Tuesday, October 8, 2013

विरह





"कागा सब तन खइयो...चुन चुन खइयो माँस
दो नैना मत खइयो ...मोहे पिया मिलन की आस "

......
सुना था कभी !
और उस पराकाष्ठा को समझना चाहा था,
जो विरह की वेदना से उगती है -
और उसे उस दिन जाना -
जब सीमा पर तुम्हारे लापता होने की खबर आयी-
जैसे सब कुछ भुर भुरा कर ढेह गया !!
बस एक आस बाक़ी थी
जो खड़ी रही
मजबूती से पैर जमाये -
पांवों के नीचे से फिसलती रेत को
पंजों से भींचती हुई ..
कहती हुई -
"तुम आओगे ज़रूर ..."
मैं आज भी आँखों में दीप बाले बैठी हूँ -
वह आस..
आज भी चौखट से लगी बैठी है ...!!!