Tuesday, October 8, 2013

विरह





"कागा सब तन खइयो...चुन चुन खइयो माँस
दो नैना मत खइयो ...मोहे पिया मिलन की आस "

......
सुना था कभी !
और उस पराकाष्ठा को समझना चाहा था,
जो विरह की वेदना से उगती है -
और उसे उस दिन जाना -
जब सीमा पर तुम्हारे लापता होने की खबर आयी-
जैसे सब कुछ भुर भुरा कर ढेह गया !!
बस एक आस बाक़ी थी
जो खड़ी रही
मजबूती से पैर जमाये -
पांवों के नीचे से फिसलती रेत को
पंजों से भींचती हुई ..
कहती हुई -
"तुम आओगे ज़रूर ..."
मैं आज भी आँखों में दीप बाले बैठी हूँ -
वह आस..
आज भी चौखट से लगी बैठी है ...!!!

17 comments:

  1. वह आस..
    आज भी चौखट से लगी बैठी है ...!!!
    ओह बेहद भावपूर्ण

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  2. मार्मिक ....अत्यंत भावपूर्ण रचना ......!!

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  3. :-( कि आस कभी टूटे न.......

    बहुत कोमल भाव हैं दी...
    सादर
    अनु

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  4. मन को प्रभावित करती सुंदर अभिव्यक्ति...!

    RECENT POST : अपनी राम कहानी में.

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  5. इस तरह के अटल विश्वास के आगे आस निराश कभी हो नहीं सकती. सुन्दर रचना.

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  6. कई बार ये आस नहीं टूटती .. जीवन खत्म हो जाता है ... ये पराकाष्ठा होती है मिलन की आस की ... भावपूर्ण रचना ...

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  7. इंतज़ार कहें या प्रेम की पराकाष्ठा
    और दर्द का अनकहा कहा एहसास

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  8. सुन्दर दर्दिला अहसास..

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  9. बहुत खुबसूरत रचना ...

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  10. वाह... बहुत ही गहरे भाव... बहुत खूब

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  11. बहुत सुंदर रचना.
    मेरे ब्लॉग पर भी आप सभी का स्वागत है.
    http://iwillrocknow.blogspot.in/

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  12. ओह .... बहुत मार्मिक .... यही आस शायद उसे वापस ले आए ।

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