आंसूओंसे अजीबसा रिश्ता कैसा
मेरी हर आह से बेसाख्ता जुड़े रहते हैं
ज़रा सी टीस दरीचोंसे झांकती है जब
मरहम बन उसे ढकने को निकल पड़ते हैं....
जब कभी चाहूँ मैं रोकना पीना उनको
हर हरी चोट को नासूर बना देते हैं...
जमकर बर्फ हो गए सर्द लम्हों को
अपनी बेबाक तपिश्से जिला देते हैं....
फिर तड़प का वही सिलसिला रवां करके
किसी मासूम की आँखों से ताकते मुझको -
मानो मेरा दर्द और तखलीफ़ देखकर वह-
कुछ शर्मसारसे निगाहों को झुका लेते हैं.
बहुत सुन्दर रचना तमाम भावनाओं को समेटे हुए..
ReplyDeleteआज पहली बार आना हुआ ब्लॉग पर
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