विरह का बीज
तो उसी दिन
पड़ गया था
-
जब तुमने अचानक हाथ
छुड़ाकर
जाने का फरमान
सुनाया था
और मैं लम्हों
को छील छीलकर
-
अपनी गलती ढूंढता
रहा था .....
वह फरमान
..!
जैसे मौत की
सज़ा सुनाकर
कलम तोड़ दी
थी तुमने ..!!
आज वह बीज
एक वृक्ष बन गया
है
और मैं यहाँ
बैठा
राहगीरों को विरह्के
फल
तोड़ने से रोकता
आज भी तुम्हारी
बाट जोह रहा
हूँ
पता नहीं क्यों
...!!!
अत्यंत हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति सरस जी ....!!असीम वेदना है छिपी हुई ...!!
ReplyDeleteबहुत गहन और सुंदर रचना .....!!
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीया-
बहुत खूब,मन को छूती सुंदर रचना !
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विरह में मिलन की आस छुपी होती है न....
ReplyDeleteमन बात तो जोहेगा ही...
बहुत सुन्दर भाव...
सादर
अनु
मार्मिक कथ्य!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ...
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति,मार्मिक....
ReplyDeleteविरह के इस वृक्ष में फूल न आएं ओर दूसरे वृक्ष न उगे ... हां अगर उगें तो प्रेम के फूल उगें ... यस विरह के लम्हें मन को उदास न करें ...
ReplyDeleteमार्मिक ... दिल को छूती हुई रचना ...
कुछ वाकये शायद ऐसे ही होते हैं. एक बार घटित होते है और फिर बेइंतहा इंतज़ार. विरह की सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteबहुत गहन और सुन्दर रचना है सरस जी |
ReplyDeleteआज 23/009/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
आज भी तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ
ReplyDeleteपता नहीं क्यों ...!!!
मिलन की आश ही विरह है और आशा तो निरंतर, अंतहीन !
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वेदना की बढ़िया प्रस्तुति । हृदयस्पर्शी |
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- चलो अवध का धाम
क्यूंकि आस पर दुनिया कायम है न इसलिए बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteसादर
मन को छू गयी … बहुत सुन्दर….
ReplyDeleteऐसे उगे वृक्ष बहुत दुख देते हैं .... इन बीजों को अंकुरित होते ही खत्म कर देना चाहिए लेकिन हम ही इन्हें पालते और पोसते हैं और दुखी होते हैं ।
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