Thursday, June 10, 2021

दृष्टि, ईश्वर की सबसे अनमोल देन...!



कुछ दिन पहले एक फिल्म देखी थी। दृष्टिहीन बेटी, ब्रैल में कुछ पढ़ रही है। तभी माँ बेटी के कमरे में प्रवेश करती है, और उसे पढ़ता देख लौटने लगती है। बत्ती जली छोड़कर जा ही रही थी, कि तभी, रुककर बेटी को देख, एक नि:श्वास छोड़ बत्ती बुझा देती है। रौंगटे खड़े हो गए थे उस दृश्य में। बिना किसी संवाद के कितनी सूक्ष्मता से उस दृश्य का मर्म दर्शकों तक पहुँच गया था।

हमें अपने घर का अंदाज़ रहता है, क्या चीज़ कहाँ रखी है, बखूबी जानते हैं, पर बावजूद इसके घुप्प अंधेरे में टटोलकर चलते हैं। कितना आसान होता है, चीज़ें खोज लेना, रुपए गिन लेना, सड़क पार कर लेना, सही नंबर की बस, या ट्रेन पकड़कर गंतव्य तक पहुँचना। ईश्वर ने हमें दृष्टि दी हैं। इसलिए यह सब संभव है। ईश्वर न करे, कभी किसी दिन अचानक हम उठें और हमारी दृष्टि हमसे छिन जाए, तो क्या होगा...! कैसे जियेंगे हम...!

क्या कभी हम ईश्वर की दी हुई नेमतों के लिए उसे धन्यवाद कहते हैं। हमारे पास शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त सदा तैयार रहती है। हमें यह नहीं मिला, हम यह नहीं बन सके, हमने ईश्वर का क्या बिगड़ा, वह इतना निष्ठुर क्यों है, उसे हमसे क्या दुश्मनी है, इत्यादि इत्यादि।

क्या कभी किसी दिव्याङ्ग को देखकर मन में यह भाव आया?

 हे प्रभु कितने कष्ट में होगा यह व्यक्ति, इसके कष्ट को दूर करो, या कि, ईश्वर तुम बहुत दयालु हो, तुमने यह अनमोल शरीर दिया है, अपनी कृपा हमपर बनाए रखना। कभी आगे बढ़कर किसी नेत्रहीन को सहारा दे, सड़क पार करने में मदत कीजिये, या सामान खरीदते हुए कोई दुकानदार, बेजा फायदा न उठा ले, इसलिए बस उसके बगल में खड़े हो जायेँ…! करके  देखिये, कितना सुकून मिलता है...! यह सच है, सभी अपने अपने युद्धों में लिप्त हैं, चाहते हुए भी हम सहायता नही कर पाते। पर संवेदनशील तो हो सकते हैं। चलते फिरते इनकी छोटी मोटी सहायता तो कर ही सकते हैं।

किसी अंग का भंग होना बहुत कष्टदायक होता है, जिसमें दृष्टिहीन होना हमें सबसे अधिक कष्टदायक लगता है। कितनी घुटनभरी अंधेरी ज़िंदगी होती है इनकी। जीवन के हर सौंदर्य से वंचित ...!

दृष्टि ईश्वर की सबसे अनमोल देन है। जीते जी न सही हम मृत्युप्रान्त ही उनके लिए कुछ करने का प्रण कर लें। ईश्वर को धन्यवाद कहने का एक नायाब तरीका है। करके देखिये...!

 

सरस दरबारी    

 


Tuesday, June 1, 2021

'स्वर्ग का अंतिम उतार',





प्रसिद्ध कथाकार लक्ष्मी शर्मा जी का एक बेहतरीन उपन्यास, जो अंतिम पन्ने पर पहुँचकर ही छूटता है। 

एक गरीब किसान का बेटा छिगनजिसे  दो पैसे कमाने की खातिर अपना गाँव अपना परिवार छोड़ इंदौर में एक सेठ के घर वॉचमैन की तरह काम करता है। घर के लोग खुश हैं कि उसकी शहर में नौकरी लग गई है, पर छिगन का दिल ही जानता है, चिलचिलाती धूप में घंटो खड़े रहना कितना दुष्कर है। बँगले के फूल क्यारी देख स्मृतियों में रह रहकर घर पहुँच जाता है।L

सेठ की उतरन पहन गाँव में अपना रुतबा बनाये हुए है। कहानी वहाँ से शुरू होती है जब एक दिन उसके मालिक कहते हैं कि उसे अपने साथ चार धाम की यात्रा पर ले जा रहे हैं। छिगन की खुशी का ठिकाना नही रहता। यह वह सपना था जो उसकी दादी देखते देखते दुनिया से कूच कर गयीं। उसकी माता पिता की आँखों में बरसों से यह सपना पल रहा था।  

" छिगन बचपन से देख रहा है बई को बद्रीनाथ के नाम से पाई पाई जोड़ते। हर साल घर के खर्चों से कतर ब्योन्त करती बई कभी पीहर जाना स्थगित करती थी तो कभी घर पर नया छप्पर डलवाना। कई बार तो घर के बच्चे भी मन मारकर मेले बाजार से मुँह जुठाये बिना लौट आते थे, लेकिन किसान और मौसम का सदा का बैर। कभी ओले तो कभी पाला, कभी सूखा तो कभी बरसात, कुछ नही तो कभी तेला लग गया, कभी टिड्डी फिर गईं और ये सब हर बार गरीब की कूलड़ी में पल रहे बचत- शिशु का भोग लेकर ही संतुष्ट होते थे"

ऐसे में चार धाम की यात्रा पर जाने के विचार से छिगन बौरा गया था। 

कितने चाव से उसने मालिक के पूरे परिवार की तस्वीर कॉपी के कागज़ पर बनाई थी। साहब, मेमसाहब, पुरु बाबा, जिया बेबीऔर  थोड़ी दूरी पर अपनी और उनका कुत्ता गूगल जो एक जर्मन शेपर्ड था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो उसने उस कागज़ पर बनी सारी तस्वीरें लाल पेन से कोंच डालीं।

धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ छिगन की दिल को छू लेने वाली कथा। जिसमें बड़ी ही subtly धर्म और अधर्म के बीच की पारदर्शी रेखा को कथाकार ने उद्घाटित किया है। 

यह उपन्यास कई अहम मुद्दों पर एक पैनी दृष्टि रखकर चलता है...

जैसा गाँवों में साधु संतों द्वारा संचालित कंठी जैसी कुरीतियाँ..!

घर की स्त्रियों के साथ होते कुकृत्य..!

जैसे पानी का महत्व..! 

जैसे गरीबी और भुखमरी किसी तेंदुए से कम नही जो निरीह लोगों को चीर फाड़कर अपना ग्रास बनाती हैं...!

जैसे एक इंसान की मूँछों की ऐंठ उसकी माली हालत से आँकी जाती है...! जिसकी ऐंठसिर्फ एक दिखावा है, आगंतुकों पर रौब झाड़ने के लिए...!

 गरीब कंचन पर  मेमसाहब की उमड़ती दया का भेद जानकर  छिगन पर जो असर होता है वह उपन्यास को एक नया आयाम देता है।

बड़ी सहजता से मानवीय मूल्यों को उद्घाटित करता एक मार्मिक उपन्यास..!

बिंबों के प्रयोग पर तो लक्ष्मी जी को महारथ हासिल है। 

"रात की बारिश और बर्फ रात को ही विदा ले गई है। जानकू चट्टी के पर्वतों पर बिछी बर्फ से गलबहियाँ किये उतरती धूप कुछ ज़्यादा ही साफ और उजली है। उसने ज़रा सा धूपिया पीला उबटन पास बहती जमना की श्यामल वर्णा देह पर भी मल दिया है, जिससे वह निखरी निखरी हो गई है।"

अंत तक बाँधे रखने वाला उपन्यास..!

बधाई लक्ष्मी शर्मा जी..!