Wednesday, October 31, 2012

एक प्रेम कविता ....



आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखूं ..... 
आज तक जो भी लिखा -
तुम से ही जुड़ा था  -
उसमें विरह था ...दूरियां थीं...शिकायतें थीं..
इंतज़ार था ...यादें थीं..
लेकिन प्रेम  जैसा कुछ भी नहीं ....
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं-
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी ...
हम थे...
नींद  में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर ...
सिरहाना बना  ..आश्वस्त  हो सोई  हूँ .....
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी ...
और पहुँचते ही महायुद्ध !
तुम्हारे कहे बगैर -
तुम्हारी चिंताएं टोह लेना-
और तुम्हारा उन्हें यथा संभव छिपाना
हर जन्म दिन पर रजनी गंधा और एक कार्ड ...
जानते हो उसके बगैर -
मेरा जन्म दिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथले
चांदनी रातों में नहीं घूमे-
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो ..
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे....
यही तै किया था -
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद -
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्ही आदतों में
जाने कब --
प्यार शुमार हो गया -
चुपके से ...
दबे पाँव.....

Saturday, October 27, 2012

घुटने-




जब पहली बार चला था वह-
घुटने घुटने -
एक आज़ादी का अनुभव किया था उसने -
पालने की क़ैद से निकलकर-
ठन्डे फर्श का स्पर्श !
और माँ बाबू के दिल में उठती -
ख़ुशी की हिलोरों का स्पर्श !
कितना सुखद था सब -

फिर दौड़ते भागते
गिरते पड़ते -
चुटहिल घुटनों पर
माँ का वात्सल्य भरा स्पर्श
सारी पीड़ा हर लेता ...
माँ के पास समय का आभाव अक्सर रहता
घरों का झूठा बासन जो निबटाना था -
घुटनों का टूटना -
माँ का कुछ समय उसकी झोली में डाल जाता !

फिर माँ चल बसी -
उन्ही घुटनों में सर छिपा
घंटों रोया था वह !
अब तो उन्ही का सहारा था -

शीत की ठिठुरती रातों में
इन्हीं घुटनों से पेट ढक सोया था -
और भींच उन्हें अपनी आँतों से
बिताईं थीं अनगिनत भूख से कुलबुलाती रातें
बोझा ढोते हुए
इन्हीं घुटनों ने अक्सर
कन्धों को आश्वस्त किया था !

पर आज -
उम्र के आखिरी पड़ाव पर
इन्हीं टीसते घुटनों को
जीवन का अभिशाप बताता है वह !!



Monday, October 8, 2012

क्षणिकाएँ -



 बड़प्पन

लोग भी नासमझ होते है -
बड़ा बनने की होड़ में
अक्सर कभी छोटी कभी ओछी बातें कर बैठते हैं ..
काश यह जाना होता कि
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ एक लकीर खींचनी होती है -
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे -
अपने व्यक्तित्व कि एक छोटी लकीर ...!


ज़रुरत

सुना था कभी -
शरीर के अनावश्यक अंग झड जाते हैं -
और जिन्हें इस्तेमाल करो -
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं ....
मैंने हाल ही में-
दीवारों के कान उगते देखे हैं !

Wednesday, October 3, 2012

हाइकू - मृगतृष्णा




क्यूँ मृगतृष्णा
भटकाए वनों में
बढ़ाये आस  !

क्यूँ मृगतृष्णा
सदैव मिलन की
जगाये आस !

क्यूँ  मृगतृष्णा
अंतिम उम्मीद की
जिलाए आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
जीने की हरदम
आखरी आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
मंजिल को पाने की
जगाये आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
तरसा तरसा के
हराए आस !