Saturday, February 4, 2012

खोज

शाख के उस एक पत्ते पर शेष बचा वह जलबिंदु
अब भी झूल रहा है, गिरकर बिखरने का डर उसे नहीं,
उसे बचाओ...अंतर की चीख सुन ,
एक ऊँगली का सहारा दे, प्रकाश स्त्रोत के समक्ष
नेत्रों के धरातल पर रख देती हूँ -
देखती हूँ,
स्त्रोत से फूटी किरनें, बिंदु से उनका टकराव-
फिर चारों ओर छितरे, असंख्य प्रकाश कण !

बिंदु एकाग्र है !
ऐसी ही किरणों से टकरा, असंख्य बिंदु शाख से टपक
घास पर बिछे हैं, गीली ज़मीन पर चू पड़ने के लिए-
केवल यह बिंदु जीता है .


बिंदु का हृदय बींधते सात रंग, थिरक रहे हैं उंगलिओं के कम्पन से -
कम्पन बढ़ता है, वह पोर से ढुलक,
 हथेलियों को चीरता हुआ ,
ज़मीन पर चू पड़ता है, एक धारा बन -
मैले हाथों पर बनी एक लकीर- उसके अस्तित्व का अवशेष.
कहाँ खो गया है वह, जिसे आज भी
उन असंख्य बिन्दुओं के बीच ढूंढ रही हूँ

2 comments:

  1. कहाँ खो गया है वह, जिसे आज भी
    उन असंख्य बिन्दुओं के बीच ढूंढ रही हूँ
    बहुत गहन सारगर्भित प्रस्तुति...आभार

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  2. अति उत्तम पुनः तुम्हारी श्रेस्ठ रचना के आगे नतमस्तक हूँ मित्र...!
    ह्रदय से आभार है तुम्हरा हम सब को अपनी ज्ञान गंगा से स्नान करने का!
    गूढ़ शब्दों का अर्थ भरा प्रयोग करना तुम्हारी काबिलियत है भाषा की पकड़ भी बहुत खूब है जितनी तारीफ की जाये कम है..!

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