Friday, May 25, 2018

मॉर्निंग वॉक – हमारे पूर्वाग्रह




अभी कुछ ही दिन पहले अखबार पढ़ते हुए , एक अजीब सी खबर पर नज़र पड़ी । एक पिता ने अपने बेटे के दसवीं फ़ेल होने पर दावत की । पढ़कर अटपटा लगा , यह क्या बात हुई । फ़ेल होने पर दावत...!
उत्सुकता बढ़ गई। यह खबर तो पढ़नी चाहिए ।
आगे लिखा था , कि उस परीक्षा के परिणाम आने के आधे घंटे के भीतर  6 बच्चों ने फ़ेल होने की वजह से आत्महत्या कर ली थी।
पूरी बात शीशे की तरह साफ थी ।
आजकल जाने अंजाने बच्चों पर  पढ़ाई का इतना दबाव बढ़ गया है , परफॉर्मेंस की इतनी टेंशन तारी रहती है , कि उनकी ज़िंदगी सिर्फ पढ़ाई , ग्रेड्स और अंकों में ही उलझ कर रह जाती है । जी तोड़ मेहनत कर, कोचिंग में घंटों पढ़कर , वे दिन रात एक कर देते हैं। शिक्षा प्रणाली ऐसी है, कि खुले हाथों से अंक बंटने लगे हैं। हमें याद है , स्कूल के टोपेर्स को 74 या  75, प्रतिशत से अधिक अंक नहीं मिला करते थे । डिस्टिंशन यानि 70 प्रतिशत से ऊपर गिने चुने बच्चों को मिल पाता था । पर आजकल परिणाम देखकर तो लगता है , कि इन लोगों ने खिलवाड़ मचा रखा है । 85, 87, प्रतिशत तो औसत माने जाते हैं। टोपेर्स को 99.5 प्रतिशत अंक मिल रहे हैं...!
ऐसे में एक एक अंक के लिए बच्चे जीव दिये रहते हैं। और उसमें ज़रा सा पिछड़ जाएँ, तो सबसे बड़ी समस्या , अच्छे कॉलेज में एड्मिशन की होती है । जब प्राप्त अंकों का प्रतिशत इतना ऊँचा होता है, तो ज़ाहिर है, अच्छे कोलेजेस  का कट-ऑफ भी बहुत ऊपर जाता है ।
इस पूरी प्रक्रिया में , अभिभावकों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है । इस अंधी दौड़ में , वे बच्चों पर अनुचित दवाब डालते हैं। वजह चाहे जो भी चाहे सामाजिक प्रतित्ष्ठा हो, चाहे अपने ही सर्कल में होड हो,  दाँव पर तो बच्चा ही लगता है ।
ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि पहले से ही तनावग्रस्त बच्चे को हमें एक स्वस्थ माहौल, एक स्वस्थ मन:स्तिथि देने की ज़रूरत है ?
पर ऐसा होता नहीं है । बच्चों के साथ अभिभावक भी तनावग्रस्त रहते हैं, और वह बच्चे की मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालता है ।
दूसरी पंक्ति पढ़ते ही, उस खबर का सच मुखर हो उठा था । बच्चे हैं, तो जहान है। एक परीक्षा  में असफल होना , किसी अंत का ध्योतक नहीं है। जीवन में और मौके आयेंगे । दोबारा कोशिश की जाएगी , और अच्छे परिणाम मिलेंगे । इसमें हतोत्साहित होने की ज़रूरत नहीं ।
कोई भी कार्य करते वक़्त , उसके पीछे की  मंशा महत्वपूर्ण होती है । अगर मंशा अच्छी है, तो आपका कृत्य  न्यायोचित है , जस्टीफिएड है । किन्तु हमारे पूर्वाग्रह हमें ऐसा करने से रोकते हैं।
इस संदर्भ में सम्यक दृष्टि से देखा जाए तो हमें उस पिता का ऐसी परिस्थिति में दावत देना  पूर्णतया  न्याओयाचित लगा ।

सरस दरबारी

मॉर्निंग वॉक – क्या फिल्मों का भविष्य दर्शक तै करते हैं


आज की सुबह बहुत ताज़ा तरीन थीं, ठंडी ठंडी हवा चल रही थी , मौसम में भी हल्की सी सिहरन थी। और मैं रोज़ की तरह अपने मॉर्निंग वॉक का लुत्फ उठा रही थी तभी बगल से दो महिलाएं कुछ वार्तालाप करती हुई गुज़रीं। दिमाग उनकी बातों में उलझ गया।  

“ पुरानी फिल्मों में कहानी ऐसी ही होती थी, हाँ संगीत बहुत बढ़िया होता था। वही घिसी पिटी हल्की फुलकी रोमांटिक् कहानियाँ...” । तभी दूसरी महिला ने बात काटते हुए कहा, की तब फिल्में लोग एंटर्टेंमेंट के लिए देखने जाते थे , रोज़मर्रा के जीवन में वही रोना धोना देखकर , कुछ समय के लिए एक ऐसी दुनिया में पहुँच जाना चाहते थे जहां, यथार्थ से दूर एक सपनों की दुनिया की सैर करें ,जहां रंग हों, खुशियाँ हों, खूबसूरती हो, प्यार मोहब्बत हो । पर आज लोग सच देखना चाहते हैं, इसलिए आज की फिल्मों में हिंसा , मार पीट, आतंक, भ्रष्टाचार, यही सब देखने को मिलता है, क्योंकि लोग यह जान गए हैं, की जीवन मेक बिलिव नहीं है, कहानियाँ जीवन से ही उठाई जाती हैं, इसलिए आज कल यतार्थवादी फिल्में बनने लगी हैं ।
वह दोनों तो बातें करती हुई निकल गईं , पर मुझे सोचने के लिए एक विषय दे गईं।
क्या वाकई फिल्में दर्शकों के चयन से बनती हैं, क्या फिल्मों का भविष्य दर्शक तै करते हैं ?
हाँ एक दौर थे जब फॉर्मूला फिल्में बनने लगीं थीं, पर जल्दी ही लोगों ने उससे ऊबना शुरू कर दिया और एक परललेल या समानान्तर फिल्मों का दौर चला। हालांकि यह फिल्में एक विशेष वर्ग ही पसंद करता था। यह कम बजेट में बनी फिल्में हुआ करती थीं, कम लागत होती थी, तो उसमें बड़े सितारे नहीं हुआ करते थे। ऐसे में आम जनता जिनपर किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप करने का श्रेय होता था, ऐसी फिल्मों से दूरियाँ बनाने लगे।क्योंकि बतौर उनके वे इसी गरीबी, भुखमरी, और संत्रास से भागकर पैसे खर्च करके मनोरंजन खरीदते थे। नतीजा यह हुआ कि इस तरह की फिल्में या तो कुछ ही गिनती के सिनेमा घरों में मटिनी शो में दिखाई जातीं या फिर अंतर राष्ट्रीय फिल्म समारोह में शिरकत करतीं। यह फिल्में इसलिए और मुख्यधारा से हट गईं क्योंकि फिल्म फ़ाइनेंस कार्पोरेशन (FFC जो बाद में NFDC कहलाया) ने ऐसी फिल्मों के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता देनी बंद कर दी। श्याम बेनेगल, सईद मिर्ज़ा, मणि कौल, बसु चैटर्जी, सबको इसी संस्थान से वित्तीय सहायता मिली थी। लेकिन भूमंडलीकरण के बाद यह सहायता बंद कर दी गई। इस दौरान , कुछ बहुत ही अच्छी फिल्में बनीं, भुवन शोम, आविष्कार, मंथन, कलयुग, अर्धसत्य, अंकुर, मिर्च मसाला, इत्यादि फिल्में यतार्थवादी पृष्ठभूमि से जुड़ी थीं। आज भी यह फिल्में देखने का प्रलोभन हम संवार नहीं पाते।  
एक बार फिर वही दौर दिखाई देने लगा है, बस फर्क इतना है, कि अब बड़े बड़े सितारों को लेकर इस तरह की फिल्में बनाई जा रही हैं, जो समाजमें , पॉलिटिक्स में हो रहे घिनौने सच को अनावृत कर रहे हैं। यह सितारे इन फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर वह सफलता दे देते हैं , जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कलेक्शन के नए रेकॉर्ड्स बन रहे हैं और फिल्म उद्योग में बड़े बड़े आँकड़ों का खेल हो रहा है। बड़ी बजेट की फिल्में पहले भी बनी हैं, जिनहोने अपने समय में बहुत अच्छा व्यवसाय किया। 1949 में बरसात ने 1 करोड़ 10 लाख का कारोबार किया, 1960 में मुग़ल-ए-आज़म जो अपने समय की बहुत महंगी फिल्म थी ने  5 करोड़ का बिज़नस किया। 1974 में शोले ने 65 करोड़ और 1994 में हम आपके हैं कौन ने 70 करोड़। पैसों के इस खेल का ग्राफ समय के साथ बढ़ता ही जा रहा है। गजनी ने 114 करोड़ और द थ्री ईडीओट्स ने 200 करोड़ का व्यापार किया ! पानी की तरह पैसे बहाना, एक्सोटिक लोकेशनस पर फिल्में शूट करना, आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल ने फिल्म निर्माण को नए आयाम दिये ,नए आँकड़े दिये। यह दौड़ कहाँ जाकर खत्म होगी यह कह पाना मुश्किल है। हालांकि अभी भी कुछ छोटे निर्माता ऐसे हैं जिनका मानना है कि एक फिल्म में एक साथ इतना पैसा लगाना एक बहुत बड़ा जुआ है । इससे बेहतर है कि उसी कीमत में तीन चार छोटी फिल्में बनाई जाएँ जिससे रिस्क कम हो। जो भी हो , पर यह मानना पड़ेगा कि फिल्मों के स्तर में सुधार आया है।
नायिका प्रधान फिल्मों का एक दौर था जब परिणीता’, ‘मैं चुप रहूंगी, काजल ,सुजाता, बंदिनी और मदर इंडिया जैसी फिल्में बनी थीं पर फॉर्मूला फिल्मों के चलन के बाद नायिका प्रधान फिल्मों का दौर जैसे खत्म हो गया।  नायिकाएँ अभिनेताओं के मुक़ाबले हाशिये पर रख दी गईं और केवल सजावट की वस्तु बनकर रह गईं। मधुर भंडारकर, आशुतोष गोवारीकर ने नायिका प्रधान फिल्में बनाई शुरू कीं और लोगों की इन धारणाओं को तोड़ा कि महिला प्रधान फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट नहीं होतीं, और अपनी बात को सिद्ध कर दिखाया। सेंसर बोर्ड की बढ़ती उदारता ने भी फिल्मों के कथानक और दृश्यों को काफी प्रभावित किया है। जो पहले वर्जित था, अब वैद्यता पा चुका है।
एक और विधा जिसे दर्शक बहुत सराह रहे हैं वह है एनिमेशन। पहले पैसे खर्च करके एनिमेशन फिल्में कोई देखना पसंद नहीं करता था। लेकिन हनुमान और घटोत्कछ की सफलता ने निर्माता निर्देशकों की सोच बदली है। निर्माता निर्देशक अधित्य चोपड़ा अब वाल्ट डिज़्नी स्टुडियो के साथ मिलकर भारत में एनिमेशन फिल्में बनाने लगे हैं। गोविंद निहलनी जैसे गंभीर निर्दशक भी एक ऊँट के बच्चे कि कहानी “कमलू” बना रहे हैं जो एक थ्री- डी फिल्म हैं। बच्चों के साथ अब बड़ों को भी उसमें लुत्फ आने लगा है।
पहले बाओपिक्स में लोगों की कोई रुचि नहीं थी पर मिलखा सिंह पर बनी फिल्म को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया । भारतीय महिला बॉक्सर पर जब उमंग कुमार ने मेरी कॉम बनाई, तब लोगों ने उसके बारे में जाना। दर्शकों में खिलाड़ियों, रियल लाइफ हीरोज के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ी और फिर एक के बाद एक बाइओपिक्स की झड़ी लग गई।
दर्शकों ने जब जिसे चाहा फ़लक पर बैठा दिया, और जब चाहा एक ही झटके में नकार दिया। अब देखना यह है कि भविष्य में किस सोच और किस विधा की फिल्मों को दर्शक तरजीह देते है, उसी तरह की फिल्में निर्माता निर्देशक बनाएँगे और उसी लकीर पर आने वाली फिल्मों का भविष्य निर्धारित होगा।