"कागा सब तन खइयो...चुन चुन खइयो माँस
दो नैना मत खइयो ...मोहे पिया मिलन की आस "
......
सुना था कभी !
और उस पराकाष्ठा को समझना चाहा था,
जो विरह की वेदना से उगती है -
और उसे उस दिन जाना -
जब सीमा पर तुम्हारे लापता होने की खबर आयी-
जैसे सब कुछ भुर भुरा कर ढेह गया !!
बस एक आस बाक़ी थी
जो खड़ी रही
मजबूती से पैर जमाये -
पांवों के नीचे से फिसलती रेत को
पंजों से भींचती हुई ..
कहती हुई -
"तुम आओगे ज़रूर ..."
मैं आज भी आँखों में दीप बाले बैठी हूँ -
वह आस..
आज भी चौखट से लगी बैठी है ...!!!
मार्मिक रचना..।
ReplyDeleteबहुत सु्न्दर
ReplyDeleteवह आस..
ReplyDeleteआज भी चौखट से लगी बैठी है ...!!!
ओह बेहद भावपूर्ण
मार्मिक ....अत्यंत भावपूर्ण रचना ......!!
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना ...!
ReplyDelete:-( कि आस कभी टूटे न.......
ReplyDeleteबहुत कोमल भाव हैं दी...
सादर
अनु
मन को प्रभावित करती सुंदर अभिव्यक्ति...!
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी राम कहानी में.
इस तरह के अटल विश्वास के आगे आस निराश कभी हो नहीं सकती. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteकई बार ये आस नहीं टूटती .. जीवन खत्म हो जाता है ... ये पराकाष्ठा होती है मिलन की आस की ... भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteइंतज़ार कहें या प्रेम की पराकाष्ठा
ReplyDeleteऔर दर्द का अनकहा कहा एहसास
सुन्दर दर्दिला अहसास..
ReplyDeleteAntarman ko sparsh karati
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना ...
ReplyDeleteवाह... बहुत ही गहरे भाव... बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी आप सभी का स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
ओह .... बहुत मार्मिक .... यही आस शायद उसे वापस ले आए ।
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