तुमने एक बार
फिर
उस सतह को
बींधा
जिसके नीचे दबे
थे
बहुत से अहसास-
अनगिनत सपने-
कुछ वादे-
कुछ टूटे
कुछ अनछुए-
कुछ कोशिशें-
उन्हें निभाने की
कुछ टुकड़े कमज़ोर पलों
के -
जो वक़्त से
छूटकर -
छितर गए थे
-
और साथ ही
बिखर गयी -
हर उम्मीद -
उन्हें दोबारा जीने की
-
न छेड़ा होता
उस शांत नीरव
सतह को -
तो हो सकता
है
सब कुछ -
वक़्त के बोझ
तले जो जाता
अश्मिभूत !
.........................
रहता तो भीतर
ही...!!!
सहचर होने के एहसास के साथ …
ReplyDeleteपर उसे भीतर क्यों रहने दिया जाए ... वो एहसास तो जीने के लिए हैं न की दफ़न करने ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteपरिस्तिथियाँ नासवा जी .....आभार आपका !!!
Deleteबहुत ही सुंदर भाव अभिव्यक्ति...!
ReplyDeleteRECENT POST - आँसुओं की कीमत.
न छेड़ा होता तो....
ReplyDeleteप्रश्न अबूझ है .
बहुत सुन्दर लिखा है
न छेड़ा होता
ReplyDeleteउस शांत नीरव सतह को -
तो हो सकता है
सब कुछ -
वक़्त के बोझ तले जो जाता
अश्मिभूत !
.....................
न छेड़ा होता
ReplyDeleteउस शांत नीरव सतह को -
तो हो सकता है
सब कुछ -
वक़्त के बोझ तले जो जाता
अश्मिभूत !
sunder abhivyakti
rachana
बहुत गहन और सुन्दर
ReplyDeleteन छेड़ा होता
ReplyDeleteउस शांत नीरव सतह को -
तो हो सकता है
सब कुछ -
वक़्त के बोझ तले जो जाता
अश्मिभूत !
सुंदर पंक्तियाँ...
उछाला हुआ कंकड़ शांत झील में भी उथल पुथल मचा देता है !
ReplyDeleteभावनाओं की उथल पुथल का सुन्दर चित्रण किया है !
न छेड़ा होता
ReplyDeleteउस शांत नीरव सतह को -
तो हो सकता है
..........बहुत गहन और सुन्दर !!
बहुत ही सुन्दर भावनात्मक कविता ..
ReplyDeleteपता नहीं कि सब दबा रहता या नहीं लेकिन कभी कभी सब कुछ बाहर निकलना भी ज़रूरी है .
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