Friday, July 26, 2013

एक दूजे का साथ ....





आज सवेरे की ही बात है , पापा नौकरानी से बात कर रहे थे ," हमने तुम्हे कल शाम को देखा था . वहीँ खुसरो बाग़ में अपने पति के साथ टहल रही थीं ".
" हाँ पापाजी गए थे ...कभी कभी समय निकालकर चले जाते हैं "
बात बहुत साधारण थी . शायद मैं भी सुनकर अनसुना कर देती , लेकिन सुशीला (नौकरानी) के लहजे में अपराध बोध मुझे कचोट गया.
अरे घूम रही थी ...तो क्या हुआ.... अपने पति के साथ अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकालकर घूम रही थी ...उस में शर्म कैसी ....और अपराध बोध कैसा मानो कोई चोरी पकड़ी गयी हो..!
हम लोगों में कितने लोग ऐसे हैं जो इस बात को अहमियत देते हैं, अपनी व्यस्ततताओं को परे धकेल एक दूसरे के लिए समय निकाल पाते हैं ..?
आंख खुलते ही वही रोज़ का सिलसिला, बच्चों का टिफिन बनाना , स्कूल भेजना, घर के काम निबटाना, खाना बनाना, पति को ऑफिस भेजना, खुद दौड़ते भागते ऑफिस जाना - बसों ट्रेनों में धक्के खाना (और ज़रा समृद्ध हुए तो अपनी कार से जाना )..
फिर लौटकर वही खट राग ...बच्चों की पढ़ाई, शाम के काम...
इस सब में कहीं "हमें इतना समय एक दूजे के साथ गुज़ारना है " क्या इसका का भी समावेश होता है..?
हमारी ज़िन्दगी में वह 'समय' या वह 'स्लॉट' क्या ज़रूरी नहीं है …?
ज़रा सोचिये, बच्चे बड़े होकर अपने अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं ...पढ़ाई, यार दोस्त और फिर शादी . उसके बाद होता है उनका अपना परिवार, पती/पत्नी, बच्चे ...ऐसे में जब वे हमारे लिए समय नहीं निकाल पाते तब हम सोचते हैं 'हमने तो सारी ज़िन्दगी अपने बारे में कभी नहीं सोचा...और आज इनके पास हमारे लिए समय ही नहीं'.
उम्र के इस पड़ाव पर जब हम सबको 'सेटल' कर देते हैं तो पलटकर देखने पर महसूस होता है ...हम 'कितने  'अन्सेटलड'  हो गए हैं. साथ गुज़ारा हुआ समय हमारी पूँजी होता है. यह समय हमारे रिश्तों को मज़बूत करता है , विश्वास बढ़ाता है. यह समय एक आश्वासन है की 'कुछ नहीं बदला'...."आज भी मुझे तुम्हारी उतनी ही ज़रुरत है , जितनी पहले दिन थी ".

इसलिए ज़रूरी है की पती पत्नी आपस में कुछ पल, कुछ घंटे , कुछ समय साथ साथ बिताएं - वरना आप कैसे जान पाएंगे की रिश्तों में अब भी वही संवेदनाएं ..वही एहसास...एक दूसरे के लिए वही ललक बाकी है ...!

Friday, July 19, 2013

सृजन



सृजन करती हूँ
जब भी किसी कविता का -
खोजती हूँ उसे भीतर-
टटोलती हूँ यादों को -
कुछ लम्हों को-
कुछ मिठास -
कुछ कड़वाहटों  को -
कुछ झकझोर देने वाले अहसासों को -
और पाती हूँ एक कविता
दुबकी हुई ..किसी कोने में
उसे सजा संवारकर
एक नया रूप , एक नई पहचान देती हूँ
और देखती हूँ उसे फलता फूलता ...!!!!