आज २१ जून २०१२ ....पापा की चौथी पुण्यतिथि ...
इन चार सालों में , कभी नहीं लगा की पापा हमारे साथ नहीं - उनकी कही बातें इस कद्र ज़ज्ब हैं हम सबके भीतर .....की जब भी मुश्किल समय में पापा को याद कर आँखें बंद करती हूँ ...तो उनका हाथ सर पर महसूस होता है ...उसी तरह सर सहलाते हुए....पुचकारते हुए ...उनके शब्द सुनाई देते हैं ..."बेटा उपरवाला बहुत दयालु है ...अगर वह दुःख देता है, तो उससे लड़ने की ताक़त भी देता है ....चिंता मत करो, सब ठीक हो जायेगा" ...और फिर वही प्रार्थना जो उन्होंने हर मुश्किल घड़ी में दोहराई है .....
O God! please give me the courage
To accept what I cannot change-
The strength to change what I can ,
and
The wisdom to know the difference
पापा हर उस इंसान की तरह थे , जो सपने देखता है ..और उन्हें पूरा कर दिखाता है....
उन्होंने भी एक सपना देखा था ...मुंबई जाकर कुछ बनने का ...और वे चल पड़े.
जद्दोजहद, मुफलिसी , बेगारी, और एक बुलंद हौसला ...बस यही थे उनके साथी इस अनजान शहर में , जहाँ जीवित रहने के लिए कभी बावर्ची का काम किया ...तो कभी साबुन बेचा.
फिर काम मिला ..दोस्त बने ....धीरे धीरे पत्रकारिता शुरू की ....शब्दों के कुमार तो वे हमेशा से ही थे ...अब श्री शब्द कुमार एक जाने माने पत्रकार हो गए .....धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली,ब्लिट्ज , माधुरी , आदि में उनके लेख छपते...साथ ही फिल्म उद्योग की पत्रिका 'फिल्म इंडस्ट्री जर्नल' के वे संपादक बने.
सपने फिर भी कोसों दूर थे .....फिर शुरू हुआ एक और अध्याय ...फिल्म लेखन का ...बालिका बधू, इन्साफ का तराजू, साजन बिना सुहागन, आज की आवाज़, जवाब, इत्यादि फिल्में लिखीं और कई अवार्ड्स भी जीते.
लेकिन कुछ प्रश्न अब भी अनुत्तरित थे .....
पापा के ही शब्दों में ....
हमारे घर में मेरे पिताजी ने हमें प्रश्न पूछने और उन पर विचार-विमर्श करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी थी; चाहे वे प्रश्न भूत प्रेतों के विषय में हों, देवी देवताओंके विषय में हों अथवा रामायण और महाभारत के विषय में.
कई प्रश्नों के उत्तर शीघ्र मिल गये पर कुछ प्रश्न ऐसे भी थे जो कई वर्षों तक उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे. इन्ही में से एक प्रश्न था कैकेयी के विषय में . इसमें कोई संदेह नहीं की 'रामायण' की कैकेयी एक बुद्धिमान स्त्री है जो अपने पति के साथ युद्ध में जाती है और आवश्यकता पड़ने पर उसकी रक्षा भी करती है .
गोस्वामी तुलसीदास के 'राम चरित मानस ' में कैकेयी मंथरा से कहती है की राम के सहज स्वाभाव से सब माताएं राम को सामान ही प्यारी हैं पर मुझपर उनका विशेष प्रेम है . मैंने उनकी परीक्षा करके देख ली है ..और आगे लिखा है यदि विधाता कृपा कर मुझे फिर जन्म दें , तो राम ही मेरा पुत्र और सीता ही मेरी पुत्र वधु हो , क्योंकि राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं .
कौसल्या सम सब महतारी I
रामहि सहज सुभाए पिआरी II
मो पर करही सनेह बिसेसी I
मैं कर प्रीती परीक्षा देखि II
जौं विधि जन्मु देई करि छोऊ I
होहूँ राम सिय पूत पतोहू II
प्राण ते अधिक रामु प्रिय मोरे I
तिन्ह के तिलक चोबू कस तोरे II
(अयोध्याकाण्ड १४:३ , ४ )
यह सब जानने के पश्चात् यह स्वीकार करना कठिन हो जाता है कैकेयी जैसी बुद्धिमान स्त्री एक साधारण दासी के बहकावे में आकर इतनी बड़ी भूल कैसे कर सकती है जिसके परिणाम स्वरुप अपना सुहाग खोने के साथ साथ उसे सदा के लिए कलंकित होना पड़े और उसका जाया भारत भी उससे घृणा करने लगे . जबकि उसे भली भाँती ज्ञात था की दशरथ बिना राम के रह नहीं सकते और भारत के मन में अपने भाई के लिए अथाह आदर और प्रेम है .
अब प्रश्न यह उठता है की कैकेयी ने राम को बनवास क्यों दिलवाया . इस प्रश्न का उत्तर मिला सन १६०८ में लिखी राम लिंगाम्रित में , जिसमें कैकेयी राम से कहती हैं की इन्द्र की प्रेरणा से रावण का वध करने के लिए उसने राम को बनवास भेजा था .
( राम लिंगाम्रित १२:१: ७५ )
यह जानने के पश्चात कैकेयी के विषय में उठे प्रश्नों का उत्तर अपने आप मिल जाता है और उसका एक नया रूप उभरकर सामने आता है , जिसमें वह एक कुमाता और खलनायिका न रहकर एक आदर्श माँ और एक महान नारी के रूप में सामने आती है , जिसने स्वयं कलंकित होकर विश्व कल्याण के लिए राम को बनवास दिलाया था .
ऐसे ही कुछ प्रश्न रावण के विषय में भी उठे थे ....
(क्रमश:)
सबसे पहले तो आपके पिताजी को नमन.
ReplyDeleteकैकई की कहानी में यही सही लगता है. क्योंकि वैसे भी कहा गया है कि रामायण या महाभारत में जो भी हुआ एक उद्देश्य की पूर्ती के लिए हुआ और उसके लिए सभी पात्र पूर्व निश्चित ही थे.आगे के उत्तरों की प्रतीक्षा रहेगी.
pitajee ki yaaden jindgibhar sath rahti hai.....
ReplyDeleteसादर नमन ||
ReplyDeleteपिताजी को सादर नमन .... आपने उनके विचारों को यहाँ साझा किया .... अच्छा लगा ... जिन पिक्चर्स के लेखन का ज़िक्र किया है उनमे से काफी देखी हुई हैं ..... इंसाफ का तराजू बहुत पसंद आई थी .... कैकई की कथा अच्छी लगी .... आगे की कड़ी का इंतज़ार है
ReplyDeleteपिता की यादे ताउम्र साथ रहती है,उनको मेरा सादर नमन,,,,
ReplyDeleteअनुत्तरित प्रश्नों की सुंदर प्रस्तुति,,,,,
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पापा को श्रधासुमन ....
ReplyDeleteमन के भीतर प्रेम के साथ एक संशय का बुलबुला होता है , वह ठिठक जाए , रुक जाए तो बहुत कुछ अनचाहा घटित हो जाता है . मन्थरा उस ठिठके बुलबुले के संशय का माध्यम बनी .
राम कौशल्या पुत्र थे तो इसे स्वीकार करने में द्वन्द होता है , पर क्या हम अपने बच्चों के साथ कभी संशय में नहीं पड़ते ..... संशय , सशंकित संभावना मन्थरा है
सर्व प्रथम पापा जी को नमन..सरस जी मन के भीतर कई बातो का संशय होना मानव स्वभाव है..और अपने बुद्धि विवेक से उसका हल ढू़ंढ़ लेना उसके विकास का दर्पण है.....बहुत सुन्दर प्रस्तुति..आभार..
ReplyDeleteपिताजी को सादर नमन ... उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ...
ReplyDeleteयादों का मुसाफ़िर गया अनंत यात्रा पर और छोड़ गया अपने आत्मीयों के अनंत यादों का कफ़िला - उदासी देने के बाद भी गहन प्रेरणाओं का महा-मानसरोवर सौंप कर। जिसने जीवन भर संघर्ष कर अपना एक प्रतिष्ठित स्थान बनाया - अपनों के लिए एक स्नेह-वास बनाया - उनको यश के संस्कार दिए - जिसने गूढ़ रहस्यों के सरल समाधन ढूंढे़ - उसका प्रयाण एक महापर्व होता है तिमिर के साये को धूप रश्मियों से रंगने का।
ReplyDeleteप्रणाम दिव्य मनीषी को, प्रणाम उनकी तनया और उनके पूरे परिवार को और प्रणाम उस कलम को जो यश गाथा बांटे!
सर्व प्रथम आप के महान पिता को नमन.. इस उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार अगली कड़ी का इतजार रहेगा... आभार
ReplyDeleteपापा को नमन..............
ReplyDeleteऔर पापा की प्यारी बेटी का शुक्रिया इस प्यारी पोस्ट के लिए.....
अगली का इन्तेज़ार है...
अनु
हमारा कमेन्ट स्पाम में गया शायद.....
ReplyDelete:-(
पिताजी को विनम्र श्रद्धांजलि.......अच्छा लगा उनके बारे में जानकर ।
ReplyDeleteपिताजी को नमन!
ReplyDeleteयादों का मुसाफ़िर गया अनंत यात्रा पर और छोड़ गया अपने आत्मीयों के पास अनंत यादों का कफ़िला - उदासी देने के बाद भी गहन प्रेरणाओं का महा-मानसरोवर सौंप कर। जिसने जीवन भर संघर्ष कर अपना एक प्रतिष्ठित स्थान बनाया - अपनों के लिए एक स्नेह-वास बनाया - उनको यश के संस्कार दिए - जिसने गूढ़ रहस्यों के सरल समाधन ढूंढे़ - उसका प्रयाण एक महापर्व होता है तिमिर के साये को धूप रश्मियों से रंगने का।
ReplyDeleteप्रणाम दिव्य मनीषी को, प्रणाम उनकी तनया और उनके पूरे परिवार को और प्रणाम उस कलम को जो यश गाथा बांटे!
"छोड़ गया अपने आत्मीयों के अनंत यादों का कफ़िला" की जगह "छोड़ गया अपने आत्मीयों के पास अनंत यादों का काफ़िला" पढ़ें।
ReplyDeleteपिताजी को विनम्र श्रद्धांजलि....
ReplyDeleteसादर।
पापा हर उस इंसान की तरह थे , जो सपने देखता है
ReplyDeleteशायद पिता ऐसे ही होते हैं.
कौन कहता है पापा आपके बीच नहीं रहे. आज तो आपके माध्यम से हमारे बीच भी पहुँच गए.
pita ko shradhaanjali ...yaaden hi jeevan me sahara deti hain
ReplyDeleteNana would be extremely proud of you Ma!
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट, मानस और मन के अर्थपूर्ण विचार लिए ....आपके पिताजी को सादर नमन
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उम्दा लेखन, बेहतरीन अभिव्यक्ति
हिडिम्बा टेकरी
चलिए मेरे साथ
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली बारिश में गंजो के लिए खुशखबरी" ♥
♥सप्ताहांत की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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सबसे पहले तो आपके पिताजी को नमन.
ReplyDeleteकैकई की कहानी में यही सही लगता है. क्योंकि वैसे भी कहा गया है कि रामायण या महाभारत में जो भी हुआ एक उद्देश्य की पूर्ती के लिए हुआ और उसके लिए सभी पात्र पूर्व निश्चित ही थे.आगे के उत्तरों की प्रतीक्षा रहेगी.
शिखा जी का कमेन्ट ही है .मुझे अति आनंद आया कि आपने अपने पिताजी को स्मरण करते हुए ,इतने रोचक और नए ज्ञान को बाटा.
माता कैकेयी मेरा आदर्श हैं , देर सबेर उन पर पुनः कुछ तथ्यगत लिखने कि कामना है. आपको मेरा प्रणाम ......
कैकई की कहानी सच ही है ... हमारे पुराण में हमारे सीखने के लिए कुछ न कुछ हमेशा ही होता है ...
ReplyDeleteपिताजी को मेरी विनम्र श्रधांजलि ... जिन्होने सपने देखना सिखाया ...
पहले पिताजी को विनम्र श्रद्धांजलि..हमारे पुराणो मेंबहुत से ऐसे तथ्य हैं जिनके पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य छुपे है..बहुत सुन्दर आगे भी प्रतीक्षा रहेगी...
ReplyDeleteपाठन से उपजा चिन्तन http://ekprayas-vandana.blogspot.in/2011/07/blog-post_05.html इस लिंक पर पढिये एक कारण और है केकैयी ने क्यों राम को बनवास दिया …………तभी तो कहा गया है रामायण सत कोटि अपारा ………जब इतनी रामायण हों तो दृष्टिकोण भी अलग ही मिलेंगे हर जगह और हर दृष्टिकोण सार्थक लगेगा सही जवाब देता हुआ। क्योंकि हर कल्प मे अलग अलग वजहें रही हैं राम जन्म की, सीता हरण की ,राम को बनवास की …………
ReplyDeleteजी बिलकुल सही कहा आपने ...और एक बात हमारा हिन्दू धर्म इतनी समृद्ध और लिबरल है की हर पाठक को अपने ग्रंथों को अपनी तरह से इन्टरप्रेट करनी की पूरी आज़ादी है .....
Deleteसरस जी आपके पिता जी को विनम्र श्रन्धांजलि. आपके ब्लॉग की रचनाएँ बहुत ही विचारौत्तेजक और मननशील हैं. इन विचारों को साझा करने के लिए आपका आभार और श्रृंखला में आगे की रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा.
ReplyDeleteसरस जी ,..आपके पापा को विनम्र श्रद्धांजलि ..आपकी रचनाये अच्छी होती है ..मैं हमेशा पढ़ता रहूँगा ,इस लेख में उल्लेखित स्मरण मुझे बहुत पसंद आये
ReplyDelete"जब भी मुश्किल समय में पापा को याद कर आँखें बंद करती हूँ ...तो उनका हाथ सर पर महसूस होता है ...उसी तरह सर सहलाते हुए....पुचकारते हुए ...उनके शब्द सुनाई देते हैं ..."बेटा उपरवाला बहुत दयालु है ...अगर वह दुःख देता है, तो उससे लड़ने की ताक़त भी देता है ....चिंता मत करो, सब ठीक हो जायेगा"
आपकी रचना पढ़ कर मैथिलीशरण गुप्त जी का 'साकेत' का स्मरण हो आया, मुझे बहुत ही अच्छी लगी॰ पिताजी को सादर नमन, पिता ऐसे ही होते हैं और ऐसे ही होने चाहिए, अपनी संतान के लिए सपने देखने वाले और हमेशा हमारे पीछे खड़े होने वाले॰
ReplyDeleteकैकई मेरा भी आदर्श है और आम धारणा से विपरीत उसके चरित्र पर अच्छा पढ़ने को मिलता है तो बहुत अच्छा लगता है॰
निःशब्द हूँ....
ReplyDeleteप्रणाम बारंबार आपके पिताजी को ।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletesaras ji
ReplyDeletesabse pehle aapke pitaji ko mera naman...
aapne hame itni acchi jaankaari di..
hum sab kaikayi ko ek khalnaiyka ke rup main hi dekhte the
lekin ab ek naye nazariye se dekhenge...
aage aur bhi prasno ke uttar milenge.
ReplyDeleteएक लेखक को,उसके भीतर उपजते विचारों को समझना सहज नहीं है
पिताजी को नमन
PHOOPHAJI WAS A GENIUS. HOPE HE IS STILL WRITING UP THERE. HE IS STILL WITH US
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