रावण: बैठ गए राम सिंहासन पर
हो गया उनका राज्याभिषेक;
तो रघुवंश के
अन्य राजाओं की भाँती
वह भी राज्य करके
चले जायेंगे स्वर्ग,
लुप्त हो जायेंगे
इतिहास की धूल में;
और शेष रह जायेगा वह महान कार्य
जिसके लिए जन्म हुआ है
दशरथ पुत्र रामका .
कैकेयी : कौनसा महान कार्य ?
किसलिए जन्म हुआ है
मेरे प्रिय पुत्र राम का?
अब आगे .......
रावण : धर्म की रक्षा के लिए
पापियों के विनाश के लिए.
देवी मैं मांग रहा हूँ
राम का वनवास
लोक कल्याण के लिए.
जो नहीं हो पायेगा
यदि संपन्न हो गया
राम का राज्याभिषेक .
कैकेयी : कुछ समझ में नहीं आ रहा .
न जाने क्या कह रहे हो तुम .
रावण : इससे अधिक समझाने का
न अवसर है अभी
न समझा सकता हूँ मैं.
बस पूछना चाहता हूँ
केवल एक प्रश्न .
मुझे दान मिलेगा या नहीं,
रघुकुल की रानी कैकेयी
अपना वचन पूरा करेंगी
अथवा नहीं ?
कैकेयी : मेरा वचन अवश्य पूरा होगा .
मिलेगा तुम्हे वही दान
जो तुमने माँगा है .
रखकर अपने ह्रदय पर पत्थर
मैं दिलाऊंगी वनवास
अपने परम प्रिय पुत्र राम को .
राम के मस्तक पर
राजा का तिलक नहीं
कैकेयी के माथेपर
लगेगा कलंक का टीका ;
नहीं दिखा सकेगी वह
किसी को अपना मुख .
(यह कहकर कैकेयी जाने लगती है पर रावण की आवाज़ सुनकर रुक जाती है . उसकी पीठ रावण की ओर है)
रावण : महारानी कैकेयी ,
आज किया है आपने
बहुत बड़ा उपकार
राम पर, मानवता पर
आने वाले युगों पर .
कौन जान पायेगा
आपका योगदान
विश्वकल्याण में?
कौन समझ पायेगा
महानता आपकी
और मेरा उद्देश्य
इस सबके पीछे ?
( रावण के अधरों पर एक भेदभरी मुस्कान है. वह बोले जा रहा है )
रावण : गुप्त है वह महादान
जो दिया है आपने .
राम वनवास का कारण
गुप्त ही रहना चाहिए,
गुप्त ही रहेगा सदा .
पूजनीया हैं आप.
( रावण कैकेयी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है . भेदभरी मुस्कान अब भी उसके चेहरे पर है. ऊपर से पुष्पों की वर्षा हो रही है )
यह दृश्य और इसी प्रकार कई और संवाद, रावण -मारीचि के बीच, रावण- विभीषण के बीच, नाटककार ने, सूत्रधार द्वारा, और नट और नटी के बीच संवादों के माध्यम से दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किये हैं .....यह संवाद दर्शकों के मन में उठ रहे सवाल हैं जिनका धीरे धीरे हर दृश्य के बाद समाधान होता जाता है ....
ऐसा ही एक दृश्य रावण और विभीषण के बीच है ....
विभीषण रावण को सीता को लौटाकर राम से संधि करने की सलाह देता है तो रावण विभीषण के सीने पर लात मारकर उसे भरी सभा में अपमानित करता है .
उसके पश्चात रावण विभीषण के घर जाकर उससे मिलता है ......
रावण को देखकर विभीषण रोष में खड़ा हो जाता है और कहता है :
विभीषण : शेष रह गया है क्या
करना कुछ और अपमान
जो यहाँ चले आये?
या वध करना चाहते हो मेरा ?
कर लो, वह भी कर लो .
खड़ा हूँ तुम्हारे सम्मुख
किसी को पता नहीं लगेगा .
रावण : नहीं आया हूँ यहाँ
करने तुम्हारा वध
या तुम्हारा अपमान .
बस आया हूँ बांटने तुमसे
जो नहीं बाँट सकता
किसी और के साथ .
विभीषण : बाँटने?
क्या बाँटने ?
रावण : अपना एक दुःख
अपना एक सुख
विभीषण : कौनसा दुःख?
कौनसा सुख ?
रावण : अपने शुभचिंतक
अपने प्रिय भाई का
भरी सभा में
अपमान करने का दुःख .
उसके लिए हाथ जोड़कर
मांगता हूँ क्षमा तुमसे .
विभीषण : सबके सामने करना अपमान
अकेले में माँगना क्षमा
यह कैसी नीति है तुम्हारी ?
रावण : यह नीति नहीं विभीषण
यह राजनीति है .
जो करनी पड़ती है .
किसी न किसी रूप में
हर राजा को.
राज चलाने के लिए
चाहिए ह्रदय देवता का
और मस्तिष्क दानव का .
तुम भी सीख लो सब
काम आयेगा तुम्हारे .
( विभीषण उसकी बात अनसुनी कर , जैसे अभी भी रुष्ट हो, रावण से पूछता है )
विभीषण : दुःख तो बता दिया
सुख भी बता दीजिये .
रावण : लंका दहन का सुख .
विभीषण : क्या कहा आपने ?
रावण : क्या कहा आपने
लंका दहन का सुख ?
लंका जल गयी
और आप सुखी हैं ?
रावण : रावण को जानना
बहुत कठिन है विभीषण.
संभवत: आने वाले युग भी
नहीं समझ सकेंगे उसे .
क्योंकि वह करता कुछ और है
और दिखाता कुछ और .
कभी कभी तो मेरा ह्रदय भी
नहीं जान पाता
क्या है मेरी योजना ,
क्या सोचा है मेरे मस्तिष्क ने .
चाहे वह राम का वनवास हो
सीता का हरण हो
अथवा तुम्हारा अपमान;
यह सब कड़ियाँ हैं मेरी गुप्त योजना की .
( क्रमश:)