Wednesday, February 29, 2012

सहारा

अपने आसपास जमे चेहरों को देख,
न जाने कितनी बार ....
कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ -
अन्तरिक्ष में डूबते , उबरते ...
किसी मज़बूत सतह की खोज में -
कई बार देखा है एक दानव ...
रस्सियों में जकड़ा हुआ ....
फिर उसने मुझे करीब से देखकर -
दे पटका है किसी मज़बूत सतह पर -
और में
एक मज़बूत सतह पाकर ..
पागलोंसी अपने हाथ पैर -
इकठ्ठा करती फिरी हूँ...
...अपने आसपास जमे चेहरों को देख
न जाने कितनी बार ..
कई हिस्सों में विभक्त हुई हूँ!!!!!!!

प्रीति

बगुलों के पंखों पर बैठी वह -
चुपके से घर आयी -
आंगन के नीम के पत्तों पर -
एक स्मित हास सी छाई..
चंदा से छिटकी ,
रूठके वह,
जब सिरहाने आ बैठी-
तो बीती यादें बेला बन
हर सू आँगन में महकीं
चंदा ने मनुहार कर ..
फिर उसको पास बुलाया -
पौ फटते ही ...फिर चांदनी को अपने पास ही पाया...

Monday, February 27, 2012

सेतु

यह जो रेत पर पड़ी शिलाएं हैं -
यह वह सेतु है जो तुम तलक पहुँचता था..
जिन पे पाँव टिक न पाते थे कभी...
पंख बन तुमसे जा मिलाता था !
तुमने कई बार उसको छूकर ही -
मन की गहराइयों को नापा था
तुमने भी भरके रेत गड्ढों में-
बीच की हर कमी को पाटा था...!
आज फिर क्या हुआ अचानक जो-
बीच की रेत यूहीं ढहने  लगी-
टूटकर वह शिलाएं चुपकेसे
अपने अपने रास्तों पे बहने लगीं ?
अब तो जब भी पलटके देखती हूँ तो
पाती हूँ उनको इतना टूटा सा
नेस्तेनाबूत करके जैसे कोई -
अपनी बेचारगी पे रोता है.....

Saturday, February 25, 2012

ज़िद

मौज का साहिल से रह रहके टकरा जाना
ज़ब्त किसमें है...यह होड़ लगी हो जैसे -
यह है दीवानगी लहरों की...या बेरुखी साहिल की....
दोनों के जिस्म तार तार...रूहें चलनी हों जैसे...
चोट ऐसी जो एक उम्र तक दिखाई दे,
टुक्रों टुक्रों में हर सिम्त बही हो जैसे...
फिर भी मौजें हैं की दीवानावार साहिल से ,
अब भी टकराती हैं...टकराके पलट जाती हैं ....
इश्क का यह भी एक अंदाज़े-बयान देखा है ,
चोट पहुँचाना ही ...
जैसे शर्ते आशनाई है !!!!

Thursday, February 23, 2012

'माँ'

भावनाएं जब बह निकलती,
तोड़ कर हर बाँध को,
मौन...
स्वर बन स्फुटित करता -
अनकहे उदगार को .
शिशु की ऊँगली पकड़कर
जो बचाती चोट से..
देखकर पीड़ा उसीकी ..
व्यथित होती क्षोभ से .
डेनों में हरदम संजोकर
उम्र भर पाला जिसे ...
भेजकर परदेस...
अश्रु बह चले सन्देश ले...
नीड़ अपना जा सजाना ,
प्रेम और विश्वास पर ...
जो अडिग ,अक्षेय होकर
झेले झंजावात को...
सच तो यह है,
आह भी हलकी सी उठती है जहाँ ..
माँ का दिल ढाल बनकर ...
हो खड़ा जाता यहाँ !
यह सभी संकेत माँ के
प्रेम का प्रतिरूप हैं
जिसकी महिमा ...जिसकी शक्ति से
सभी अभिभूत हैं !!!!

Tuesday, February 21, 2012

अजन्मी



आज मैं आज़ाद हूँ -मौसम के थपेड़े झेलने के लिए -जंगली जानवरों द्वारा नोचे जाने के लिए -या फिर किसी नदी नाले की मैली  धारा में बह जाने के लिए -
मैं आज़ाद हूँ -
आज़ाद हूँ अपनी माँ की कोख से...एक अजन्मे के लिए सबसे महफूज़, सबसे सुरक्षित जगह- जहाँ वह निश्चिन्त  ...ऑंखें मूंदे पड़ा रहता है - दुनिया के छल-कपट से बेखबर, दुनिया के दुःख दर्द से दूर , हर डर से परे आज मैं आज़ाद हूँ उसी कोख से जो मेरे लिए कभी थी ही नहीं ....
मेरे माता पिता एक बेटा चाहते थे, उन्ही अनगिनत लोगों की तरह बेटी जिनके लिए बोझ है- एक दु:स्वप्न , एक ज़िम्मेदारी, क़र्ज़ का पिटारा -एक अभिशाप !
तभी तो मुझ जैसी न जाने कितनी हैं त्यक्त ! अभिशप्त !!
    मेरे पिता भी एक बेटा चाहते थे ...दो बेटियों के बाद एक और बेटी का 'लांछन' उन्हें मंज़ूर नहीं था .
"लोग क्या कहेंगे?"
उन्होंने लोगों की परवाह की....और एक डॉक्टर से मिलकर मुझे निकाल फेंकनें का निश्चय कर लिया .
    वह रात बहुत भयावह थी ...चारों तरफ घुप्प अँधेरा .
तेज़ आंधी तूफ़ान से खिड़की दरवाज़े बेकाबू हो रहे थे .बारिश की बौछारें भालों की तरह चुभ रही थीं .
आसमान फटा जा रहा था -मानो सारी सृष्टि इस विनाश से रुष्ट हो . एक प्रकोप की तरह बिजली कड़कती और गडगडाहट से माँ की चीख दब जाती .
       मेरी माँ दर्द से तड़प रही थी . डॉक्टर का दिया हुआ इंजेक्शन काम कर रहा था -
सारा पानी 'मेरा सुरक्षा कवच' बह गया था, और साथ ही बह गयीं थीं, मेरे जीने की सारी उम्मीदें .
मैं रह रहकर माँ की कोख में लोटती रही और माँ खून पानी में सनी -बिस्तर पर पड़ी तड़पती रही. और पिताजी ...हम दोनों की दशा देख दूर खड़े कसमसाते रहे. माँ हर बार जोर लगाकर मुझे निकालना चाहती , और मैं हर प्रयास के साथ उनके सीने मैं और दुबकती जाती.
       माँ दो ढाई घंटे कोशिश करती रहीं और थक कर चूर हो गयीं-उनकी हिम्मत टूट चुकी थी लेकिन मैंने उन्हें कसकर भींच लिया था ...मैं बहार नहीं जाना चाहती थी.
तभी अचानक माँ ने बैठकर जोर लगाया, चौंककर  मैं सहारे के लिए लपकी, लेकिन तभी फिसलकर बहार आ गयी....सब कुछ ख़त्म हो गया .
  माँ को देखा वह मुझसे मुंह छिपा रही थीं...उन्हें अपनेसे ग्लानि हो रही थी..वह मुझसे आँख मिलाकर कभी अपने आपसे आँख नहीं मिला  पातीं..
उन्होंने मुझे नहीं देखा -उन्हें  डर था वे अपनी ममता को नहीं रोक पाएंगी.लेकिन मैंने माँ का चेहरा देखा था. अनगिनत भाव थे उनकी आँखों में.मैंने तैरते हुए आँसुओं में उन्हें देखा था ..पहचाना था . उन में परिस्तिथियों से न लड़ पाने की असह्याता थी , ऐसा कुकर्म करने का दुःख, पीड़ा ,ग्लानि और शर्म थी, अपने अंश को अपने से अलग कर देने की विवशता थी. मुँह  फेरकर माँ ने उन सभी भावों को मुझसे  छिपाना चाहा था.
  फिर नर्सने मुझे एक कपडे में लपेटकर पिताजी को सौंप दिया,"इसे ले जाईये ".
पिताजी की नज़र ज़मीन पर गढ़ी थी...गर्दन ग्लानी के बोझ से झुकी हुई.उन्होंने नर्सकी तरफ बगैर  देखे ही मुझे ले लिया . झुकी हुई नज़रों में थी वह पीड़ा जो उन्हें मुझे ले जाते हुए हो रही थी....उन्होंने भी मेरी तरफ नहीं देखा .
  उस रात जब पिताजी मुझे सीने से लगाये उस पुल पर खड़े थे , मैंने उनका चेहरा गौर से पढ़ा. वह बुरी तरह भीगा हुआ था ...बारिश से कम आंसुओं से ज्यादा....वे बुदबुदा रहे थे ...
"इश्वर हमें क्षमा करना, हमसे यह भूल कैसे हो गयी.कितना बड़ा पाप किया है मैंने . एक पिता होकर इतना घिनोना कृत्य.मैं एक पिता कहलाने लायक नहीं. इस पापसे मैं कैसे उबर पाऊंगा. प्रभु मैंने पाप किया है , मुझे प्रायश्चित करने का एक मौका और दे दो. "
    पिताजी मुझे अपने सीनेसे लगाकर फूट फूटकर रो रहे थे और मैं महसूस कर रही थी उस दर्द को . पिताजी ने आखरी बार मुझे गले से लगाया और आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा ."इश्वर मैं उसे तुम्हारे संरक्षण में भेज रहा हूँ....इसकी रक्षा करना और इसे मेरी ही बेटी बनाकर मेरे पास फिर भेजना, यही मेरा प्रायश्चित होगा."
  पिताजी का यह आर्तनाद मैं सुनती रही ..और उन्होंने मुझे उफनती नदी के सुपुर्द कर दिया ...
 उस आंधी तूफ़ान में वह लहरें मुझे झुलातीं  रहीं. मन शांत था . माँ पिताजी के प्रति सारा द्वेष धुल  चुका था. मैं धीरे धीरे नदी के तल पर पहुँच गयी. मन में बस एक ही विचार था." हाँ पिताजी मैं आप ही के पास आऊँगी."
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दो साल बाद माँ की गोद हरी हुई .वही चिर परिचित कोख . कितना सुकून कितनी शान्ति , कितना अपनापन था यहाँ. हर डर से बेखबर, हर खतरे से महफूज़, मैं बहार आने का इंतज़ार कर रही थी. माँ जब प्यार से मुझे सहलातीं  बाबूजी स्पर्श करते तो लगता "कितना सहा है मैंने , इस एक स्पर्श के लिए अब और कितना इंतज़ार करना होगा मुझे ?"
   वह दिन भी आ गया. माँ बाबूजी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था.वे मुझे चूमते जाते और इश्वर को धन्यवाद देते जाते . पिताजी प्यार से झिड़कते ,"तुम्हे तो मैं फेक आया था , तुम फिर आ गयीं."
और इस झिडकी में छिपी ख़ुशी, तृप्ति उनके चेहरेसे अविरल बहती रहती".
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आज मैं १९ साल की हो चुकी हूँ . इन्जीनेरिंग कॉलेज मैं पढ़ रही हूँ.पिताजी कहते हैं मैं उनकी सबसे मज़बूत बेटी हूँ, ढृढ़निश्चयी , इरादों और उसूलों की पक्की , उनकी सबसे प्रिय.
काश सब मेरे पिता जैसे होते . अपनी भूलोंसे कुछ सीखते, दूसरों को वही भूल करने से रोकते ,  बेटियों की अहमियत को समझते...तब न जाने कितनी ही 'अजन्मी 'आज अपने माता पिता का अभिमान होती ....अभिशाप नहीं !

Sunday, February 19, 2012

मैं और तुम
अस्फुट शब्दों से निकले ,
अर्थहीन ,
अगम्य ,
कटे हुए,
स्वर बन गए हैं.
अपनी मान्यताओं द्वारा विभाजित ...
मुक़दमे की पैरवी करते हुए
पक्ष और विपक्ष ,
बस यही हमारे सम्बन्ध हैं...!

Wednesday, February 15, 2012

....क्या मिला तुम्हें





....क्या मिला तुम्हें !
हर शाम अब दरवाज़े पर दस्तक न होगी-
ठहाकों की गूँज , हंसी की फुल्जडी न होगी
अब कौन कन्धों पर उन्हें अक्सर घुमायेगा
ऊँगली पकड़के उनकी, उन्हें चलना सिखाएगा
लाठी बनेगा कौन बुढ़ापे की उनकी -
कौन कन्धों पर रखकर उन्हें शमशान ले जायेगा
बहकावे में आ तुमने, उजाड़े हैं कई घर ....बोलो
....क्या मिला तुम्हें!
सपनों को कहाँ खोजें, नैनों में जो भरे थे
आंसू ही जिनके जीवन की अब धरोहर हैं
मासूम सी आँखों में -सवाल उठ खड़ा हुआ है
क्यों यह हुजूम आज मेरे घर में यूँ उमड़ा है ...
खिलने के दिनों में ,उजाड़े कई बचपन ....बोलो
....क्या मिला तुम्हें!
जीवन तो यूँही चलता है ...
फिर चलता रहेगा...
ज़ख्मों को ढांप हर कोई यूँ बढ़ता रहेगा-
दहशत ने रोका है कभी, न रोक पायेगा !
जीना तो है ज़रूरी - तू भी जान जायेगा !!
फिर अपनी आत्मा को बेच ...
.....क्या मिला तुम्हें -
लाखों की बददुआ को सींच...बोलो
....क्या मिला तुम्हें !!!!

Saturday, February 4, 2012

खोज

शाख के उस एक पत्ते पर शेष बचा वह जलबिंदु
अब भी झूल रहा है, गिरकर बिखरने का डर उसे नहीं,
उसे बचाओ...अंतर की चीख सुन ,
एक ऊँगली का सहारा दे, प्रकाश स्त्रोत के समक्ष
नेत्रों के धरातल पर रख देती हूँ -
देखती हूँ,
स्त्रोत से फूटी किरनें, बिंदु से उनका टकराव-
फिर चारों ओर छितरे, असंख्य प्रकाश कण !

बिंदु एकाग्र है !
ऐसी ही किरणों से टकरा, असंख्य बिंदु शाख से टपक
घास पर बिछे हैं, गीली ज़मीन पर चू पड़ने के लिए-
केवल यह बिंदु जीता है .


बिंदु का हृदय बींधते सात रंग, थिरक रहे हैं उंगलिओं के कम्पन से -
कम्पन बढ़ता है, वह पोर से ढुलक,
 हथेलियों को चीरता हुआ ,
ज़मीन पर चू पड़ता है, एक धारा बन -
मैले हाथों पर बनी एक लकीर- उसके अस्तित्व का अवशेष.
कहाँ खो गया है वह, जिसे आज भी
उन असंख्य बिन्दुओं के बीच ढूंढ रही हूँ

Friday, February 3, 2012

रिश्ता


आंसूओंसे अजीबसा रिश्ता कैसा
मेरी हर आह से बेसाख्ता जुड़े रहते हैं
ज़रा सी टीस दरीचोंसे झांकती है जब
मरहम बन उसे ढकने को निकल पड़ते हैं....
जब कभी चाहूँ मैं रोकना पीना उनको
हर हरी चोट को नासूर बना देते हैं...
जमकर बर्फ हो गए सर्द लम्हों को
अपनी बेबाक तपिश्से जिला देते हैं....
फिर तड़प का वही सिलसिला रवां करके
किसी मासूम की आँखों से ताकते मुझको -
मानो मेरा दर्द और तखलीफ़ देखकर वह-
कुछ शर्मसारसे निगाहों को झुका लेते हैं.


कविता क्या है ..


कविता अभिव्यक्ति है -
एक क्षण की - एक अनुभव की- एक सोच की ..
क्षमता है -
दूसरे के दर्द को आत्मसात कर , व्यक्त करने की....
कविता अनुभूति है -
ब्रह्माण्ड से एकरूप होनेकी -
आस्मानोंको छूनेकी, सागर की तह तक पहुंचनेकी.....
कविता
अकेलापन की साथी है -
ख़ुशी ,उन्माद, और शांति का पर्याय है -
जीवन का एक शाश्वत रूप है !!!!!  

Thursday, February 2, 2012

एक पहल...

५४ साल लम्बी यादें........उतार चढ़ावों से भरीं, जिसमें बहुत कुछ बीता.....
कुछ फाँस सा असहनीय पीड़ा दे गया ....
कुछ अनायास ही खिल आनेवाली मुस्कराहट का सबब बन गया....
कुछ एक कविता बन मुखरित हो गया...
कुछ , बस यूहीं धूप में छाँव सा ठंडक पहुंचा गया ......
और यादों का यह काफिला , पृष्ट दर पृष्ट पूरा जीवन बन गया
जिसमें गाहे बगाहे, कुछ सुरीले, सुखद क्षण,
.....मेरे हिस्से की धूप बन गए.....