जब भी आम आदमी
का ज़िक्र होता है, तो एक जीवन से हारे , संघर्षों से झूझते, जैसे तैसे ज़िंदगी गुज़ारते, समय के साथ समझौता करते इंसान का स्वरूप ही मस्तिष्क में उभरता है । एक
ऐसा इंसान जो हर जगह भीड़ के पीछे दिखाई देता है, जीवन में
कुछ ठोस न कर पाने की घुटन को लिए। और यह आम आदमी उम्र के हर पड़ाव पर पाया जाता
है। कभी बच्चा बनकर , समृद्ध बच्चों के ऐशोआराम को दूर से
निहारता हुआ, कभी युवा बनकर कुछ न हासिल कर पाने की कसमाहट से
उफनता हुआ।
ऐसे में वह
निकास ढूँढता है। वास्तविकता से कुछ समय के लिए पलायन करना चाहता है । और ऐसे में
सिनेमा एक ऐसा विकल्प बनकर उभरता है ,
जो कुछ समय के लिए ही सही , उसे उस सच से दूर ले जाता है जो
दुखदायी है, अवसादपूर्ण है। ऐसे में वह ढूँढता है चैन , खुशी , खूबसूरती के कुछ खुशनुमा पल जहाँ जीवन की विसंगतियाँ
, दुख दर्द उसे याद न आए। और वह जाकर छिप जाता सिनेमा घरों
के अंधेरे में , जहाँ सिमला, कश्मीर, स्विट्ज़रलैंड की खूबसूरत वादियों में वह कुछ समय के लिए गुम होकर, खूबसूरत नायिकाओं की अदाओं में खो, नायक की जगह
स्वयं को देखता है।
निर्माता
निर्देशकों ने सदा आम आदमी पर कड़ी नज़र रखी,
उसकी नब्ज़ को टटोला, क्योंकि फिल्म को हिट या फ्लॉप करने का
दारोमदार सदा से ही उसपर रहा है, चाहे वह कोई भी दौर रहा हो।
आज से दस दशक पहले जब दादा साहेब फालके ने हिन्दी सिनेमा की पहली मूक फिल्म राजा
हरिश्चंद्र बनाई तब उन्हे इसका अंदाज़ भी नहीं होगा कि उन्होने मनोरंजन के क्षेत्र
में क्रांति का वह बीज बो दिया था, जो सिनेमा की दुनिया में
एक विशाल वटवृक्ष बन जाएगा , जिसकी शाखाएँ कई प्रान्तों और
शहरों में क्षेत्रीय और प्रांतीय सिनेमा उद्योग की शक्ल में उग आयेंगी। पर शुरू
में यह सबके लिए एक अजूबा था। हर आदमी भौंचक्का था , कि क्या
यह भी मुमकिन है। फिर मूक फिल्में बोलने
लगीं। श्वेत श्याम की जगह रंगीन फिल्मों ने ले ली। इस तरह धीरे धीरे सिनेमा जीवन
का हिस्सा बन गया। निर्माताओं ने तभी से आम आदमी की नब्ज़ टटोलनी शुरू कर दी थी । उसीकी
पसंद को टटोलते हुए, पहले धार्मिक फिल्में बनी फिर ऐतिहासिक, फिर सामाजिक। फिर आया सॉफ्ट रोमांटिक फिल्म का दौर , जो काफी समय तक चला। आम आदमी उसी काल्पनिक दुनिया में जीता रहा।
कुछ समय बाद वह
उस सबसे भी ऊब गया। जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि जीवन सिर्फ पेड़ों के इर्द गिर्द
घूमना नहीं । अब उसे कुछ नया चाहिए था। कुछ ऐसा जो सच के करीब हो। मृणाल सेन , बिमल रॉय, सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, ने आम आदमी को केंद्र में रखकर फिल्में बनायीं,
मृगया, दो बीघा ज़मीन, पाथेर पांचाली, इत्यादि। पर वह फिल्में आम आदमी को बिलकुल नहीं लुभा सकी। अलबत्ता वह फिल्में
अंतर राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में खूब सराही गईं। दो बीघा ज़मीन तो कान्स फिल्म समारोह
में पुरस्कृत भी हुई। एक किसान के जीवन पर बनी यह फिल्म आज भी उतनी ही सामयिक है ।वी
शांताराम की दो आँखें बारह हाथ, तीसरी कसम, जागते रहो, नदिया के पार,
सत्यजित राय की पाथेर पांचाली, इन सारे कथानकों के मध्यस्थ
आम आदमी ही था। इसी लीक की फिल्मों में थोड़ीसी तबदीली लाकर बसु चैटर्जी, बसु भट्टाचार्य ने, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्म
कारों ने आम आदमी के जीवन के हल्के फुल्के पहलुओं पर फिल्में बनायीं, अंगूर, बावर्ची, चुपके चुपके, रजनीगंधा। यह फिल्में लोगों ने
खूब सराहीं। पर बॉक्स ऑफिस पर उतना प्रभावपूर्ण प्रदर्शन नहीं रहा।
सत्तर के ही दशक
में बनी भूमिका सारांश , अंकुर मंथन भले ही
बॉक्स ऑफिस पर अपना जलवा नहीं दिखा सकीं पर सिने प्रेमी आज भी उन फिल्मों को याद
करते हैं। यह सभी आम आदमी की कहानियाँ थीं। सारांश में एक बुजुर्ग दंपति, की जो अपने मृत बेटे की अस्थियाँ पाने के लिए लाल फीताशाही के शिकंजे में
जकड़े किस कदर त्रस्त होते हैं, अंकुर में जमींदारों द्वारा नौकरों
पर होने वाले अत्याचार की कहानी है। इन सभी कहानियों के बीच आम आदमी, जब ऐसी फिल्में देखता है, तो कहीं उसे वे अपने से
जुड़ी लगतीं हैं। लाल फीताशाही, सत्ता और प्रशासन के अत्याचार, भ्रष्टाचार, के विरुद्ध जब वह असहाय हो जाता है, जब लड़ने की शक्ति खो देता है, तब एक घुटन, एक आक्रोश भीतर पालने लगता है तब गंगाजल, अपहरण, घातक, जैसी फिल्में उसकी हिम्मत बढ़ाती हैं, भीतर दबा आक्रोश निकास पाता है, और रजनीकान्त सलमान
खान अजय देवगन, सनी देओल, जैसे पर्दे के नायक असल ज़िंदगी में उसके आदर्श बन जाते
हैं।
हिंसा से आजिज़
हो जाने के बाद फिल्मों का ट्रेंड फिर बदला। फिर एक नई धारा का उद्गम हुआ। वह
जिसमें व्यावसायिक सिनेमा का गैर ज़रूरी लटके झटके नहीं थी, और न ही सार्थक फिल्मों की उबाऊ खींचातानी। बल्कि सार्थक फिल्मों की
कलात्मकता और व्यावसायिक फिल्मों की गंभीरता ने उन्हे बहुत खास बना दिया। तारे
ज़मीन पर, रंग दे बसंती, मुन्नाभाइ जैसी
फिल्में एक खास मकसद को लेकर चलीं, विषय उनका भी आम आदमी ही
था , उसकी समस्याएँ ही थीं। तारे ज़मीन पर डिसलेक्सिक बच्चों
पर एक गंभीर फिल्म थी , पर उसके ट्रीटमंट ने उसे खास बना
दिया, कहीं किसी पल वह उबाऊ नहीं लगी। इन फिल्मों को लोगों
ने हाथों हाथ लिया और बॉक्स ऑफिस पर भी फिल्मों ने नए कीर्तिमान स्थापित किए
।
स्त्री प्रधान
फिल्में भी इसी दौरान बननी शुरू हुईं। स्त्री जिसे हमेशा ही एक दोयम दर्जा दिया
गया , जिसकी समस्याओं को हमेश अनदेखा किया गया , जिसकी मुश्किलों को हमेशा हाशिये पर रखा गया , आज
फिल्मों के माध्यम से उन समस्याओं पर भी रोशनी डाली जा रही है । मधुर भंडारकर जैसे
निर्माताओं ने औरतों कि समस्याओं को समझा , और चाँदनी बार
में तबू, पेज थ्री में कोंकणा सेन, फ़ैशन
में प्रियंका चोपड़ा, और कॉर्पोरेट में बिपाशा बसु को लेकर नायिका
प्रधान फिल्में बनायीं। चौंका देने वाले तथ्य सामने आए , जो
शायद उस महकमे मे कार्यरत लोगों के अलावा कोई नहीं जानता था । एक बार फिर इन
सच्चाईयों को जानकर लोग चौंके। कई गंभीर विषयाओं पर फिल्में बनी , कास्टिंग
काउच जैसे घिनौने सच पर बनी फिल्म दी डरटी पिक्चर को लोगों ने हाथों हाथ लिया। एक
बोल्ड विषय पर बनी फिल्म , आज के आम आदमी ने समझी और स्वीकार
की ।
आम आदमी अब जागरूक
हुआ है। उसने कदम कदम पर परिस्थितियों के अनुकूल अपनी पसंद दर्ज की है। आज भी
फिल्म निर्माता,निर्देशक , आम
आदमी की नब्ज़ टटोलते हैं । उन्हे जो पसंद है वही परोसा जाता है , पुरानी शराब नई बोतलों में अलग अलग लेबेल्स लगाकर , बेची
जाती है । आज आम आदमी तै करता है , कि उसे कौनसी फिल्म हिट होगी, और कौनसी एक सिरे से नकार दी जाएगी।
लेकिन यह बात भी
अपने जगह सच है, की फिल्म उद्योग ने सदा उसकी
भावनाओं का शोषण किया है, उसकी नुमाइश कर, एक भीमकाय व्यवसाय खड़ा किया है, और जहाँ तक आम आदमी का प्रश्न है, उसकी स्तिथि में
आज भी कोई विशेष सुधार नहीं आया है । यह क्रम यूहीं ही चलता रहेगा और आम आदमी और
सिनेमा एक दूसरे की ज़रूरत बने रहेंगे।
सरस दरबारी
फ़िल्म उद्योग पर बहुत अच्छा आलेख। फ़िल्म एक व्यवसाय है और यह हमारे मनोरंजन के लिए ज़रूरी बन चुका है। सिनेप्रेमी फ़िल्म को हिट और फ़्लॉप बनाते हैं। इस उद्योग पर ढेरों इल्ज़ाम लगते रहते हैं। पर इसे एक व्यवसाय माना जाए तो प्रतिस्पर्धा तो जायज़ है और मुनाफ़े का कारोबार है। जैसी माँग वैसी फ़िल्म बनती है। आम आदमी का मन फ़िल्म कारोबारी ख़ूब भाँपते है। लेख पढ़कर भूल चुकी फ़िल्में याद आ गई।
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