Thursday, January 22, 2015

बहस


१)

कभी कभी एक छोटी सी बहस
बन जाती है चीर –
और लिपटे रह जाते हैं उसमें –
सारी समझदारी –
सारा प्यार –
सारा अपनापन !
अहम् खींचता जाता है उस चीर को
और बारी बारी  से
दु:शासन और द्रौपदी बने हम
होने देते हैं तार तार
रिश्तों की मर्यादा को
और प्रेम
खड़ा रहता है
नि:वस्त्र..!!!

२)


कभी कभी
एक निर्दोष सी बहस
होकर विकराल
बन जाती है एक युद्ध !
जहाँ अहम् के धनुष्य से
चलते हैं तर्कों के तीर !
रिक्त होती जाती हैं संवेदनाएं
करते जाते एक दूजे को लहु लुहान
और रिश्तों को ध्वस्त !