Thursday, November 28, 2013

समंदर



देखे हैं कई समंदर
यादों के  -
प्यार के -
दुखों के -
रेत के -
और सामने दहाड़ता-
यह लहरों का समंदर !
हर लहर दूसरे पर हावी
पहले के अस्तित्व को मिटाती हुई...

इन समन्दरों से डर लगता है मुझे .
जो अथाह है 
वह डरावना क्यों हो जाता है ?
अथाह प्यार-
अथाह दुःख-
अथाह अपनापन-
अथाह शिकायतें.......

इनमें डूबते ..उतराते -
सांस लेने की कोशिश करते -
सतह पर हाथ पैर मारते
रह जाते हैं हम -
और यह सारे समंदर
जैसे लीलने को तैयार
हावी होते रहते हैं .

और हम बेबस, थके हुए लाचार से
छोड़ देते हैं हर कोशिश
उबरने की
और तै करने देते हैं
समन्दरों को ही
हमारा हश्र.....!! 

           


27 comments:

  1. बहुत गहन रचना है.....
    सोच रही हूँ कि जीवन के इस अथाह समंदर में हम इतने निःशक्त और असहाय क्यूँ महसूस करते हैं.....
    सादर
    अनु

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  2. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आदरणीया-

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  3. तै करने देते हैं
    समन्दरों को ही
    हमारा हश्र.....!! बिल्‍कुल सच कहा है इन पंक्तियों में

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  4. लहरों का ही खेल है...
    कोई लहर किनारे भी लगाएगी....

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  5. बहुत सुंदर रचना.

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  6. इनका रूप तो भयावह जरूर होता लेकिन ह्रदय में अंजनी-पुत्र वाला जज़्बा एक बार जाए तो फिर ये भी छोटे पड़ जाते हैं. सुन्दर रचना.

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  7. शुक्रिया राजीवजी

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  8. सब कुछ तो अथाह है हमारे पास ... पर हम ही शायद कम करके देखते हैं...
    एक बेहतरीन पोस्ट..

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...! सरस जी..

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  10. और हम बेबस, थके हुए लाचार से
    छोड़ देते हैं हर कोशिश
    उबरने की
    और तै करने देते हैं
    समन्दरों को ही
    हमारा हश्र.....!!
    सचमुच जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जायें तो थक हार कर नियति पर ही छोड़ देना होता
    बहुत ही गहरी रचना .

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  11. क्या कहूँ जो कुछ भी मैं कहना चाहती थी सभी ने कह दिया...सच तो यही है जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जायें तो थक हार कर नियति पर ही छोड़ देना होता है। गहन भाव अभिव्यक्ति...

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  12. छोटी चीज़ों पर हम आसानी से काबू पा लेते है इसीलिए शायद बढ़ी , अथाह पूर्ण चीज़े हमें डराती है , बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना आपकी ..

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  13. प्रभावशाली रचना।

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  14. और हम बेबस, थके हुए लाचार से
    छोड़ देते हैं हर कोशिश
    उबरने की
    और तै करने देते हैं
    समन्दरों को ही
    हमारा हश्र.....!!
    ...कितना असमर्थ हो जाता है इंसान संसार सागर में हालात के हाथों...

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  15. इन समन्दरों से डर लगता है मुझे .
    जो अथाह है
    वह डरावना क्यों हो जाता है ?
    अथाह प्यार-
    अथाह दुःख-
    अथाह अपनापन-
    अथाह शिकायतें.......

    जीवन के गहरेपन को उकेरती भावपूर्ण रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

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  16. ...और एक दिन खुद में समा भी लेता है ये समंदर..

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  17. प्रेम गलघोंटू न हो , तो ही उचित है !
    अथाह की थाह खूब अभिव्यक्त हुई !!

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  18. great symbolic expression waves and OCEAN WOW its so nice

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  19. इनमें डूबते ..उतराते -
    सांस लेने की कोशिश करते -
    सतह पर हाथ पैर मारते
    रह जाते हैं हम -
    और यह सारे समंदर
    जैसे लीलने को तैयार
    हावी होते रहते हैं .
    bahut hi sunder panktiyan .
    aap ne meri kavita ke lite jo kaha sach maniye bahut apna sa laga
    dhnyavad
    rachana

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  20. समंदर कितना ही अथाह क्यों न हो लहरों को बिना एक दूसरे पर
    हावी हुए किनारे पहुँचने की कला तो सीखनी ही होगी !
    बहुत सुन्दर भाव मुझे बहुत पसंद आयी रचना सरस जी, !

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  21. थाह पाने के लिए जब तक हो सके हाथ पैर मारते हैं ...पर जब वश नहीं चलता तो छोड़ देते हैं नितती पर और फिर समंदर ही तय करता है हश्र ..... बहुत सुंदर और गहन भाव ।

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  22. हर एक समंदर डराता है, झकझोरता है, कभी पार लगाता है, कभी डुबो देता है. उसकी मर्जी जो करे. भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  23. तै करने देते हैं
    समन्दरों को ही
    हमारा हश्र.....!!
    ..... सच है इन पंक्तियों में

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