कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा
. एक नव दंपत्ति के बीच एक छोटीसी समस्या को लेकर बहस हो गयी. पत्नी चाहती थी की घर
के कामों के लिए एक नौकरानी रख ले और पति इससे सहमत न था . बात इतनी बढ़ी की दोनों में
तलाक की नौबत आ गयी. इतने पर भी वे दोनों नहीं चेते, बस अपने अपने अहम् को पोसते
रहे. अंतत: प्रेम ,तर्क और समझदारी को हराकर, अहम् जीत गया ...! दोनों में तलाक हो
गया ...इतनी छोटीसी बात पर तलाक....!
कितना हास्यास्पद लगता है यह...!!!
लेकिन क्या यह बात इतनी छोटी
है जितना कि प्रतीत हो रही है. लड़ाई का मुद्दा तो बहुत छोटा था जिसे बड़ी सहजता से
सुलझाया जा सकता था. कोई भी लड़ाई अगर सिर्फ मुद्दे की लड़ाई हो तो उसका हल निकाला
जा सकता है. पर अक्सर लडाइयाँ मुद्दे से हटकर ‘अहम्’ की लड़ाई बन जातीं हैं. अगर
ठन्डे दिमाग से सोचिये तो आपको खुद एहसास होगा की वह लड़ाई जिस वजह से छिड़ी थी वह
वजह तो बहुत पीछे छूट चुकी थी और अब यह केवल एक अहम् की लड़ाई रह गयी थी, जहाँ
दोनों में से कोई झुकने को तैयार नहीं था. और जब कोई भी लड़ाई, अहम् की लड़ाई बन
जाती है तो सारे तर्क, सारे रिश्ते, सारी भावनाएँ गौण हो जाती है बस रह जाता है एक
अहम् जिसकी ‘जीत’ सर्वोपर्री हो जाती है. तब सब कुछ ताक़ पर रखकर व्यक्ति के लिए उसका
जीतना हर हाल में ज़रूरी हो जाता है. और ऐसे में न जाने कितने घर, कितने रिश्ते,
कितनी सियासतें नेस्तनाबूत हो जाते हैं. दोस्त दुश्मन बन जाते हैं, भाइयों में फूट
पड़ जाती है, बच्चे माता पिता से विलग हो जाते हैं. और जब यह लड़ाई पति पत्नी के बीच
आ खड़ी होती है और दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं होता तो न जाने कितने जीवन
एक ही झटके में तबाह हो जाते हैं और सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता हैं बच्चों को.
अगर पराश्रित हों तो और भी ज्यादा. वह मासूमों से उनका बचपन , युवाओं से उनके सपने
और वृधाश्रित माता पिता से उनका का आखरी सहारा छीन लेते हैं. दो परिवारों के बीच
की इस नींव को मजबूती सिर्फ इन दोनों का साथ, सहिष्णुता, और आपसी समझदारी ही दे
सकती है. तो फिर क्यों न अहम् को ताक़ पर रखकर भुला दें?
आज हम अपनी बेटियों की
सुरक्षा को लेकर डरे सहमे रहते हैं. जब तक वह घर नहीं आ जातीं, मन अनजानी आशंकाओं
से घिरा रहता है. और उनके आने में थोडासा भी विलम्ब, ऐसी संभावनाओं के मक्कड़ जाल
में मन को जकड लेता है जो दुश्मन के मन में भी नहीं उठती होंगी. आज भी पुरुषों का
एक वर्ग ऐसा है जो समाज में औरत की बढ़ती साख को पचा नहीं पा रहा. युवतियों का इतनी
आज़ादी से , निडर हो, घर से निकलना उन्हें नहीं सुहा रहा . कहीं उन्हें अपना
वर्चस्व छिनता सा महसूस होने लगता है. औरतों का स्वाबलंबन, स्त्री सशक्तिकरण,
उन्हें अपने अहम् पर एक तमाचा सा लगता है, जो उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं. नतीजतन, अपना
‘चुटहिल’ अहम् लेकर वह निकल पड़ते हैं, अपनी भड़ांस निकालने. यह अहम् की लड़ाई नहीं
तो और क्या है ? एक पुरुष का अहम् –जिसका आये दिन समाज की युवतियाँ शिकार हो रही
है, कभी एसिड अटैक, कभी बलात्कार, कभी जिंदा जला देना ! ऐसी ऐसी घृणित दुर्घटनाएँ होतीं
हैं की सभ्य पुरुष शर्म से गढ़ जायें. जबकि यह विकृत मानसिकता के पुरुष, योग्य और पर्याप्त
दंड के अभाव में, निडर हो, नए नए शिकार खोजते रहते हैं. कितना तर्क विरुद्ध ,
कितना अविवेकपूर्ण है ‘अहम्’. फिर क्यों हम अहम् को पालें?
अपना धर्म हर किसी को प्रिय
होता है और हर धर्म एक ही भाषा बोलता है, प्यार की भाषा, भाई चारे की भाषा. तो
धर्म का अनुसरण करने वाले फिर खून खराबे पर क्यों उतर आते हैं. धर्म की कोई भी किताब खोल लें, उसमें
सहिष्णुता और प्रेम ही का पाठ मिलेगा, फिर कुछ धर्म के अनुयायी उसे इतना वीभत्स
क्यों बना देते हैं. या की वे अपनी मान्यताओं, अपनी सोच को समाज पर थोपकर उसे धर्म
का आवरण पहना, सिर्फ मनमानी करना चाहते हैं ? अपनी सोच पूरे समाज पर, पूरे विश्व
पर थोपना चाहते हैं ? यह ‘अहम्’ नहीं तो और क्या है ? उनका अहम् किसी और धर्म को
बीस कैसे होने दे सकता हैं. और जब यह अहम् विभिन्न धर्मों के बीच फन उठाता है, तो
समाज में वह होता है जो सारी मानवजाति को खून के आँसू रुलाता है. बढ़ जाते है
अराजकता, भय और आतंक. एक बार फिर मासूम बलि चढ़ते हैं, वही खून खराबे की कहानी, फिर
दोहराई जाती है. और गूंजता रहता हैं अहम् का अट्टाहस, जब माएँ अपने शिशुओं को,
रीती आँखों से आखरी बार नहलाती हैं, जब सुहागनें अपने हाथों की मेहँदी खुरच खुरच
कर निकालती हैं, जब वृद्ध पिता जवान बेटों के शव को कन्धा देते हैं ..और रह जातीं
हैं कभी न भूलने वाली तारीखें, कभी न सूखने वाले आँसू और कभी न भरनेवाले ज़ख्म..फिर
चाहे वह ९/११ की यादें हों २६/ ११ की दहशत हो या पेशावर में हुए संहार की व्यथा
हो.
.......कितना क्रूर है ‘अहम्’.
क्या फिर भी, अहम् को
पोसना, आपको तर्कसंगत लगता है....?
सरस दरबारी