मंगलामुखी – एक उजास ...!
डॉ॰लता अग्रवाल का उपन्यास हाथों में है। किन्नरों पर आधारित इस उपन्यास की प्रस्तावना पढ़ी, जिसमें पायल फाउंडेशन की डायरेक्टर, किन्नर गुरु, पायल सिंह ने लिखा है,
हमें न्याय दिलाता उपन्यास...!
और उपन्यास पढ़ते हुए महसूस हुआ, कितना सही लिखा है उन्होंने।
किन्नर हमेशा से ही समाज के लिए एक रहस्य रहे हैं। एक भय मिश्रित जिज्ञासा, इनके प्रति, सदैव बनी रही है। यह उपन्यास उन सारी जिज्ञासाओं का निवारण करता चलता है।
मंगलामुखी किन्नरों के जीवन पर लिखा केवल एक उपन्यास नहीं है...!
मंगलामुखी दस्तावेज़ है, उनके सुख दुःख का, छोटी छोटी खुशियों का।
मंगलामुखी खुलासा है, अपनों के दिए ज़ख्मों का, तिरस्कार का, गहन विषाद का…!
मंगलामुखी किन्नरों की व्यथा गाथा है, उनका जीवन है, पर्त दर पर्त खुलता हुआ।
मंगलामुखी किन्नरों के जीवन की वह तस्वीर है, जो समाज की नज़रों से ओझल रही है।
यह तस्वीर तभी साकार होती है, जब डॉ लता अग्रवाल जैसा कोई हमदर्द उन्हें करीब से देखता, उस दर्द को महसूसता और बाँटता है। उनके दुःख से विचलित हो, उनकी ख़ुशी में शरीक होता है।
यह कहानी शकुन की है।
अनब्याही शकुन, जिसे मिला, प्रेम में धोखा और एक अनचाहा गर्भ। अपने परिवार को शर्मिंदगी से बचाने के लिए तालाब में कूद पड़ी थी, जहां पूजा के लिए लोगों की भीड़ थी। पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, स्त्री पुरुषों में से कोई उसकी जान बचाने नहीं आया, तब एक किन्नर ने तालाब में कूदकर उसकी जान बचाई।
नपुंसक कौन...?
यह प्रश्न उपन्यास में कई बार उठता है। किन्नर तो बेचारे शरीर से,नियति से मजबूर हैं, इसीलिए नपुंसक कहालते हैं, पर आम आदमी की सोच, उसके आचरण और स्वार्थ ने उसे नपुंसक बना दिया है।
अपनों द्वारा ठुकराई हुई शकुन, बच्चे को जन्म देना चाहती थी। किसीने गर्भ सींचकर उसे ठुकरा दिया, तो उसमें बच्चे का क्या दोष....!
उसका जीने का अधिकार क्यों छीना जाए?
और शकुन बच्चे को जन्म देने का निर्णय कर लेती है। और वही किन्नर समाज, ढाल बनकर उसके पीछे खड़ा हो जाता है। उसी की आँखों से हम उनकी दुनिया देखते हैं, समझते हैं। शकुन ही वह सेतु है, जो किन्नरों के जीवन के अनजाने पहलु, पाठक तक पहुँचाता है।
यह कहानी है शिल्पा गुरु की।
शिल्पा गुरु, किन्नरों की मुखिया, जो उसकी जान बचाकर, किन्नरों के डेरे में, आसरा देती हैं। शिल्पा गुरु जिसे सब बाप का दर्जा देते थे, शकुन के लिए साक्षात् माँ बनकर आयी। नाल का रिश्ता न सही, दर्द का सम्बन्ध तो बन ही गया था। उसकी ममता के आँचल में उसे और उसकी बेटी अनु को परिवार का संरक्षण और असीम स्नेह मिला।
यह कहानी है मणि शर्मा उर्फ महेंद्री की।
कक्षा की सबसे होनहार छात्रा। छोटी सी मणि को एक दिन उसके स्कूल की सहेलियाँ ‘सूसू’ करते देख लेती हैं। और मणि की ज़िन्दगी बदल जाती है। जो राज़ अब तक समाज से छिपा था, उजागर हो जाता है, और समाज में उसका बहिष्कार हो जाता है। किन्नरों की टोली आकर रोती कलपती मणि को छीन कर ले जाते हैं। उसके सारे सपने एक झटके में बिखरकर छितरा जाते हैं और प्रतिभाशाली मणि, महेंद्री बन जाती है। महेंद्री जो शिल्पा गुरु के बाद, उस गुट की मुखिया बनती है।
शिल्पा गुरु के बाद वह स्नेह, वह अपनापन, शकुन और उसकी बच्ची अनु को महेंद्री से मिलता है, जो अपनी वेश भूषा बदल, कुरता पजामा पहन, बन जाती है अनु का पिता महेंद्र और अंत तक एक पिता होने का दायित्व निभाती है।
मनको छू लेने वाला उपन्यास।
गज़ब का शब्द विन्यास...!
किन्नरों की बोली, जिसमें बात बात में गाली गलौज है, उनके हावभाव, ताली बजा बजाकर अपनी ख़ुशी या रोष जताना, संवादों के बीच लेखकीय प्रवेश, हमें उनके जीवन के हर पक्ष से मिलाता चलता है। उनकी पीडाओं से और करीब से जोड़ता है। वह कहती हैं, “समाज से मिली उपेक्षा और अपनों के दिए घावों ने जो कड़वाहट, जो पीड़ा उनके अन्दर भर दी थी, उन्हीँ घावों से रिसता मवाद, उनकी बोली और व्यवहार में दिखाई देता।”
किन्नरों की भाषा, उनके हावभाव का हूबहू वर्णन बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन और श्रम से संभव है, जो इस उपन्यास को विशेष बनाता है। उनके अंतर्भावों को कितनी शिद्दत से महसूस किया है लता जी ने।
हमारे पूर्वाग्रहों के रहते, समाज द्वारा, जाने अनजाने, उनके प्रति कितना अन्याय, कितना अनिष्ट होता है, उसका एहसास इस उपन्यास को पढ़कर देर तक सालता रहा। वाकई, क्या भूल है उनकी, जो इतना तिरस्कृत जीवन जीने को मजबूर हैं, एक गुमनाम जीवन और अनजान मौत पाने को अभिशप्त। रात के सन्नाटे में चप्पलों से पीटकर जिनकी अंत्येष्टि होती है, ताकि पुन: ऐसा तिरस्कृत जन्म न मिले।
पर उपन्यास का अंत संभावनाओं का उजास लेकर आता है। और इनके लिए एक बेहतर जीवन का विकल्प दिखाई देता है। उपन्यास का यह सकारात्मक अंत आश्वस्त करता है, कि भोर होने को है।
डॉ लता अग्रवाल जी को इस अनुपम उपन्यास के लिए ढेरों बधाइयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ। उनकी कलम यूँही निरंतर चलती रहे ।
सरस दरबारी