चश्मा -
बचपन की आदतें-
कभी नहीं भूलतीं -
रंग बिरंगे चश्मे आँखों पर चढ़ा -
कितनी शान से घूमते थे -
जिस रंग का चश्मा -
उसी रंग की दुनिया -
सब कुछ एक ही रंग में ढला हुआ
कितना दिलचस्प लगता .
आदतें आज भी नहीं बदलीं
आज भी दुनिया को उसी तरह देखते है -
आँखों पर -
प्रेम-
द्वेष -
पक्षपात का चश्मा लगाये -
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
विश्वास -
एक सुन्दर रिश्ता -
एक अदृश्य डोर-
जो बांधे रहती है -
एक शिशु को ...माता पिता की ऊँगली से -
एक पत्नी को समर्पण से -
एक भक्त को ईश्वर से -
एक योद्धा को अपने अस्त्र से-
इस सृष्टि को अपने नियमों से -
सदा......!
दोनों क्षणिकाये बहुत सुंदर .....सकारात्मक भाव देती हुई .....
ReplyDeleteचश्मा वाली क्षणिका बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर क्षणिकाएं ... चश्मे वाली सती लगी ...
ReplyDeleteदोनों क्षणिकाएं विस्तृत रूप से मुखरित ........आदतें और विश्वास - जाही रही भावना जैसी
ReplyDeleteसुंदर क्षणिकाएँ...
ReplyDeleteबचपन में अक्सर बड़ों वाला चश्मा भी लगाकर देखते थे... बड़ा बनने के लिए! ठीक उसी तरह.... बड़े होने के बाद कोई ऐसा चश्मा भी बना होता... जिसे पहनकर छोटे और मासूम बन जाते... काश....
~सादर!!!
सुन्दर .
ReplyDeleteजिस रंग का चश्मा
ReplyDeleteउसी रंग की दुनिया
अंतर्दृष्टि से उपजी सुंदर रचना।
बहुत ही सुन्दर लगी ।
ReplyDeleteचश्मा बहुत अच्छी लगी. बस एक फर्क है बचपन का चश्मा सबको दिखाने का मोह लिए होता था, और अब अद्रश्य चश्मा लगाये घुमते हैं :)
ReplyDeleteआँखों पर -
ReplyDeleteप्रेम-
द्वेष -
पक्षपात का चश्मा लगाये -
जितनी सरलता है शब्दों में उतनी ही विशालता अर्थ में
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
बहुत अच्छी क्षणिकाएं सरस जी....
ReplyDeleteदोनों ही लाजवाब.
सादर
अनु
सुंदर क्षणिकाएँ...लाजबाब सकारात्मक भाव लिए ,,,,
ReplyDeleteRECENT POST शहीदों की याद में,
बहुत खुबसूरत क्षणिकाएं - सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteNew postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
New post तुम ही हो दामिनी।
दोनों ही सुंदर क्षणिकाएँ...
ReplyDeleteजीवन का सार-सत्य..अति सुन्दरता से कह दिया.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी दोनों क्षणिकाएं.
ReplyDeleteअब ऐसे चश्मे चढ़े हैं जिनमें दुनिया भद्दी लगने लगी है अथवा दुनिया का भद्दापन ही भाने लगा है। सुंदर क्षणिका
ReplyDeleteएक सुन्दर रिश्ता -
ReplyDeleteएक अदृश्य डोर-
जो बांधे रहती है -
एक शिशु को ...माता पिता की ऊँगली से -
एक पत्नी को समर्पण से -
एक भक्त को ईश्वर से -
एक योद्धा को अपने अस्त्र से-
इस सृष्टि को अपने नियमों से -
सदा......!
आपका चश्मा आपका व्यक्तित्व की कहानी कह रहा है रिश्ते ईश्वर की दें हैं जहाँ हम जीते हैं अपनी समग्रता से .
सदा की भांति खुबसूरत भाव दिल के आर पार
जीवन के सही रूप को दर्शाती
ReplyDeleteबहुत कहीं गहरे तक उतरती कविता ------बधाई
जितनी तरह के लोग उतनी तरह की सोच और चिंतन। सुंदर अभिव्यक्ति सरस जी।
ReplyDeleteदोनों क्षणिकाएं लाजवाब ... विश्वास की कच्ची डोर यूं ही बनी रहे ...
ReplyDeleteमन को छू लेने वाली रचना है, और भी ऐसी ही रचनाओं की इंतज़ार रहेगी |
ReplyDeleteLazabaab...
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post.html
आँखों पर -
ReplyDeleteप्रेम-
द्वेष -
पक्षपात का चश्मा लगाये -
और रिश्तों को उसी रंग में ढला पाते हैं ...!
कितना सही लिखा है, दोनों ही क्षणिकाएं बहुत ही सार्थक हैं।
कितनी गहन बात कही है सरस जी... समय के साथ दुनिया को देखेने का नजरिया बदल जाता है.. बहुत सुन्दर क्षणिका!
ReplyDeletebahut hi sunder baat kahi
ReplyDeleteगुज़ारिश : ''..महाकुंभ..''