Saturday, March 31, 2012

विषमता










ज़िन्दगी -
एक रुंधे गले सी !
टहलती हूँ तो वे यादें...
बैठती हूँ तो वे क्षण ...
सोचती हूँ तो वे तकलीफें
मेरे इर्द-गिर्द एक गुंजलक बना जाती हैं
इनसे मुक्त होने की चेष्टा में,
और अधिक जकड जाती हूँ गहरी डूबती जाती हूँ ...
फिर तुम-
तुम मुझे तार तो सकते नहीं
फिर क्यों डुबोने के प्रयास में जुटे रहते हो ?
सहारा दो -
क्या इसके लिए भी कहना पड़ेगा...
सोच क्या रहे हो ?
तोड़ दो यह गुंजलक
एक बार फिर ...
वही स्पर्श दोहराओ,
जिसे मैं भूलती जा रही हूँ !

Wednesday, March 28, 2012

रिश्ता...






आंसूओसे यह अजीबसा रिश्ता कैसा -
मेरी हर आह्से बेसाख्ता जुड़े रहते हैं
ज़रा सी टीस दरीचोंसे झांकती है जब
मरहम बनकर उसे ढकने को निकल पड़ते हैं...
जब कभी चाहूं मैं रोकना पीना उनको-
हर हरी चोट को नासूर बना देते हैं -
जमकर बर्फ हो गए उन लम्होंको -
अपनी बेबाक तपिशसे जिला देते हैं ...
फिर तड़प का वही सिलसिला रवां करके
किसी मासूम की आँखों से ताकते मुझको-
मानो मेरा दर्द, मेरी तकलीफ़ देखकर वह -
कुछ शर्मसार से निगाहोंको झुका लेते हैं.

Saturday, March 24, 2012

ज़िन्दगी /मौत




कभी कभी विचलित मन:स्तिथि और अवरुद्ध कंठ से निकलते निकलते परिभाषाएं बदल जाती है ....
ऐसे ही एक पल की सोच ...

ज़िन्दगी

एक अँधा कुआँ -
जिसमें चीखनेवाले कि आवाज़
पलटकर नहीं लौटती -
वह राह-
जहाँ तपते पथरों और पिघलते कोलतार के दरिया  हैं -
वह सफ़र-
जिसे तनहा ही काटना है
वह जुआ -
जिसे हारते हुए भी खेलते जाना है
वह नदी
जिसमें तैरा नहीं जाता ..सिर्फ बहा जाता है
वह पहेली -
जिसके अनेक जवाब हैं ...सब सही !
वह अभिशाप-
जिससे सब ग्रस्त हैं
वह नेयमत-
जो मांगनेसे नहीं मिलती
वह विडम्बना -
जिससे झूझते जाना है  
वह नेत्र -
जो हर आशा को ध्वस्त कर दे
वह तमपुन्ज-
जहाँ कष्ट, मृत्यु, भय पनपते हैं
वह आकर्षण-
जिसे सब अपनाना चाहें
वह त्रासदी -
जिससे कोई मुक्ति नहीं ....
......फिर भी ज़िन्दगी कहलाती है

और मौत !

कितनी सुन्दर शांत और स्थिर
माँ की गोद की तरह
उन थपकियों की तरह -
जो हर थकान को, निचोड़ फ़ेंक दे
उस लोरी की तरह -
जो विचलित मन को शांत कर दे
वह राहत-
जो जलती चोट पर , पानी की सी ठंडक पहुंचा दे
वह टिमटिमाती रौशनी -
जो हर ठोकर से बचा ले
वह खूबसूरत चाँद -
जिसकी चांदनी में शिथिल पड़ा शरीर
सभी सुख सुख से परे हो जाये -

-तकलीफों की एक सुन्दर इति -  




Wednesday, March 21, 2012

...और विश्वास टूट गया !





राह पर मैं अन्मनीसी चल रही थी...
एक दिन .
बिखरे पड़े पत्थरों  से एक  पत्थर लिया बिन,
घर ला उसे पूजा देवता माना...
दीवानी थी निर्बल को सबल माना ...
बहुत उम्मीद और आशाएं थी बंधी उससे...
यही मेरा साथी...
यही राह......
यही मंजिल होगी
सुख में....दुःख में... जीवन के हर आते पल में ,
मेरी उम्मीद की आखरी किरण होगी ...
फिर एक बार...
वह दिन भी आया ,
पुकारा अपने वांछित भगवन को ......
......कोई होता तो सुनता !!
मूरत की जगह एक कंकर पाया,
खुद को असहाय ...अकेला पाया..
नाथ लुप्त थे ,
शेष थी उस निर्बल पत्थर की ही काया.
और फिर बहुत रोई ..पछताई ...
वह पत्थर फिर वहीँ छोड़ आयी .
अब वही मैं हूँ,
वही राह,
वही पत्थर ढेरों......
बस वह श्रद्धा नहीं ,
शेष है तो एक विश्वास टूटा!!!!!!!

Monday, March 19, 2012

अंत ...





दमित इच्छाओं का बोझ ढोता,
थकान निचोड़ फेकने की आशा लिए ,
-वह!!!
उस सुर्ख कालीन की और बढ़ता जा रहा है.
क़दमों के बोझ से दबे कालीन को -
कीमती करार दे-
वह उसके बीचों बीच जा लेटता है.
'दलदल' पर बिछा वह कालीन -
धंसने लगता है.
निरंतर धंसते कालीन पर छाया मटमैलापन
अब उससे छिप नहीं पाता
लेकिन...
उस अहसास को जी लेने की लालसा
उसे बांधे रहती है.
धीरे धीरे कालीन गुम हो जाता है
और आँखों में भर जाती है
दलदल की कालीख!!!!!

Friday, March 16, 2012

....एक ख़त ....बिटिया के नाम !



आज भी याद है मझे वह दिन -
जब मेरी कल्पना को एक रूप मिला था ....तुम्हारे रूप में -
जब पहली बार नर्स ने तुम्हे मेरे पास लिटाया था -
एक अनोखे उत्साहने घेर लिया था तब -
यह मेरे ही शरीर का हिस्सा है ...मुझसे बना , मेरा अंश !
जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था .

तुम बगल में लेटीं, इस नई दुनिया को निहार रही थीं
'आहा..आहा '
यह स्वर तुम्हारे कंठ से -किसी घुंघरू की खनक से लग रहे थे 
वह पल-
वहीँ ठहर गया-
एक तस्वीर की तरह जड़ गया..

२३ साल बीत गए -
कुछ ही महीनों में तुम्हारा विवाह है .
इन गुज़रे सालों में तुम , मेरा हिस्सा थीं ...
जैसे किसी पेंटिंग में बक ग्राउंड - जिसके बिना पेंटिंग अधूरी है
और होती भी क्यों नहीं ....
तुम मेरे ही बताये रंग पहचानती थीं -
मेरे ही बताये रंग भरती थीं ...

फिर एक दिन मैंने कुछ नए रंग देखे -
वे रंग जो मैंने तुम्हे नहीं दिखाए थे-

धीरे धीरे वही रंग तुम्हारी ज़िन्दगी बन गए
मेरे रंग धुंधले.....
जिन्हें देखकर तुम बड़ी हुई थीं .

उन रंगों का धुंधला होना , तुमसे देखा नहीं गया-
तुम्हे वे भी प्रिय थे , जैसे मैं थी .
तुमने आहिस्ता आहिस्ता उन रंगों में अपनी छठा मिलाकर , दोबारा रंग दिया
ब्रश के हर स्ट्रोक के साथ मुझे अहसास होता गया ...की रंग बिलकुल बदल चुके हैं -
-शायद यही जीवन का सच है -

बच्ची मेरी -
मैं तो चाहूंगी तुम हमेशा खुश रहो -
तुम्हारा जीवन साथी तुम्हे इतना प्यार दे -
की तुम्हे -
माँ के बताये रंग  न ढूँढने पड़ें .
जीवन में नयी नयी तसवीरें बनाओ -
उनमें नए रंग भरो-
और फिर जब अपने बगल में एक प्यारिसी नन्हीसी जान को देखकर भरमाओ-
तो उसे उसे भी उन रंगों से मिलाओ -
जो तुम्हारा सच हैं ....


और हमें  इस सच को स्वीकारना है . जब जब बच्चों के जीवन में कोई नया प्रवेश करता है, तो वही सबसे  महत्वपूर्ण हो जाता है. तब हमारी बातें, हमारे संस्कार ,हमारे विचार  कम महत्वपूर्ण हो जाते हैं.  लेकिन फिर ...हम बच्चों की ख़ुशी की दुहाई देकर संतोष कर लेते हैं .

 

Thursday, March 15, 2012

रिश्ते

नए चेहरे -
नए लोग-
नए नाम-
लेकिन घूम फिरकर वही सम्बन्ध,
जो चेहरों पर चिपक गए हैं
हमारे बर्ताव बन गए हैं -
फिर ऐसे संबंधों को
जीता रखने में
सबके योगदान का हिसाब क्यों?
वह तो स्वार्थ पर निर्भर है,
जो जंगली घास की तरह,
हर जगह फूट पड़ता है.
माँ भी तो बच्चे से मुआवजा मांगती है
कुंती ने भी कुछ ऐसा ही किया था...
फिर यह तो सम्बोधान्मात्र हैं .
पर हाँ ....
अपने ही जाये यह सम्बन्ध
कुछ क्षण तो देते हैं ..
जिनकी बुनियाद पर --
फिर नए सम्बन्ध जन्म ले लेते हैं.

Monday, March 12, 2012

तलाश



हम दोनों के बीच,
- यह मौन-
क्या तोडा नहीं जा सकता?
क्या शब्दों के वे सारे सेतु
जो हमें कल तक बांधे थे,
-टूट गए ?

याद है वह जगह
जहांसे कई झरने फूटे
और समंदर में खो गए -
वह झरने जो आसपास के लोगों को भी बहा ले जाते!

अब हैं
शून्य में गढ़ी चार आंखें
चार अनजान हाथ !
तुम्हारे इन्ही हाथों के स्पर्श से,
 असंख्य सितार बज उठते
तुम्हारे करीब बैठी,
सिगरेट के धुंए में नित नए आकर खोजती!
वे सुरीले क्षण अब नहीं सधते-
क्यों न हम-
 इस जड़ता, इस मौन को परे धकेल,
नए शब्दों,
नए संबोधनों की तलाश करें,
फिर एक,
नया सेतु ही क्यों न बनान पड़े!

Saturday, March 10, 2012

मन..


रे मन तू तो एक तितली है,
कब किसके हाथ है आ पाया ...
किसने जानी महिमा तेरी ,
कौन है तुझको समझ पाया...
पल भर में सागर लांघ के तू,
है क्षितिज पार पहुँच जाता ..
और स्पर्श उसे कर , झट से तू
कल्पना में मेरी समां जाता ...
फिर नभ में दूर उड़ते पंछी-
के पंखों को जा सहला आता ...
और भीगे बादल का एक टुकड़ा
कन्धों पर मेरे रख जाता .
हे रंगों की प्रतिमा फिरसे
एक और भ्रमण करके आओ
कोयल की बोली...
भ्रमरों के गीत ...
का अर्थ मुझे समझा जाओ !!!

Monday, March 5, 2012

मन वृन्दावन!



अगहन की बिखरी दोपहर में
लॉन में कुर्सी डाले बैठी हूँ ....
मुलायम धूप का अनुभव
कमरे से आती जलती अगरबत्ती की खुशबू -
सब मुझे छूकर गुज़रते जा रहे हैं
                                                                                   
लहलहाते सुरु की सबसे ऊँची डालपर-
 बैठी एक चिड़िया,
                झोके खा रही है
-शायद यही उसका स्वर्ग है !                      

नारियल के ऊँचे झुके हुए पत्ते
किसी उन्मत्त हाथी की तरह
 झूम रहे हैं-
एक मकड़ी अपने जाले के
 बीचों बीच बैठी -
शिकार का इंतज़ार कर रही है .

यहाँ बैठे , दो पहर बीत चुके हैं ,
धूप ढल चुकी है -
जली हुई अगरबत्ती की भभूत
मंदिर के सामने इकट्ठी हो गयी है .
झूमते हुए वे हाथी -
अब कहीं दिखाई नहीं देते !
चिड़िया - अब बसेरा ले चुकी है ,
                      हवा - शांत है ,
मकड़ी भी शिकार कर सो चुकी है !
लेकिन मैं जडवत हूँ
और मेरे साथ है -
मेरा एकान्तिक अस्तित्व!

Saturday, March 3, 2012

मौन





मौन के इस विस्तार में-
डूबते उतराते न जाने कितने प्रश्न-
अपने निरुत्तर होने का बोझ ढो रहे हैं...
यह अनगिनत त्रिशंकु -
हमारे इर्द गिर्द इसी इंतज़ार में मंडराते हुए...
की कब कोई आह ...कोई सिसकी, इन्हें बींधे ..
और इन्हें मिल जाये एक आसमान.. या फिर एक ज़मीन ..
---जिसकी जो नियति हो!
और हम -
हर ख़ुशी, घंटों.... इसी मुद्रा में गवां देते हैं -
पल..घंटों में...
घंटे प्रहारों में..
और प्रहर...दिनों... हफ़्तों ...महीनों में
परिवर्तित हो जाते हैं...
लेकिन यह मौन..
जस का तस-
बींधे जाने के इंतज़ार में-
और विस्तार पाता जाता है.

Thursday, March 1, 2012

प्रकृति





जानती हूँ, हमारे जीवन में समय का बड़ा अभाव है, फिरभी सोचा मन की यह बात आप सबसे 'शेयर ' करूं.

आज अचानक सहजन के पेड़ पर दृष्टि  पड़ी, डालिओं की फुनगियों पर छोटे छोटे सफ़ेद फूलों का झुण्ड नज़र आया: तारीख पर ध्यान दिया ...ठीक तो है -इसी सर्दी के रेले के बाद मौसम बदलने लगेगा.
          जब मौसम बदलता है -ग्रीष्म ऋतु ड्योढ़ी पर खड़ी होती है  तभी सहजन लहलहाता है . आश्चर्य होता है 'कभी प्रकृति से चूक क्यों नहीं होती?' . वह कैसे जान जाती है की यही सही समय है. हमारी बगिया में कई मौसमी फूल खिलते हैं- और फिर मुरझाकर धरती के गर्भ में छिप जाते हैं. सूखे पेड़ फ़ेंक दिए जाते हैं और उनके बीज धरती के सीने में दुबक जाते हैं. लेकिन फिर जब उनका मौसम आता है तो नन्हे नन्हे पौधे- सर उचका उचकाकर अपने होने का अहसास दिलाते हैं. उन्हें कैसे पता चल जाता है, की अब उन्हें खिलना है...अब मौसम उनके अनुकूल है ? सचमें आश्चार्य होता है ....

हम इंसान इतने बुद्धिमान हैं, इतनी तरक्की की है, लेकिन हम इतनी सहज सरल बातें नहीं समझ  पाते- शायद जीवन में ऊपर उठते उठते हम इतने ज्यादा अपनी मिट्टी से दूर हो गए हैं की उस संवेदना को ...जो इस मिट्टी का स्पर्श हममें भर देती है- हम महसूस ही नहीं कर पाते. उसकी उष्णता, उसकी ठंडक हमें अभिभूत नहीं कर पाती -उसकी सहजता , सरलता हमें छू नहीं पाती.

हम इतने जटिल हो गए हैं की आसपास के चेहरों को साफ़ साफ़ नहीं पढ़ पाते - भावनाओं को भी नहीं समझ पाते.. एक दूसरे से कटे हम छोटी छोटी सच्चाईयोंसे से भी दूर हो गए हैं...वह सच्चाई जो प्रकृति में है- जिसकी वजहसे सब कुछ सही समय पर, कितनी सादगी, सरलता से होता है.

काश के हमारे रिश्ते भी उतने ही सरल होते, जब हम जानते की सामने वाला व्यक्ति जो कह रहा है, वही उसका तात्पर्य है- जब हमें संवादों में छिपे अर्थों को टटोलना पड़ता...जब मन निश्चल निष्कपट होता....जब हमें किसीकी  तरफ पीठ करने में डर लगता वरन विश्वास होता, की मेरे पीछे खड़ा व्यक्ति मुझे गिरने से बचाएगा.
वह विश्वास उस बच्चे में होता है जो भीड़ में अपने पिता की ऊँगली थामे रहता है -जानता है ज़रा सी ठोकर लगी तो वे  उचका लेंगे.
अगर भावनाओं में वह निश्चलता होती तो सीमाओं पर पहरे होते , भाई चारा होता, विश्वास होता, अमन होता और लोग प्रकृति की गोद में चैन की नींद सोते और वह उसे दुलारती.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ....मनुष्य अपनी उड़ान के मद में प्रकृतिसे कोसों दूर हो गया ...उसने उसके नियमोंको तोडना शुरू कर दिया...सागर को पाटना शुरू कर दिया, जंगलोंको काटना शुरू कर दिया. उसने भू-गर्भ में भी अति-क्रमण किया.
प्रकृतीने फिर भी अपना नियम नहीं तोडा. पानी का धर्म है बहना....और पाटा जाने पर सागर सड़कों  पर बह निकला ...घरों में घुस गया ...शहर डूब गए .....मनुष्य त्राहि माम कह उठा.
पेड़ों का काम था वातावरण का अनुपात बनाये रखना. जंगल कटते गए ..अनुपात  बिगड़ता गया. वर्षा के बादल पेड़ों की तलाश में बढ़ते गए और किसान टकटकी लगाये देखते रहे. वायु दूषित होती गयी क्योंकि मशीन और वाहन की घुटन को आत्मसात करने वाले जीवनदायी वृक्ष कट चुके थे.

मानव फिर भी नहीं चेता. जल की आपूर्ति के लिए उसने धरती का सीना भेदा ....एक और नियम का उल्लंघन. नतीजा? ... जलस्तर गिरने लगा...धरती का पानी सूखने लगा!

लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जो प्रकृति के करीब थे....जिन्होंने उसके नियमों को समझा था...उसकी रक्षा का बीड़ा उठाया था. वे जानते थे प्रकृति केवल अपने नियमों का पालन करती है ....जो शाश्वत होते हैं !
अग्नि का नियम है- जलना और जलना
जल का नियम है - बहना और बहाना
फूलों का नियम - खिलना और मुरझा जाना
फलों का नियम- पकना और चू जाना .
प्रकृति अपने नियमों का पालन अन्नतकाल से करती आई है...करती रहेगी-
क्यों हम 'उन' लोगों में शामिल हो जायें और इस वरदान को अभिशाप बनने से रोकें.