Wednesday, January 8, 2020

मॉर्निंग वॉक- एक सुरक्षित भविष्य



जीवन में चलते चलते कभी कुछ दिखाई दे जाता है, जो अचानक दिमाग में एक बल्ब जला देता है , एक विचार कौंधता है, जो मन में कुनमुनाता रहता है, जब तक उसे अभिव्यक्ति के रूप में निकास नहीं मिल जाता।
उन कुनमुनाते विचारों को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास है हमारे ब्लॉग merehissekidhoop-sarasblogspot.in की यह कड़ी,मॉर्निंग वॉक’. 

कुछ ही दिन पहले की बात है। पतिदेव और हम हमेशा की भांति अपनी अपनी स्पीड से चले जा रहे थे। इसमें हम किसी और से नहीं स्वयं से ही कोंपीट करते हैं। कल यह पड़ाव 12 मिनट, 14 सेकंड में पूरा किया था, आज कोशिश करेंगे कुछ सेकंड और कम हो जाएँ। बस अपने आपसे ही प्रतिस्पर्धा करते हुए, हम रोज़ एक निश्चित दूरी तै, कर पसीने में लथपथ, लौट आते हैं।

हाँ तो हम कह रहे थे, कि हम अपना रूटीन वॉक कर रहे थे, तभी परली सड़क से एक आवाज आई, “आप हमको चुराने आए हो।” उस तरफ देखा, दो प्यारी प्यारी बच्चियों किलकारियों मारती हुई फुटपाथ पर नाइट सूट पहने  दौड़ लगा रहीं थीं। उम्र यही कोई 4 या 5 साल। उन्हीं के पीछे पीछे एक सज्जन बाइक पर धीरे धीरे चले आ रहे थे। ज़ाहिर है, उन्हें टहलाने लाए थे। वह बच्चियाँ थोड़ा दौड़तीं, फिर रुक जातीं, हँसती, पलटकर उस व्यक्ति से पूछती , “ आप हमें चुराने आए हो, वह इंसान जो उनका साथ था, हँसकर कहता “हाँ”, और वह फिर खिल खिलाकर दौड़ जातीं। आगे जाकर फिर रुक जातीं। हमारा ध्यान उन्हीं पर लगा था। हम आगे निकल आए, पर दिमाग में तो कीड़ा घुस चुका था, उसे कैसे निकलते। रास्ते भर एक ही बात...!
कितना मासूम सा खेल था, पर संकेत भयावह। हम जिस समाज में आज जी रहे हैं, एक डर, एक खतरा हमारे सिर पर मँडराता रहता है। आए दिन कभी बच्चे गायब होने की खबरें, कभी मासूमों पर होते अत्याचार, बलात्कार की खबरें। बच्चे जब तक घर नहीं लौट आते तब तक एक अंजाना भय मन को घेरे रहता है। कैसे समाज में जी रहे हैं हम । हमारा यह डर इन मासूमों की सोच, उनकी मानसिकता पर भी पड़ रहा है। उसकी विभीषिकाओं से वे अंजान हैं पर यह सोच किस कदर दिमाग पर हावी हो गई है। कि उन्होने इसे एक खेल बना लिया था।
“तुम हमें चुराने आए हो”...!
बड़े जो बोलते हैं, समझाते हैं, उसकी पैठ कितनी गहरी हो चुकी है उनके भीतर।
घर लौट आने पर मन बहुत देर तक विचलित रहा। यह एक ऐसी दुविधा थी, जिसका हल खोजना अनिवार्य हो गया है। एक सुरक्षित भविष्य हमारे बच्चों का अधिकार है, और जो देना , हम अभिभावकों का दायित्व है।
कैसे, यह हमीं को सोचना है। परिस्थितियों से उन्हें आगाह करना भी ज़रूरी है, और महफ़ूज रखना भी।  



Thursday, January 2, 2020

विदा 2019

जा रहे हो दिसंबर..!
आओ
तुम्हें अंतिम बार गले लगा लूँ
निभ न सके जो वादे
उनका गम भुला दूँ
की जो गलतियाँ
उनपर ज़रा पछता लूँ
जो सुख के क्षण बिताए
उन्हें फिर दोहरा लूँ
जो पाए थे ज़ख्म
उनपर मलहम लगा लूँ
रिश्तों के कर्ज
एक एककर चुका दूँ
जी भरकर तुम्हें मना लूँ
आओ दिसंबर
आखरी बार
तुम्हें गले लगा लूँ
आओगे नव वर्ष में
फिर एक नए रूप में
नई खुशियाँ
नई उम्मीदें होंगी
तुम्हारी धूप में
एक नए आत्मविश्वास के साथ
उन सभी को पाऊँ
एक नई सुबह के साथ
उनके पाश में समाऊँ
चलते चलते तुम्हें
बस आखरी बार
क्षमा याचना कर भूलों की
जी भर कर गले लगा लूँ

समय भला किसी के रोके से रुका है कभी। यह वर्ष भी बीत गया। हर वर्ष की तरह इस बार भी कुछ संकल्प किए हैं। उनमें से एक है, नियमित ब्लॉग लिखना। लेखन की शुरुआत हमने ब्लॉग से ही की थी, पर धीरे धीरे सोश्ल मीडिया पर इतना रम गए, कि ब्लॉग को ही भूल बैठे। आज अपनी गलती का एहसास हो रहा है, और एक बार फिर हमने ब्लॉग की तरफ अपना रुख कर लिया है।