जानती हूँ, हमारे जीवन में समय का बड़ा अभाव है, फिरभी सोचा मन की यह बात आप सबसे 'शेयर ' करूं.
आज अचानक सहजन के पेड़ पर दृष्टि पड़ी, डालिओं की फुनगियों पर छोटे छोटे सफ़ेद फूलों का झुण्ड नज़र आया: तारीख पर ध्यान दिया ...ठीक तो है -इसी सर्दी के रेले के बाद मौसम बदलने लगेगा.
जब मौसम बदलता है -ग्रीष्म ऋतु ड्योढ़ी पर खड़ी होती है तभी सहजन लहलहाता है . आश्चर्य होता है 'कभी प्रकृति से चूक क्यों नहीं होती?' . वह कैसे जान जाती है की यही सही समय है. हमारी बगिया में कई मौसमी फूल खिलते हैं- और फिर मुरझाकर धरती के गर्भ में छिप जाते हैं. सूखे पेड़ फ़ेंक दिए जाते हैं और उनके बीज धरती के सीने में दुबक जाते हैं. लेकिन फिर जब उनका मौसम आता है तो नन्हे नन्हे पौधे- सर उचका उचकाकर अपने होने का अहसास दिलाते हैं. उन्हें कैसे पता चल जाता है, की अब उन्हें खिलना है...अब मौसम उनके अनुकूल है ? सचमें आश्चार्य होता है ....
हम इंसान इतने बुद्धिमान हैं, इतनी तरक्की की है, लेकिन हम इतनी सहज सरल बातें नहीं समझ पाते- शायद जीवन में ऊपर उठते उठते हम इतने ज्यादा अपनी मिट्टी से दूर हो गए हैं की उस संवेदना को ...जो इस मिट्टी का स्पर्श हममें भर देती है- हम महसूस ही नहीं कर पाते. उसकी उष्णता, उसकी ठंडक हमें अभिभूत नहीं कर पाती -उसकी सहजता , सरलता हमें छू नहीं पाती.
हम इतने जटिल हो गए हैं की आसपास के चेहरों को साफ़ साफ़ नहीं पढ़ पाते - भावनाओं को भी नहीं समझ पाते.. एक दूसरे से कटे हम छोटी छोटी सच्चाईयोंसे से भी दूर हो गए हैं...वह सच्चाई जो प्रकृति में है- जिसकी वजहसे सब कुछ सही समय पर, कितनी सादगी, सरलता से होता है.
काश के हमारे रिश्ते भी उतने ही सरल होते, जब हम जानते की सामने वाला व्यक्ति जो कह रहा है, वही उसका तात्पर्य है- जब हमें संवादों में छिपे अर्थों को न टटोलना पड़ता...जब मन निश्चल निष्कपट होता....जब हमें किसीकी तरफ पीठ करने में डर न लगता वरन विश्वास होता, की मेरे पीछे खड़ा व्यक्ति मुझे गिरने से बचाएगा.
वह विश्वास उस बच्चे में होता है जो भीड़ में अपने पिता की ऊँगली थामे रहता है -जानता है ज़रा सी ठोकर लगी तो वे उचका लेंगे.
अगर भावनाओं में वह निश्चलता होती तो सीमाओं पर पहरे न होते , भाई चारा होता, विश्वास होता, अमन होता और लोग प्रकृति की गोद में चैन की नींद सोते और वह उसे दुलारती.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ....मनुष्य अपनी उड़ान के मद में प्रकृतिसे कोसों दूर हो गया ...उसने उसके नियमोंको तोडना शुरू कर दिया...सागर को पाटना शुरू कर दिया, जंगलोंको काटना शुरू कर दिया. उसने भू-गर्भ में भी अति-क्रमण किया.
प्रकृतीने फिर भी अपना नियम नहीं तोडा. पानी का धर्म है बहना....और पाटा जाने पर सागर सड़कों पर बह निकला ...घरों में घुस गया ...शहर डूब गए .....मनुष्य त्राहि माम कह उठा.
पेड़ों का काम था वातावरण का अनुपात बनाये रखना. जंगल कटते गए ..अनुपात बिगड़ता गया. वर्षा के बादल पेड़ों की तलाश में बढ़ते गए और किसान टकटकी लगाये देखते रहे. वायु दूषित होती गयी क्योंकि मशीन और वाहन की घुटन को आत्मसात करने वाले जीवनदायी वृक्ष कट चुके थे.
मानव फिर भी नहीं चेता. जल की आपूर्ति के लिए उसने धरती का सीना भेदा ....एक और नियम का उल्लंघन. नतीजा? ... जलस्तर गिरने लगा...धरती का पानी सूखने लगा!
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जो प्रकृति के करीब थे....जिन्होंने उसके नियमों को समझा था...उसकी रक्षा का बीड़ा उठाया था. वे जानते थे प्रकृति केवल अपने नियमों का पालन करती है ....जो शाश्वत होते हैं !
अग्नि का नियम है- जलना और जलना
जल का नियम है - बहना और बहाना
फूलों का नियम - खिलना और मुरझा जाना
फलों का नियम- पकना और चू जाना .
प्रकृति अपने नियमों का पालन अन्नतकाल से करती आई है...करती रहेगी-
क्यों न हम 'उन' लोगों में शामिल हो जायें और इस वरदान को अभिशाप बनने से रोकें.