तुम्हारा यह कहना की तुम्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
......तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
दिन की पहली चाय का पहला घूँट तुम ले लो -
मेरे इस इंतज़ार से
..... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
तुमसे अकारण ही हुई बहस से -
माथे पर उभरीं उन सिल्वटोंसे
.....तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए , दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से
....... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
इस तरह ..रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बातसे तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
फिर जीवन के अहम् निर्णयों में -
कैसे मान लूं ...की तुम्हे फ़र्क नहीं पड़ता ......
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर संध को भर
उसे मज़बूत बनाता है .....
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी छोटी खुशियाँ उसपर खिलकर
उस रिश्ते को सम्पूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
जो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं ...!!!!