'पुत्रवती भव'
रोम रोम हर्षित हुआ था -
जब घर के बड़ों ने -
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था -
कोख में आते ही -
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने ...
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ......
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था -
लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
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आज.....
तूने ...मेरी झोली भर दी !
शर्म से...
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं ...
उस धिक्कार से -
जो हर आत्मा से निकल रही है ...
उस व्यथा से -
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है ...
उन बददुआओंसे -
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ....!
मैंने तो इक इंसान जना था -
फिर - यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू ...
आज मेरी झोली में
नफरत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है -
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे -
वही बददुआ बन गया !
तूने सिर्फ मुझे नहीं -
' माँ' - शब्द को शर्मसार किया .....
एक एक शब्द सत्य, मार्मिक रचना आदरणीया हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआज मेरी झोली में
ReplyDeleteनफरत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है -
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे -
वही बददुआ बन गया !
तूने सिर्फ मुझे नहीं -
' माँ' - शब्द को शर्मसार किया .....
ऐसा हो जाता है किसी एक द्वारा दी गई पीड़ा बरसों बरस आनेवाली पीढ़ी को झेलनी पड़ती है। आपकी रचना सदैव मुल्य परक बनी रहती है
बहुत अच्छा लिखा है आपने. उन दरिंदों की माँ के ह्रदय से भी यही आवाज़ आई होगी आखिर माँ तो माँ है. माँ का कोई दोष नहीं. दोष तो हमारा है जो उसकी गोद से निकलते ही आवारा हुए जाते हैं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, क्या बात
ReplyDeleteबाँध टूट जाये ....... वैसी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteबढ़िया विषय |
शुभकामनायें आदरेया ||
सच कितना शर्मिंदा जीवन होता है उस माँ का जिनके बच्चे इस राह चल पड़ते है
ReplyDeleteअच्छी रचना
गल्ती बेटा करता है,शर्मसार "माँ" को होना पड़ता है...
ReplyDeleterecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
बहुत सशक्त और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDelete✿♥❀♥❁•*¨✿❀❁•*¨✫♥
♥सादर वंदे मातरम् !♥
♥✫¨*•❁❀✿¨*•❁♥❀♥✿
मैंने तो इक इंसान जना था -
फिर - यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू ...
आज मेरी झोली में
नफरत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है -
तड़प है-
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे -
वही बददुआ बन गया !
तूने सिर्फ मुझे नहीं -
'माँ' - शब्द को शर्मसार किया .....
आऽऽह !
मर्म की पराकाष्ठा को छू रही है आपकी पंक्तियां ।
निःसंदेह जिस मां का बेटा निकृष्ट घिनौना अपराधी हो गया हो , उस मां के हृदय से ऐसी ही चीत्कार और ग्लानि फूट पड़ती होगी ...
आदरणीया सारस जी
प्रणाम !
दुर्योगवश अपराधी बन बैठे बेटे की जन्मदात्री माता के हृदय की पीड़ा को आपने हृदय बेध देने वाले शब्द दिए हैं ...
अवश्य ही आपकी रचना पढ़ने वाले नौजवानों को, उनसे अनजाने में भी अपराध न हो जाए , इसके लिए सचेष्ट रहने में मदद और दिशा मिलेगी ।
आवश्यकता है समाज को ऐसे लेखन की !
हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !
राजेन्द्र स्वर्णकार
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मार्मिक ... सत्य है की वो भी नारी ही है जिसने उसे जनम दिया ... उस नारी के मन को कौन समझ रहा होगा ... उसकी आत्मग्लानी तो दुगनी होगी ...
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक रचना।नालायक,वहसी पूत के कारनामे से एक माँ के दिल पर क्या बीत रही होगी यह वो माँ ही जानती है।
ReplyDeleteमाँ से पहले नारी!
ReplyDeleteसार्थक चिंतन!
ढ़
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थर्टीन रेज़ोल्युशंस!!!
सार्थक पोस्ट ।
ReplyDeleteरचना की अंतिम पंक्तियां ... भावमय करती हुई
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन
सादर
भावमय करती हुई मार्मिक रचना ...आभार..
ReplyDeleteअनोखी और अलबेली कविता |आभार
ReplyDeleteaapne to mano meri soch ko shabd de diya ho .bahut sunder likha hai
ReplyDeleterachana
पर हर पुरुष को दोषी मान लेना ....ये सही नहीं है
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