आज मैं आज़ाद हूँ -मौसम के थपेड़े झेलने के लिए -जंगली जानवरों द्वारा नोचे जाने के लिए -या फिर किसी नदी नाले की मैली धारा में बह जाने के लिए -
मैं आज़ाद हूँ -
आज़ाद हूँ अपनी माँ की कोख से...एक अजन्मे के लिए सबसे महफूज़, सबसे सुरक्षित जगह- जहाँ वह निश्चिन्त ...ऑंखें मूंदे पड़ा रहता है - दुनिया के छल-कपट से बेखबर, दुनिया के दुःख दर्द से दूर , हर डर से परे आज मैं आज़ाद हूँ उसी कोख से जो मेरे लिए कभी थी ही नहीं ....
मेरे माता पिता एक बेटा चाहते थे, उन्ही अनगिनत लोगों की तरह बेटी जिनके लिए बोझ है- एक दु:स्वप्न , एक ज़िम्मेदारी, क़र्ज़ का पिटारा -एक अभिशाप !
तभी तो मुझ जैसी न जाने कितनी हैं त्यक्त ! अभिशप्त !!
मेरे पिता भी एक बेटा चाहते थे ...दो बेटियों के बाद एक और बेटी का 'लांछन' उन्हें मंज़ूर नहीं था .
"लोग क्या कहेंगे?"
उन्होंने लोगों की परवाह की....और एक डॉक्टर से मिलकर मुझे निकाल फेंकनें का निश्चय कर लिया .
वह रात बहुत भयावह थी ...चारों तरफ घुप्प अँधेरा .
तेज़ आंधी तूफ़ान से खिड़की दरवाज़े बेकाबू हो रहे थे .बारिश की बौछारें भालों की तरह चुभ रही थीं .
आसमान फटा जा रहा था -मानो सारी सृष्टि इस विनाश से रुष्ट हो . एक प्रकोप की तरह बिजली कड़कती और गडगडाहट से माँ की चीख दब जाती .
मेरी माँ दर्द से तड़प रही थी . डॉक्टर का दिया हुआ इंजेक्शन काम कर रहा था -
सारा पानी 'मेरा सुरक्षा कवच' बह गया था, और साथ ही बह गयीं थीं, मेरे जीने की सारी उम्मीदें .
मैं रह रहकर माँ की कोख में लोटती रही और माँ खून पानी में सनी -बिस्तर पर पड़ी तड़पती रही. और पिताजी ...हम दोनों की दशा देख दूर खड़े कसमसाते रहे. माँ हर बार जोर लगाकर मुझे निकालना चाहती , और मैं हर प्रयास के साथ उनके सीने मैं और दुबकती जाती.
माँ दो ढाई घंटे कोशिश करती रहीं और थक कर चूर हो गयीं-उनकी हिम्मत टूट चुकी थी लेकिन मैंने उन्हें कसकर भींच लिया था ...मैं बहार नहीं जाना चाहती थी.
तभी अचानक माँ ने बैठकर जोर लगाया, चौंककर मैं सहारे के लिए लपकी, लेकिन तभी फिसलकर बहार आ गयी....सब कुछ ख़त्म हो गया .
माँ को देखा वह मुझसे मुंह छिपा रही थीं...उन्हें अपनेसे ग्लानि हो रही थी..वह मुझसे आँख मिलाकर कभी अपने आपसे आँख नहीं मिला पातीं..
उन्होंने मुझे नहीं देखा -उन्हें डर था वे अपनी ममता को नहीं रोक पाएंगी.लेकिन मैंने माँ का चेहरा देखा था. अनगिनत भाव थे उनकी आँखों में.मैंने तैरते हुए आँसुओं में उन्हें देखा था ..पहचाना था . उन में परिस्तिथियों से न लड़ पाने की असह्याता थी , ऐसा कुकर्म करने का दुःख, पीड़ा ,ग्लानि और शर्म थी, अपने अंश को अपने से अलग कर देने की विवशता थी. मुँह फेरकर माँ ने उन सभी भावों को मुझसे छिपाना चाहा था.
फिर नर्सने मुझे एक कपडे में लपेटकर पिताजी को सौंप दिया,"इसे ले जाईये ".
पिताजी की नज़र ज़मीन पर गढ़ी थी...गर्दन ग्लानी के बोझ से झुकी हुई.उन्होंने नर्सकी तरफ बगैर देखे ही मुझे ले लिया . झुकी हुई नज़रों में थी वह पीड़ा जो उन्हें मुझे ले जाते हुए हो रही थी....उन्होंने भी मेरी तरफ नहीं देखा .
उस रात जब पिताजी मुझे सीने से लगाये उस पुल पर खड़े थे , मैंने उनका चेहरा गौर से पढ़ा. वह बुरी तरह भीगा हुआ था ...बारिश से कम आंसुओं से ज्यादा....वे बुदबुदा रहे थे ...
"इश्वर हमें क्षमा करना, हमसे यह भूल कैसे हो गयी.कितना बड़ा पाप किया है मैंने . एक पिता होकर इतना घिनोना कृत्य.मैं एक पिता कहलाने लायक नहीं. इस पापसे मैं कैसे उबर पाऊंगा. प्रभु मैंने पाप किया है , मुझे प्रायश्चित करने का एक मौका और दे दो. "
पिताजी मुझे अपने सीनेसे लगाकर फूट फूटकर रो रहे थे और मैं महसूस कर रही थी उस दर्द को . पिताजी ने आखरी बार मुझे गले से लगाया और आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा ."इश्वर मैं उसे तुम्हारे संरक्षण में भेज रहा हूँ....इसकी रक्षा करना और इसे मेरी ही बेटी बनाकर मेरे पास फिर भेजना, यही मेरा प्रायश्चित होगा."
पिताजी का यह आर्तनाद मैं सुनती रही ..और उन्होंने मुझे उफनती नदी के सुपुर्द कर दिया ...
उस आंधी तूफ़ान में वह लहरें मुझे झुलातीं रहीं. मन शांत था . माँ पिताजी के प्रति सारा द्वेष धुल चुका था. मैं धीरे धीरे नदी के तल पर पहुँच गयी. मन में बस एक ही विचार था." हाँ पिताजी मैं आप ही के पास आऊँगी."
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दो साल बाद माँ की गोद हरी हुई .वही चिर परिचित कोख . कितना सुकून कितनी शान्ति , कितना अपनापन था यहाँ. हर डर से बेखबर, हर खतरे से महफूज़, मैं बहार आने का इंतज़ार कर रही थी. माँ जब प्यार से मुझे सहलातीं बाबूजी स्पर्श करते तो लगता "कितना सहा है मैंने , इस एक स्पर्श के लिए अब और कितना इंतज़ार करना होगा मुझे ?"
वह दिन भी आ गया. माँ बाबूजी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था.वे मुझे चूमते जाते और इश्वर को धन्यवाद देते जाते . पिताजी प्यार से झिड़कते ,"तुम्हे तो मैं फेक आया था , तुम फिर आ गयीं."
और इस झिडकी में छिपी ख़ुशी, तृप्ति उनके चेहरेसे अविरल बहती रहती".
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आज मैं १९ साल की हो चुकी हूँ . इन्जीनेरिंग कॉलेज मैं पढ़ रही हूँ.पिताजी कहते हैं मैं उनकी सबसे मज़बूत बेटी हूँ, ढृढ़निश्चयी , इरादों और उसूलों की पक्की , उनकी सबसे प्रिय.
काश सब मेरे पिता जैसे होते . अपनी भूलोंसे कुछ सीखते, दूसरों को वही भूल करने से रोकते , बेटियों की अहमियत को समझते...तब न जाने कितनी ही 'अजन्मी 'आज अपने माता पिता का अभिमान होती ....अभिशाप नहीं !
आज मेरे हिस्से की धूप मेरे पास है, मेरे साथ है - है न ?
ReplyDeleteशत प्रतिशत!!!!!
Deletesaras ji aap mujhe nahin jaanti aur na hi main aapko ... par aapki is kriti ne ek setu banaya hai hum dono ke beech haan itni sashakt hai aapki lekhani....is kriti ke andar tak hila diya hai bilkul main sachmuch ro rahi hoon haath kaamp rahe hain aur dil ki dhadkan tej hai ..jyada kuch likh nahin sakungi aap bus meri ankahi ko samjhen aur mera pranaam kubool karen ..saadar charan sparsh aapko bilkul dil se !!!
Deleteमार्मिक...
ReplyDeleteआँखें नम हो आयीं सरस जी...
आभार विद्याजी !
Deleteसरस जी, क्या कहूं। निरुत्तर हूं। आंखे भिगो देने वाली प्रस्तुति। जो कन्या भ्रूण हत्या करने जा रहा हो, एक बार पढ़ ले इसे, वापस लौट आएगा इसकी गारंटी है।
ReplyDeleteअगर ऐसा वास्तव में हो जाये तो लेखन सार्थक हो जाये लोकेंद्रजी!!!
Deleteहृदयस्पर्शी पोस्ट ...काश ऐसा ही हो.....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक ...सार्थक संदेश देती कहानी ....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
It was my pleasure!
Deleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .
हृदयस्पर्शी,सार्थक संदेश देती कहानी है,सरस जी...
ReplyDeleteThanks a lot Avantiji!!!!!
Deletevery heart touching poem..
ReplyDeletevery beautiful.......saras ji
बहुत संवेदनशील रचना निशब्द कर दिया आपने, आपकी सोंच और लेखनी को नमन
ReplyDeleteमन को भिगो गयी ये पोस्ट अंदर तक ..
ReplyDeleteशब्द इतने सशक्त - प्रतीति इतनि गहन - विडम्बना इतनी विचित्र!
ReplyDeleteशायद सरस जी प्रतिभा इतनी मुखर हो सकती थी।
पिता के तौर पर कह सकता हूं - दीवाने थे मेरे पिता जब पांच बेटों के बाद एक बॆटी घर में आई। अनूठा जश्न मनाया गया। वह भी प्रभु धम चली गई। घर का रुदन आज भी अंतर भिगो जाता है। फिर और दो बेटियां घर में आईं। घर सम्पूर्ण हुआ। मैं भी बेटियों के लिए कितना आग्रही रहा हूं और अब उन पर कितना नाज़ है मुझे!
भ्रूण-हत्या एक अंधे-युग का प्रमाण है।
बहुत ही मार्मिक रचना है..
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी
कल 03/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
समाज की विकृत सोच को झकझोरने में सक्षम सुंदर रचना.
ReplyDeleteक्या कहें अजन्मी का दर्द....मार्मिक प्रस्तुति....इस मानसिक कुंठा से समाज का बाहर निकलना बहुत जरुरी है....
ReplyDeleteकाश लोग अपने अन्तर की आवाज पर विवशताओ को हाबी न होनें दे
ReplyDeleteसरस जी आपके शिल्प से घण्टो बाते करू
आपकी अजन्मी का दर्द....मार्मिक प्रस्तुति ..... दिल को छू गयी सरस जी !
ReplyDeleteडॉ सरस्वती माथुर