अब तो केवल यादें हैं
उनके सिवा कुछ भी नहीं
वक़्त ने मुझको गुज़ारा
या मैंने वक़्त को -पता नहीं !
धुंधली सी परछाइयाँ
आ घेर लेतीं मुझको जब
धुंधली होतीं शामें तकता
सोचता क्या- पता नहीं !
कौनसी थी वह ख़ता
अनजाने में मुझसे हो गयी
छोड़कर सब चल दिए
क्यूँ जी रहा मैं -पता नहीं !
वादा खिलाफी मैंने की
यह मान मैं सकता नहीं
कोशिशों में रह गयी
शायद कमी -पता नहीं !
अब तो अकेले रहने की
आदत है मुझको पड़ गयी
रौशनी कब मेरी थी
कब मेरी होगी -पता नहीं !
कई बार इनमे से कुछ प्रश्नों का उत्तर आत्म-मंथन के बाद मिल जाता है, कई बार अबूझा ही रह जाता है क्यों कि समय यही चाहता है. बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteआभार रंजनजी
Deleteबहुत सुंदर मन के भावों को उकेरा है आपने खासकर इन पंक्तिओं में .....
ReplyDeleteवादा खिलाफी मैंने की
मान मैं सकता नहीं
कोशिशों में रह गयी
शायद पता नहीं .....बहुत सुंदर रचना ......
अब तो केवल यादें हैं
ReplyDeleteउनके सिवा कुछ भी नहीं
वक़्त ने मुझको गुज़ारा
या मैंने वक़्त को -पता नहीं !
............... ये पता नहीं भी, कई बार अजीब सी कशमक़श में ला खड़ा करता है
बेहतरीन अभिव्यक्ति
रौशनी जब खिलती है ... सब को सामान ही मिलती है ...
ReplyDeleteमन की कशमकश को शब्द दिए हैं आपने ...
शब्दों का क्रम बरबस रोक सा लेता है.. फिर तो अर्थ और भी निखर जाता है..
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :- 21/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक - 47 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
पोस्ट के चयन के लिए आभार राजीवजी
Deleteपता नहीं...वाकई कितनी unpredictable होती हैं ज़िन्दगी....
ReplyDeleteसुन्दर रचना दी.
सादर
अनु
यादें हैं ये क्या कम है ... वर्ना तो जिंदगी में लाखों गम हैं..
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति.
उम्दा रचना
ReplyDeleteसुन्दर नवगीत ..
ReplyDeleteबहुत खूब !खूबसूरत रचना,। सुन्दर एहसास .
ReplyDeleteशुभकामनाएं.
bahut hi sundar rachna...............
ReplyDeleteऊहापोह में उलझी सी ज़िंदगी ..... कभी कभी किसी बात का कारण पता ही नहीं होता पर सहना पड़ता है ।
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