध किये जाने के उद्देश्य से  से किया था .

रावण ने इतनी प्रलयंकारी शक्तियां उत्पन्न कर दी थीं कि जो उसकी मृत्यु के पश्चात् निरंकुश होकर मानवता के लिए अभिशाप बन जातीं ......और रावण यह जान गया था !

( क्रमश: )
     


   




Thursday, June 21, 2012

......आज कुछ बातें कर लें





आज २१ जून २०१२ ....पापा की चौथी पुण्यतिथि ...

इन चार सालों में , कभी नहीं लगा की पापा हमारे साथ नहीं - उनकी कही बातें इस कद्र ज़ज्ब हैं हम सबके भीतर .....की जब भी मुश्किल समय में पापा को याद कर आँखें  बंद करती हूँ ...तो उनका  हाथ सर पर महसूस होता है ...उसी तरह सर सहलाते हुए....पुचकारते हुए ...उनके शब्द सुनाई देते हैं ..."बेटा उपरवाला बहुत दयालु है ...अगर वह दुःख देता है, तो उससे लड़ने की ताक़त भी देता है ....चिंता मत करो, सब ठीक हो जायेगा" ...और फिर वही प्रार्थना जो उन्होंने हर मुश्किल घड़ी में दोहराई है .....

O God! please give me the courage
To accept what I cannot change-
The strength to change what I can ,
and
The wisdom to know the difference


पापा हर उस इंसान की तरह थे , जो सपने देखता है ..और उन्हें पूरा कर दिखाता है....
उन्होंने भी एक सपना देखा था ...मुंबई जाकर कुछ बनने का ...और वे चल पड़े.
जद्दोजहद, मुफलिसी , बेगारी, और एक बुलंद हौसला ...बस यही थे उनके साथी इस अनजान शहर में , जहाँ जीवित रहने के लिए कभी बावर्ची का काम किया ...तो कभी साबुन बेचा.
फिर काम मिला ..दोस्त बने ....धीरे धीरे पत्रकारिता शुरू की ....शब्दों के कुमार तो वे हमेशा से ही थे ...अब श्री शब्द कुमार एक जाने माने पत्रकार हो गए .....धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली,ब्लिट्ज , माधुरी , आदि में उनके लेख छपते...साथ ही फिल्म उद्योग की पत्रिका 'फिल्म इंडस्ट्री जर्नल' के वे संपादक बने.
सपने फिर भी कोसों दूर थे .....फिर शुरू हुआ एक और अध्याय ...फिल्म लेखन का ...बालिका बधू, इन्साफ का तराजू, साजन बिना सुहागन, आज की आवाज़, जवाब, इत्यादि फिल्में लिखीं और कई अवार्ड्स भी जीते.    

लेकिन कुछ प्रश्न अब भी अनुत्तरित थे .....
पापा के ही शब्दों में ....

 हमारे घर में मेरे पिताजी ने हमें प्रश्न पूछने और उन पर विचार-विमर्श करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी थी; चाहे वे प्रश्न भूत प्रेतों  के विषय में हों, देवी देवताओंके विषय में हों अथवा रामायण और महाभारत के विषय में.
कई प्रश्नों के उत्तर शीघ्र मिल गये पर कुछ प्रश्न ऐसे भी थे जो कई वर्षों तक उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे. इन्ही में से एक प्रश्न था कैकेयी के विषय में . इसमें कोई संदेह नहीं की 'रामायण' की कैकेयी एक बुद्धिमान स्त्री है जो अपने पति के साथ युद्ध में जाती है और आवश्यकता पड़ने पर उसकी रक्षा भी करती है .
गोस्वामी तुलसीदास के 'राम चरित मानस ' में कैकेयी मंथरा से कहती है की राम के सहज स्वाभाव से सब माताएं  राम को सामान ही प्यारी हैं पर मुझपर उनका विशेष प्रेम है . मैंने उनकी परीक्षा करके देख ली है ..और आगे लिखा है यदि विधाता कृपा कर मुझे फिर जन्म दें , तो राम ही मेरा पुत्र और सीता ही मेरी पुत्र वधु हो , क्योंकि  राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं .
                                  कौसल्या सम सब महतारी I
                                  रामहि सहज सुभाए पिआरी II
                                  मो पर करही सनेह बिसेसी I
                                  मैं कर प्रीती परीक्षा देखि     II
                                 जौं विधि जन्मु देई करि छोऊ I
                                 होहूँ राम सिय  पूत पतोहू  II
                                  प्राण ते अधिक रामु प्रिय मोरे I
                                  तिन्ह के तिलक चोबू कस तोरे II
                                                                           (अयोध्याकाण्ड १४:३ , ४ )

यह सब जानने के पश्चात् यह स्वीकार करना कठिन हो जाता है कैकेयी जैसी बुद्धिमान स्त्री एक साधारण दासी के बहकावे में आकर इतनी बड़ी भूल कैसे कर सकती है जिसके परिणाम स्वरुप अपना सुहाग खोने के साथ साथ उसे सदा के लिए कलंकित होना पड़े और उसका जाया भारत भी उससे घृणा करने लगे . जबकि  उसे भली भाँती ज्ञात था की दशरथ बिना राम  के रह नहीं सकते और भारत के मन में अपने भाई के लिए अथाह आदर और प्रेम है .

अब प्रश्न यह उठता है की कैकेयी ने राम को बनवास क्यों दिलवाया . इस प्रश्न का उत्तर मिला सन १६०८ में लिखी राम  लिंगाम्रित में , जिसमें कैकेयी राम से कहती हैं की इन्द्र की प्रेरणा से रावण का वध करने के लिए उसने राम को बनवास भेजा था .
                                                            ( राम लिंगाम्रित  १२:१: ७५ )
यह जानने के पश्चात कैकेयी के विषय में उठे प्रश्नों का उत्तर अपने आप मिल जाता है और उसका एक नया रूप उभरकर सामने आता है , जिसमें वह एक कुमाता और खलनायिका न रहकर एक आदर्श माँ और एक महान नारी के रूप में सामने आती है , जिसने स्वयं कलंकित होकर विश्व कल्याण के लिए राम को बनवास दिलाया था .
ऐसे ही कुछ प्रश्न रावण के विषय में भी उठे थे ....

(क्रमश:)

Wednesday, June 20, 2012

सखी बरखा













ग्रीष्म की भीषण गर्मी में जब मन क्लांत हो जाता है
जब तृषित धरती तुम्हारी प्रतीक्षा में पलक पावडे बिछाये बैठी रहती है
तब याद आ जाते  हैं -
जीवन के विभिन्न पड़ावों पर -
तुम्हारे साथ बिताये वे पल ....
और भीग जाता है तन मन ....

याद आते हैं बचपन के वे दिन -
जब कागज़ की कश्तियों की रेस में -
तुम मुस्कुराकर आश्वस्त करतीं ...
घबराओ नहीं ...तुम्हारी कश्ती नहीं डूबने दूँगी ...

या वे शामें ..
जब घर से काफी दूर -
सहेली की छत पर
बौछारों की सुइयों से आँख मूंह भींचे
घंटों बाहें फेलाए भीगते रहते -
और पूरी तरह तर- बतर
डांट के डर से फिंगर्स- क्रोस्स्ड ...
घर पहुँचते ...
पड़नी तो थी ...पर ज़रा कम पड़े .....
माँ डांटती जातीं
और हम सर झुकाए
उन पलों को मन ही मन दोहराते ...
एक स्मितहास चेहरे पर उभर आती-
तभी मौके की नजाकत को भांप -
एक अवसाद ओढ़ लेते चेहरे पर !
माँ भी जानती थी ...
कल फिर यही होगा ....

फिर समय बीता-
अहसास बदल गए-
मायने बदल गए -
पर रहीं तब भी तुम
मेरी अन्तरंग !!!!!
अब मेघों में "उनकी" सूरत दिखाई देती
कभी मेघों को ...कभी चाँद को अपना दूत बनाती...
और "वे" मेरा सन्देश पा चले आते !

फिर समुन्दर के किनारे वह बारिश में भीगना-
ठण्ड में ठिठुरते कांपते चाय की चुस्कियां लेना -
ओपन एयर रेस्तरां में पनीर के गर्म पकौड़े -
और वह शोर!
समुन्दर का ...
हमारे अहसासों का ....
और उनके जाने के बाद हफ़्तों उस सूख चुकी साड़ी को निहारना -
और फिर भीग भीग जाना .....

तुमने तो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा -
मन जब भी दुख से कातर हुआ है -
तुम मेरे साथ बरसी हो ...
तन भीगता जाता ..
और तुम मेरे आंसुओं को धोती जातीं ...
तब लगता घुल कर बह जाऊं तुम्हारे साथ ...

कुछ ऐसा ही आज भी लग रहा है -
ग्रीष्म की इस भीषण गर्मी में .....    

Wednesday, June 13, 2012

लेखा- जोखा...




यह दुनिया शिशुपालों से भरी पड़ी है -
किस किस के पापों का हिसाब रखूँ..?
हाँ ....मैं कृष्ण नहीं हूँ -
मै हूँ एक आम आदमी-
जो ऐसे ही लोगों द्वारा -
हर कदम पर शोषित-
इसी आस में जी रहा है कि -
"वह" तो हिसाब रख ही रहा होगा इनके कुकर्मों का ....
लेकिन फिर.....
मेरी तरह अनेकों होंगे ......!!!!
किस किस का हिसाब रखे ....
मैं इतना तो कर ही सकता हूँ -
उनका कुछ तो हाथ बंटा ही सकता हूँ .....

बस इसीलिए -
गुनाह गिने जा रहा हूँ मैं -
और इंतज़ार कर रहा हूँ
उस दिनका -
जब शीषों के ढेर से भयभीत हो -
गुनाहों कि यह फेहरिस्त -
कुछ कम हो !!!!!!!!
 

Monday, June 11, 2012

मरहम


मोहल्ले की झोपड़ पट्टी में कोहराम  मचा था.....
रामू रिक्शेवाले के बेटे ने खुदखुशी कर ली 
अरे वही होनहार बालक न ...जो पढाई में अव्वल था 
पुरे मोहल्ले की शान था ...
हाँ वही ...दाखिले के लिए गया ...
मगर उसका हक ...किसी  रईस को मिल गया ..
उसकी मेहनत ने हिम्मत छोड़ दी 
और जिजीविषा ने जीवन की बागडोर तोड़ दी ....
मृत बेटे के हाथ में एक पुर्जा था ...
"वह कोमल स्पर्श याद है,
जब मेरी चोट को सहलाकर,
दोबारा खड़े होने का साहस दिया था आपने !
मेरे पिता...मेरे परम ईश
उन्ही हाथों के छालों पर ..मरहम लगाने की ..अब मेरी बारी है....."