देह समाई पंच तत्व में
घाटों पर मन ठहर गया है
चलती जाती रीत जगत की
जो आता
उसको जाना है
कर्म यहाँ बस रह जाते हैं
रीते हाथों ही
जाना है
काया भोगे रह रह दुर्दिन
स्मृति में आनन ठहर गया है
जीवन के खाली पन्नों पर
स्मृतियाँ रुक रुक
छपती जातीं
अंतस के गह्वर से उठ वह
नैनों से फिर
बहतीं जातीं
भवसागर तो पार किया पर
कर्मों का धन ठहर गया है
कंटक पथ पर हारा गर मन
तो स्मृतियाँ
क्षमता बन जातीं
उनकी दी तदबीरें बढ़कर
परिभव में
साहस उकसातीं
कब हो पाये दूर वह हमसे
आशिष पावन ठहर गया है
सरस दरबारी