मैं कि अपनी
सोच ...
अपनी पहचान है ,
मैं चेतना का उद्गम
है
मैं अपने आप
में पूरा ब्रह्माण्ड
है -
इसके अपने नियम
अपनी परिभाषाएं हैं
अपने स्वप्न
अपनी अभिलाषाएं हैं -
मैं वह बीज
है
जो दुनिया का गरल
पी सकता है
मैं वह शक्ति
जो उसे भस्म
भी कर सकता
है -
मैं वह दीप
जो जलता है
कि अंधकार मिटे
मैं वह दम्भ
!
जो कायनात जलाके राख
करे -
मैं वह वज्र
जो घातक भी
है
रक्षक भी
मैं वह निमित्त
जो सृष्टि को गतिमान
करे !
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (23-11-2013) "क्या लिखते रहते हो यूँ ही" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1438” पर होगी.
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
हार्दिक आभार राजीवजी
Deleteबढ़िया -
ReplyDeleteआभार -
मैं वह निमित्त
ReplyDeleteजो सृष्टि को गतिमान करे
.............तभी तो
मैं जिंदगी बनता हर पल को जीता, सशक्त भावों का संगम
मैं से ही मेरा अस्तित्व ....सशक्त भाव सरस जी ....
ReplyDeleteमैं - अमृत भी पिलाता है .. अति सुन्दर कहा है..
ReplyDeleteकल 24/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
हार्दिक आभार यशवंत
Deleteक्या खूब लिखा है, अभी तक जूझ रहा हूँ अंतस मे चल रहे विस्फोटों से, यथार्थपरक एवं सटीक। हार्दिक बधाई ऐसी कालजयी रचना के लिये…
ReplyDeleteये मैं कम हो तो भी ठीक नहीं और ज्यादा हो तो भी अहितकर. यानि इसे उस महीन विभाजक रेखा पास ही रहना होता है. बस ये मैं कभी 'मय का रूप ना ले.' बहुत अर्थपूर्ण कविता. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteस्वयं के आस्तित्व को ढूँढती बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteअद्भुत भाव ..... बेहतरीन पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteमैं वज्र है तो घातक , आत्मोत्थान के लिए हो तो उत्तम !
ReplyDeleteकविता का दर्शन प्रभावित करता है !
सुन्दर भाव और मनोहारी शब्द।
ReplyDeleteबढ़िया रचना
ReplyDeleteमैं से ही संसार है ... मैं की माया नहीं तो ये संसार भी नहीं ...
ReplyDeleteमंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं
ReplyDeleteऔर वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं !!! .........
http://www.parikalpnaa.com/2013/11/blog-post_25.html
बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......
ReplyDeleteसुंदर!
ReplyDeleteमैं ही उद्धार है! मैं ही विनाश है!
~सादर
मैं को परिभाषित करती एक सुन्दर रचना |
ReplyDeleteवाकई यह "मैं" बहुत ज़रूरी है। यह न हो, तो शायद स्वाभिमान के साथ जीना भी संभव न होगा। और यदि वो ही न हुआ तो फिर इंसान, इंसान ही कहाँ रह जाता है। सार्थक भावाभिव्यक्ति...:)
ReplyDelete~सादर
सही कहा आपने . . .
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
मैं नहीं तो कुछ नहीं और यदि केवल मैं हो तो भी कुछ नहीं .... सुंदर ।
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