Wednesday, April 3, 2019

मेरी बेटी अब माँ बन गयी है


मेरी बेटी अब माँ बन गयी है


मेरी बेटी अब माँ बन गयी है
बचपन में
कई बार पोछें हैं मेरे आँसू
फ्रॉक के घेर से
ज़ख्मों पर फूँक मार
उड़ाकर दर्द को
हथेलियाँ नचा
काफूर कर दी है सारी पीड़ा...
अनेकों बार 
छोटीसी गोद में सिर रख
दुलारा है मेरी थकन को
और भर दी है स्फूर्ति...
अब वह नन्ही
बड़ी हो गई है 
नन्ही को सीने से लगा
हरती है उसकी पीड़ा
आँचल में छिपा 
दुलारती है उसे
भरती है जीवन की ऊर्जा।
ताज्जुब करती है
माँ,
माँ बनना कितना सुखद होता है
एक विचित्र सा एहसास
मेरे खून, माँसपेशियों से बनी
मेरा अंश..!
मेरा अपना सृजन..!
अद्वितीय है 
यह अनुभव माँ
निहारती हुए
हर हरकत पर भरमाते हुए
छिपा लेती है उसे दुनिया से
बुरी नज़र से दूर।
मेरी नन्ही अब माँ बन गयी है।

सरस दरबारी

Monday, April 1, 2019

लहरें ......


लहरों को देखकर अक्सर मन में कई विचार कौंधते हैं .....

समंदर के किनारे बैठे
कभी लहरों को गौर से देखा है
एक दूसरे से होड़ लगाते हुए ..
हर लहर तेज़ी से बढ़कर ...
कोई  छोर  छूने  की पुरजोर  कोशिश  करती
फेनिल सपनों के निशाँ छोड़ -
लौट आती -
और आती हुई लहर दूने जोश से
उसे काटती हुई आगे बढ़ जाती
लेकिन यथा शक्ति प्रयत्न के बाद
वह भी थककर लौट आती
.......बिलकुल हमारी बहस की तरह !!!!!


             (२)

कभी शोर सुना है लहरों का ....
दो छोटी छोटी लहरें -
हाथों में हाथ डाले -
ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की
कोशिश करती हैं-
गरजती हुई बड़ी लहरें
उनका पीछा करती हुई
दौड़ी आती हैं -
और उन्हें नेस्तनाबूत कर
लौट जाती हैं -
बस किनारे पर रह जाते हैं -
सपने-
ख्वाईशें -
और जिद्द-
साथ रहने की ....
फेन की शक्ल में ...!!!!!

           (३ )

लहरों को मान मुनव्वल करते देखा है कभी !
एक लहर जैसे ही रूठकर आगे बढ़ती है
वैसे ही दूसरी लहर
दौड़ी दौड़ी
उसे मनाने पहुँच जाती है
फिर दोनों ही मुस्कुराकर -
अपनी फेनिल ख़ुशी
किनारे पर छोड़ते हुए
साथ लौट आते हैं
दो प्रेमियों की तरह....!!!!!

                      ( ४ )

कभी कभी लहरें -
अल्हड़ युवतियों सी
एक स्वछन्द वातावरण में
विचरने निकल पड़तीं हैं ---
घर से दूर -
एल अनजान छोर पर !
तभी बड़ी लहरें
माता पिता की चिंताएँ -
पुकारती हुई
बढ़ती आती हैं ...
देखना बच्चों संभलकर
यह दुनिया बहुत बुरी है
कहीं खो न जाना
अपना ख़याल रखना -
लगभग चीखती हुई सी
वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है ...
लेकिन तब तक -
किनारे की रेत -
सोख चुकी होती है उन्हें -
बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष
यादें बन .....
आँसू बन ......
तथाकथित कलंक बन ....!!!!! 

सरस दरबारी

लघुकथा - ब्रह्मराक्षस






पिछले कुछ दिनों से सजीव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था । सोमा जब भी लैपटाप लेकर बैठती , उसका चिड़चिड़ा पन और बढ़ जाता। सोमा छेड़ छेड़कर बात करने की कोशिश करती पर सजीव का पारा और चढ़ जाता । 
"क्या बात है सजीव, क्यों इतने शॉर्ट टेम्पेर्ड हो गए हो । ज़रा ज़रा सी बात पर उलझ जाते हो। आखिर किस बात से नाराज़ हो बताओ भी तो ।" 
"किसी बात से नहीं। तुम्हारे पास तो मेरे लिए टाइम ही नहीं रह गया। जब देखो लैपटाप लेकर बैठी रहती हो।”
"कहाँ सजीव ? जितनी देर घर पर रहते हो तुम्हारे ही आगे पीछे घूमती रहती हूँ। जब बिज़ि रहते हो, तभी अपना काम लेकर बैठती हूँ।" 
"कौन सा काम , म्यूचुअल हौसला अफजाई । यह भी कोई काम हुआ। न जाने कैसे कैसे लोग तुम्हारी पोस्ट्स पर कमेंट करते रहते हैं, और तुम स्माइलीस भेजती रहती हो ।"
"यह तुम्हें क्या हो गया है सजीव , यह मेरे मित्र हैं। और मैंने तो कभी ऐतराज नहीं किया जब तुम घंटों फ़ेसबुक पर चैट करते रहते हो । मैं तो सिर्फ उनके कमेंट्स के ऐवज में उनका शुक्रिया अदा करती हूँ । तुम इतने पढे लिखे होकर ऐसी बात कर रहे हो ।" 
"बस यही तो । मेरा पढ़ा लिखा होना ही मेरे लिए अभिशाप बन गया है । अनपढ़ होता तो हाथ उठाकर अपनी बात मनवा लेता। पर पढ़ा लिखा होना ही मेरी बेड़ियाँ बन गया है ।" 
सोमा अवाक थी। 
सजीव दरवाजा भाड़ से बंद कर घर से बाहर निकल गया। 
अहम का ब्रह्मराक्षस सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था।


सरस दरबारी