Thursday, November 21, 2013

मैं



मैं कि अपनी सोच ...
अपनी पहचान है ,
मैं चेतना का उद्गम है
मैं अपने आप में पूरा ब्रह्माण्ड है -
इसके अपने नियम
अपनी परिभाषाएं हैं
अपने स्वप्न
अपनी अभिलाषाएं हैं -
मैं वह बीज है
जो दुनिया का गरल पी सकता है
मैं वह शक्ति
जो उसे भस्म भी कर सकता है -
मैं वह दीप
जो जलता है कि अंधकार मिटे
मैं वह दम्भ !
जो कायनात जलाके राख करे -
मैं वह वज्र   
जो घातक  भी है
रक्षक भी
मैं वह निमित्त
जो सृष्टि को गतिमान करे !



26 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (23-11-2013) "क्या लिखते रहते हो यूँ ही" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1438” पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

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    1. हार्दिक आभार राजीवजी

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  2. मैं वह निमित्त
    जो सृष्टि को गतिमान करे
    .............तभी तो

    मैं जिंदगी बनता हर पल को जीता, सशक्‍त भावों का संगम

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  3. मैं से ही मेरा अस्तित्व ....सशक्त भाव सरस जी ....

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  4. मैं - अमृत भी पिलाता है .. अति सुन्दर कहा है..

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  5. कल 24/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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    1. हार्दिक आभार यशवंत

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  6. क्या खूब लिखा है, अभी तक जूझ रहा हूँ अंतस मे चल रहे विस्फोटों से, यथार्थपरक एवं सटीक। हार्दिक बधाई ऐसी कालजयी रचना के लिये…

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  7. ये मैं कम हो तो भी ठीक नहीं और ज्यादा हो तो भी अहितकर. यानि इसे उस महीन विभाजक रेखा पास ही रहना होता है. बस ये मैं कभी 'मय का रूप ना ले.' बहुत अर्थपूर्ण कविता. बहुत अच्छा लगा पढ़कर.

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  8. स्वयं के आस्तित्व को ढूँढती बेहतरीन रचना...

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  9. अद्भुत भाव ..... बेहतरीन पंक्तियाँ

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  10. बहुत सुन्दर भाव

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  11. मैं वज्र है तो घातक , आत्मोत्थान के लिए हो तो उत्तम !
    कविता का दर्शन प्रभावित करता है !

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  12. सुन्दर भाव और मनोहारी शब्द।

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  13. मैं से ही संसार है ... मैं की माया नहीं तो ये संसार भी नहीं ...

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  14. मंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं
    और वही निभते और निभाये जाते हैं !
    हम सब जानते हैं
    जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
    कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
    और इसे जानना समझना
    सहज और सरल नहीं ...
    सम्भव भी नहीं !!! .........
    http://www.parikalpnaa.com/2013/11/blog-post_25.html

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  15. बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है अपने......

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  16. सुंदर!
    मैं ही उद्धार है! मैं ही विनाश है!
    ~सादर

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  17. मैं को परिभाषित करती एक सुन्दर रचना |

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  18. वाकई यह "मैं" बहुत ज़रूरी है। यह न हो, तो शायद स्वाभिमान के साथ जीना भी संभव न होगा। और यदि वो ही न हुआ तो फिर इंसान, इंसान ही कहाँ रह जाता है। सार्थक भावाभिव्यक्ति...:)
    ~सादर

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  19. सही कहा आपने . . .
    शुभकामनायें !!

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  20. बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

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  21. मैं नहीं तो कुछ नहीं और यदि केवल मैं हो तो भी कुछ नहीं .... सुंदर ।

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