Thursday, December 13, 2012

'फ़र्क पड़ना '




तुम्हारा यह कहना की तुम्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
......तुम्हे फ़र्क पड़ता है  !
दिन की पहली चाय का पहला घूँट तुम ले लो -
मेरे इस इंतज़ार से
..... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
तुमसे अकारण ही हुई बहस से -
 माथे पर उभरीं उन सिल्वटोंसे
.....तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए , दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है  इस बात से
....... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
इस तरह ..रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बातसे  तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
फिर जीवन के अहम् निर्णयों में -
कैसे मान लूं ...की तुम्हे फ़र्क नहीं पड़ता ......
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर संध को भर
उसे मज़बूत बनाता है  .....
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी छोटी खुशियाँ उसपर खिलकर
उस रिश्ते को सम्पूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
जो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं  ...!!!!

Monday, December 10, 2012

चिंताएँ




कितनी उर्वरा होती है वह ज़मीन -
जहाँ बोते हैं हम बीज
चिंताओंके ---
बेटे की बेरोज़गारी -
घर की दाल रोटी-
बेटी की शादी -
रिश्तों में अविश्वास-
किस्म किस्म के बीज.....
देखते ही देखते
एक जंगल खड़ा हो जाता है -
एक घना जंगल-
चिंताओंका -
एक चलता फिरता जंगल-....

हम सब उस बोझ को ढोकर-
घूमते रहते हैं -
दिनों ..महीनों..सालों ...
जंगल गहराता जाता है -
बोझ बढ़ता जाता है
और कंधे झुकते जाते हैं...

क्यों न हम काट छांटकर
तराश दें उसे
और जंगली बेतरतीब बोझ को
उतार फेंके -
हाँ -
चिंताएँ फिर उग आएँगी
उस उर्वरा ज़मीन पर !
लेकिन हर चिंता का समाधान है -
उसे सिर्फ खोजना है ...तराशना  है....
और अपने बोझ को हल्का करते जाना है ....

Sunday, December 9, 2012

नासूर




टीस सी उठती है जब रगों में दौड़ता है धुआँ
जो तुम्हारी सिगरेट से निकलता हुआ
मुझे हर पल, हर घडी अहसास दिलाता है
कि तुम्हारा शौक हमें दूर कर देगा ....

कभी यह धुआँ तुम्हारे पास होने का अहसास दिलाता था
तब नित नए आकार खोजा करती थी उसमें ...
लेकिन अब तो बस दिखती हैं -दो धँसी ऑंखें
तीन अंतहीन खोहों  वाला चेहरा .....

क्यों नहीं सुन पाते उस आवाज़ को
जब मन चीखता है हर कश की टीस से
क्यों नहीं देख पाते वह बेबसी
जो हर सिगरेट के जलने से बुझने तक -
अविरल बहती है मेरी आँखों से ....
क्यों तुम हो जाते हो इस कद्र खुदगर्ज़
कि मेरी तड़प तुम्हे दिखाई नहीं देती .....

ऐसा तो नहीं कि तुमसे कुछ छिपा हो -
उन मनहूस पलों में जब रूठे हो तुम मुझसे अकारण ही -
अनगिनत सिगरेट एक कतार से पीते हो .....
हथेलियों  को कोंचती हूँ मैं सुइयों से
कि भीतर कि टीस कुछ कम हो .....

हर कश से वह टीस नासूर बनती  जाती है
मेरा दिल ...मेरी आत्मा किसी खोह में धंसती जाती है
पुकारती हूँ हर बार बेबसी से लेकिन
मेरी आवाज़ तुम्हें छूकर गुज़र जाती है -
एक ही बार सही ....मुड़के तो देखा होता
इस पार से आती उस आवाज़ को जाना होता ....

सुनो !
अब भी नहीं हुई है देरी -
सूरज अब भी नहीं डूबा है
अब भी हवाओं में जीवन की महक बाक़ी है
आओ मिलकर कोई और सहारा खोजें
'यह सहारा ' तो जीवन  से बेवफाई है ...!

Friday, November 30, 2012

स्मृतियाँ




कभी कभी स्मृतियाँ-
दबे पाँव आकार -
एक पत्थर फ़ेंक जाती हैं
उस शांत नीरवता में -
जिसे हम सबकी नज़रसे-
अपनी नज़रसे -
ओझल कर -
इस मुग़ालते में जीते हैं -
की हम भूल गए उन्हें .
लेकिन सच तो यह है -
कि उस छिड़ी सतह पर उभरा मैल -
पुन: जिला देता है
उन कड़वाहटओं   को-
जिन्हें उन्हीं स्मृतियों में लपेट
दफना आए थे हम !
और फिर झेलना होता है
एक लम्बा दौर
उस मैल के साफ़ होने का -
रिश्तों के स्थिर होने का ......


Thursday, November 8, 2012

विरह







 स्टेशन के उस पीपल के नीचे -
एक छोटीसी गृहस्थी बसा
रहती आई है वह-a
पिछले पच्चीस वर्षों से -
हर सवेरा एक जीने की उम्मीद बनकर आता
और हर रात मौत का सदक़ा बन जाती !
जीने मरने का यह क्रम -
अविरल..अविरत... चलता हुआ-
आनेवाली हर ट्रेन से बंधती आस -
लौट आती ...
सूनी पटरियों से खुद को बटोरती हुई .....
और यह क्रम यूहीं चलता रहता ....
कौन था वह ...
जो कर गया
यह लम्बा विरह उसके नाम !!!

Wednesday, November 7, 2012

नारी विमर्श -




आज  से ६ दशक पहले , प्रसिद्द विचारक सार्तरे न कहा था की स्त्री शक्तिरूप है -उसके अन्दर आत्मविश्वास  और शक्ति का ऐसा स्त्रोत है जिसकी कल्पना  भी नहीं की जा सकती . वह क्या नहीं कर सकती - उसके अन्दर एक ऐसा सुप्त ज्वालामुखी है जो समय आने पर  कहर बनकर फट सकता है . वह मुश्किल से मुश्किल कार्य को सहजता से कर लेती है जबकि पुरुष हार मान लेता है .
हमारे शास्त्रों में स्त्री को शक्ति और दुर्गा का रूप माना गया है , लेकिन जब उसे कदम कदम पर प्रताड़ित होता देखते हैः तो अनायास ही यह प्रश्न फन फैलाकर खड़ा हो जाता है की नारी की इस दशा के लिए कौन दोषी है !!!!
इसकी जड़ तक पहुँचने में पर्त दर पर्त खुलती जाती है और दृष्टिगोचर होता है वह सामाजिक ढांचा जिसे हमने रुढियों का जामा पहना रखा है. स्त्री ने हर कदम पर प्रताड़ना सही ...स्त्री पुरुष के बीच का भेदभाव उसके जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता है .....तभी तो गर्भ में ही उससे जीने का अधिकार छीन लिया जाता है ...जो पैदा हो जाती हैं...कूड़े के ढेर पर अध् खाई, अध् नुची पाई जाती हैं..और जो बच जाती हैं उन्हें बचपन से ही सहनशीलता की घुट्टी पिलाई जाती है ...छोटे छोटे सुखों से कदम कदम पर वंचित रखा जाता है .....वह खेलना चाहती है , तो छोटे बहाई बहनों का भार उसपर थोप दिया जाता है ...पढ़ना चाहती है तो भाई की पढाई को प्राथमिकता दी जाती है ...पढ़कर क्या करना है ...चूल्हा देखो ..घर संभालो...और वह इच्छाओं को उसी कच्ची उम्र से तिलांजलि देना सीख जाती है
वह देखती है की घर के सारे निर्णय घर के पुरुष लेते हैं ...घर की स्त्रियों से सलाह करना अपना अपमान समझते हैं ...उसके साथ पल रहा उसका भाई भी यही देखता है और अनजाने ही घर की स्त्रियों के प्रति एक हीन भावना ...बचपन के कच्चे मन पर अंकित हो जाती है ....और वह  बड़ा होकर अपने बड़ों का अनुसरण करता है .....
पुरानी मान्यताएं जैसे बेटा ही मुंह में पानी  डालेगा उसे एक 'पीठिका' पर रख देते हैं और वह अपने को ऊंचा और घर की स्त्रियों को गौण समझने लगता है ...और इसके विपरीत उस बालिका को असंख्य बार समझाया जाता है की अपनी इच्छाओं को दबाना सीखो ...दूसरे घर जाना है ....
सहसा ही वह बच्ची दूसरे घर जाकर एकदम से बड़ी हो जाती है ....भाई और पिता के संरक्षण से निकलकर पति और श्वसुर के संरक्षण में पहुँच जाती है ...वहां वही सब फिर दोहराया जाता है .....इसमें सास और नन्द की जलन और डाह का भी समावेश होता है ....वह कुंठित होकर रह जाती है
इस कुंठा की सबसे बड़ी वजह है , साक्षरता की कमी अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता ,और अपने प्रति सम्मान की कमी.

 औरत जब तक अपना सम्मान स्वयं नहीं करेगी कोई और उसे वह मान नहीं देगा ..यह दुनिया की रीत है ...जब तक उसके अन्दर, समाज के अन्दर उसके अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं आयेगी उसका यही हश्र होगा .पुरुष को यह समझना होगा की वह अकेला कुछ नहीं कर सकता ..उसे कदम कदम पर स्त्री की आवशयकता है - वह उसकी अर्धांगिनी है ...उसकी शक्ति है ...उसकी हमदर्द है ..उसकी माँ, सखा ,प्रेमिका, पुत्री, उसके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है ...और यह भावना तभी आ सकती है जब स्त्री अपना सम्मान करना स्वयं सीखे .....अगर वह अपने आपको पावदान  बनाकर रखेगी तो आजीवन पावदान ही बनी रहेगी ..उसे  अपना स्थान खुद चुनना होगा ...लेकिन यह तभी मुमकिन है जब वह खुद साक्षर हो...अपने अधिकारों को पहचाने...तभी वह अपनी बेटी को सम्मान से जीना सिखा पायेगी ...अपने बच्चों को सही संस्कार दे पायेगी ...तभी अपने बेटे को बता पायेगी की यह तुम्हारी बड़ी बहन है ...इसका आदर करना सीखो.
औरत सिर्फ पालना ही नहीं झुला सकती वह देश को चला सकती है , वह अंतरिक्ष में उड़ान भार सकती है , वह पर्वतारोहण कर सकती है , वह आकाश में उड़ान भार सकती है , समुन्दर की गहरायी नाप सकती है , वह शातिर से शातिर बदमाशों को काबू कर सकती है ,  वह विषम से विषम परिस्तिथियों से डटकर मुकाबला कर सकती है ......
तभी वह श्रीमती गाँधी,  बछेंद्री पाल, कल्पना चावला, किरण बेदी , बरखा दत्त बन सकती है....वह पुरुष के वर्चस्व में सेंध लगा चुकी है   .
इतनी कार्य क्षमता होते हुए भी वह प्रताड़ित है , दहेज़ के नाम पर आज भी जलाई जाती है , क्योंकि आज भी पुरुष के नज़र में उसके लिए सम्मान की कमी है ...उसे यह समझना होगा की उसकी भी इच्छाएं है, सपने हैं, आकांक्षाएं हैं , कुछ करने की ललक है ...समझना होगा की वह एक संगिनी है , खूंटे से बंधी गाय नहीं ..कदम कदम पर साथ देने वाली बैसाखी है .
फिर सम्मान के साथ आयेगी समता, हर जगह बराबरी का हिस्सा देकर ही उसे उसकी सही ताक़त का, उसके अनुभव उसके योगदान का आस्वाद पुरुष वर्ग को मिलेगा और तब उसे अहसास होगा उसकी क्षमता का .
 फिर आती है स्वाबलंबन की बारी .जब तक स्त्रियों के अन्दर यह भावना तीव्र नहीं होगी तब तक वह घर की दहलीज़ पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगी ...उस गुंजलक को तोडना ज़रूरी है जो परम्पराओं ने हमारे इर्द गिर्द बना रखा है ...उस कुंडली को तोड़कर ही हम शोषण के विषैले पाश से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं.
और हमारी आज की नारी ...इस बंधन से मुक्त होनेमें सफल भी हुई है . वह निकली है घरोंसे, गलियोंसे, शहरोंसे, देशों से ..लेकिन कुछ महत्वाकांक्षी स्त्रियों ने अपनी कामना की पूर्ति के लिए कुछ ऐसे सामाजिक बन्धनों को तोडा है , जो उसकी सुरक्षा के लिए बने थे . बन्धनों से मुक्त  होने की जल्दबाजी में उन्हने मान्यताओं को ताक पर रख दिया है ...उचित अनुचित की पहचान खो दी है .  महत्त्व पाने की कामना और त्वरित लाभके उद्देश्य से आज औरत ही औरत का शोषण करने लगी है इसलिए  आवश्यक है जागरूकता और संगठित होना .
नारी ब्लॉग वह संगठन है जहाँ हम सब मिलकर अपनी योग्यता को पहचाने .....एक दूसरे को सही  रास्ता दिखाएं...अपने मौलिक अधकारों से रूबरू हों .   परिस्तिथियाँ बदल गयीं हैं
आज नारी को  हाशिये पर नहीं रखा जा सकता ...वह ज़माने गए जब उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं थी ..अपने विचार नहीं थे ...जहाँ उसे बोलने की , अपने विचार व्यक्त करने की स्वंत्रता नहीं थी ..आज वह सशक्त है , आज उसकी अपनी अस्मिता है ...उसकी अपनी आवाज़ है ...एक सोच है ....जो वर्षों के अनुभवों का निचोड़ है ..और आज तो पुरुष भी उसके योगदान को पहचानने लगा है ...मान्यता देता है ..उसकी सोच को इज्ज़त देता है ...उसके विचारों का मान रखता है ...आज वह उसकी बैसाखी है ...जिसके सहारे के बगैर ....वह आगे नहीं बढ़ सकता .....कोई  भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता ....
आज वह उस अनुकूलन , उस कंडिशनिंग से मुक्त हो गयी है ....जो उसे बचपन से घुट्टी बनाकर पिलाई जाती थी ...उसीके फलस्वरूप वह एक सहचारिणी , एक मित्र, एक सखा बन गयी है ...केवल एक अनुगामिनी नहीं .  

Friday, November 2, 2012

ताप -




मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
ताकि जग का ताप हर लूं -
ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
 ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..

लेकिन यह क्या ...!
मैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!

खेत भी त्राहि त्राहि कर उठे -
फुनगियों पर रुका अनाज
मुरझाकर झड़ने लगा
विक्षिप्त व्यथित कायाएं
रोग ग्रस्त हो गयीं....

यह मैंने क्या किया !
नहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
जग को जीवन देते हो  ---
तपना ही तुम्हारी नियति है

और मेरी ....
धरती बन .....
सांझ को घर लौटने पर
उस ताप पर ....
मरहम बन जाना ......!!!

Wednesday, October 31, 2012

एक प्रेम कविता ....



आज सोचा चलो एक प्रेम कविता लिखूं ..... 
आज तक जो भी लिखा -
तुम से ही जुड़ा था  -
उसमें विरह था ...दूरियां थीं...शिकायतें थीं..
इंतज़ार था ...यादें थीं..
लेकिन प्रेम  जैसा कुछ भी नहीं ....
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं-
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी ...
हम थे...
नींद  में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर ...
सिरहाना बना  ..आश्वस्त  हो सोई  हूँ .....
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी ...
और पहुँचते ही महायुद्ध !
तुम्हारे कहे बगैर -
तुम्हारी चिंताएं टोह लेना-
और तुम्हारा उन्हें यथा संभव छिपाना
हर जन्म दिन पर रजनी गंधा और एक कार्ड ...
जानते हो उसके बगैर -
मेरा जन्म दिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथले
चांदनी रातों में नहीं घूमे-
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो ..
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे....
यही तै किया था -
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद -
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्ही आदतों में
जाने कब --
प्यार शुमार हो गया -
चुपके से ...
दबे पाँव.....

Saturday, October 27, 2012

घुटने-




जब पहली बार चला था वह-
घुटने घुटने -
एक आज़ादी का अनुभव किया था उसने -
पालने की क़ैद से निकलकर-
ठन्डे फर्श का स्पर्श !
और माँ बाबू के दिल में उठती -
ख़ुशी की हिलोरों का स्पर्श !
कितना सुखद था सब -

फिर दौड़ते भागते
गिरते पड़ते -
चुटहिल घुटनों पर
माँ का वात्सल्य भरा स्पर्श
सारी पीड़ा हर लेता ...
माँ के पास समय का आभाव अक्सर रहता
घरों का झूठा बासन जो निबटाना था -
घुटनों का टूटना -
माँ का कुछ समय उसकी झोली में डाल जाता !

फिर माँ चल बसी -
उन्ही घुटनों में सर छिपा
घंटों रोया था वह !
अब तो उन्ही का सहारा था -

शीत की ठिठुरती रातों में
इन्हीं घुटनों से पेट ढक सोया था -
और भींच उन्हें अपनी आँतों से
बिताईं थीं अनगिनत भूख से कुलबुलाती रातें
बोझा ढोते हुए
इन्हीं घुटनों ने अक्सर
कन्धों को आश्वस्त किया था !

पर आज -
उम्र के आखिरी पड़ाव पर
इन्हीं टीसते घुटनों को
जीवन का अभिशाप बताता है वह !!



Monday, October 8, 2012

क्षणिकाएँ -



 बड़प्पन

लोग भी नासमझ होते है -
बड़ा बनने की होड़ में
अक्सर कभी छोटी कभी ओछी बातें कर बैठते हैं ..
काश यह जाना होता कि
बड़ा बनने के लिए
सिर्फ एक लकीर खींचनी होती है -
दूसरे के व्यक्तित्व के आगे -
अपने व्यक्तित्व कि एक छोटी लकीर ...!


ज़रुरत

सुना था कभी -
शरीर के अनावश्यक अंग झड जाते हैं -
और जिन्हें इस्तेमाल करो -
वे हृष्ट पुष्ट हो जाते हैं ....
मैंने हाल ही में-
दीवारों के कान उगते देखे हैं !

Wednesday, October 3, 2012

हाइकू - मृगतृष्णा




क्यूँ मृगतृष्णा
भटकाए वनों में
बढ़ाये आस  !

क्यूँ मृगतृष्णा
सदैव मिलन की
जगाये आस !

क्यूँ  मृगतृष्णा
अंतिम उम्मीद की
जिलाए आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
जीने की हरदम
आखरी आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
मंजिल को पाने की
जगाये आस !

क्यूँ मृगतृष्णा
तरसा तरसा के
हराए आस !


Thursday, September 27, 2012

घटनाक्रम -





वह पेड़ देख रहे हो
उसे कई बार भींचकर जोर से चीखी हूँ  ख्यालों में ...
डरती हूँ ...
किसीने देख लिया तो -
कैसे छिपा पाऊँगी वह दर्द-
किसीने सुन लिया तो -
कहाँ छिपा पाऊँगी-
 गूँज, उस चीख की जो मेरे भीतर पैठी है ...
कैसे बता पाऊँगी -
की मैं भी जीती हूँ -
तुम्हारे समक्ष एक बौना अस्तित्व लिए जीती रही मैं
लहु लुहान हो गिरती रही उन टीलों पर-
जो तुम्हारे अहंकार ने खड़े किये .
तौलते रहे तुम -
हमेशा -
मेरे शब्दों को -
मेरी मंशाओं  को -
और मैं , डरी सहमी जीती रही
तुम्हारे मापदंडों पर कमतर न होने  के भय से..
कभी बोल न सकी वह , जो मेरे मन ने कहा ..
छोटी इच्छाएं मारीं -
एक बड़ी ख़ुशी के लिए ..
जो  मिलीं , पर टुकड़ों में-
हर दो टुकड़ों के बीच , एक लम्बी यातना -
एक असह्य पीड़ा उन टीलों को तोड़ते हुए होती -  
जो तुम्हारी ग़लतफ़हमियों ने खड़े किये थे -
सच जानते हुए ..उसे सदा नाकारा
एक झूठ का जाल बुनकर -
उलझते गए....जकड़ते गए ...
फिर उस जाल को काटने का एक और सिलसिला -
जो अविरल चलता ....
फिर टूटते, बिखरते  समटते हुए खुदको
फिर लहूलुहान होती तुम्हारे तानों कटाक्षोंसे  ......

बस यूहीं-
वर्षों से चलते आ रहे इस घटनाक्रम में
कुछ हिस्से छूटते गए --
और मैं अधूरी होती गयी...
                  और अधूरी .......
                         और अधूरी ....!

Tuesday, September 25, 2012

टीस-





दरवाज़े की घंटी लगातार बजती जा रही थी....चौके से हाथ पोंछती हुई मैं दौड़ी
- " रही हूँ , रही हूँ "
दरवाज़ा खोला . सामने एक अधेड़ महिला खड़ीं थीं . उम्र यह कोई ४०, ४५ वर्ष, लेकिन.... शायद   परिस्तिथियां उम्र पर हावी हो रही थीं.
"जी हाँ कहिये" . मैंने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा .
"पहचाना नहीं ना"...उसने मुस्कुराते हुए कहा . मैं कोशिश कर रही थी .
"पहचाना नहीं ना "..अब उस मुस्कराहट में एक वेदना साफ़ झलक रही थी . कोशिश अब भी ज़ारी थी . पहचान पाने की झेंप चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रही थी .
" पहचाना नहीं ना "...और वह फपक  फफककर  रो पड़ीं
मेन डोर सीधे ड्राइंग रूम में खुलता था . मम्मी वहीँ बैठी कोई किताब पढ़ रही थीं .वह स्त्री मम्मी को देख बेतहाशा उनकी और बढ़ी . तब तक मैं वहीँ दरवाज़े पर खड़ी उस औरत को पहचानने की कोशिश  करती रही .
"कौन"...मम्मी ने पूछा. "सुमन तुम !"  
उनकी आवाज़ में आश्चर्य और विस्मय का पुट था .
"सुमन तुम तो ..."
" हाँ भाभी, पहचान में ही नहीं रही , देखिये भाभी क्या हालत हो गयी है मेरी. क्या से क्या हो गयी हूँ. अब तो मेरी सूरत भी पहचान में नहीं आती "...और उसकी हिचकियाँ बंध गयीं.
मैं आश्चर्य से यह सब देख रही थी . विश्वास नहीं हो रहा था की यह वही सुमन आंटी हैं !

 तब मैं सातवीं में पढ़ती थी. पापाके एक पुराने मित्र थे , पुनीत पुरोहित . उनका घर पर अक्सर आना जाना था. वे जाने माने अस्ट्रोलोजर थे. वैद्यकी भी करते थे. पता नहीं क्यों लेकिन मुझे हमेशा ही उनसे डर लगता था. वे बिलकुल काले ,दुबले और लम्बे से थे , शरीर तना हुआ जैसे कभी झुकना सीखा ही हो. एक मेल शोविनिस्ट का जीता जागता रूप. लेकिन पापा के परिचित थे इसलिए शिष्टाचार तो निभाना था .
एक दिन बहुत ही स्मार्ट युवती को लेकर घर आये. ऊंची एड़ी की आधुनिक कीमती सेंडल, सुन्दर डीलडौल, चमकदार रंग , गालों पर सेहत का निखारआत्मा विश्वास से भरपूरबड़ा कौतुहल हुआ , ऐसे इंसान के साथ यह कैसे .?
वह कुछ तीखे स्वर में उनसे कह रही थी .
"पुनीत ! उस आदमी की इतनी मजाल, वह दो कौड़ी का इंसान अपने आप को समझता क्या है ..." वह गुस्से से बोलती जा रहीं थी और अंकल उन्हें शांत कराये जा रहे थे . फिर पता चला , अंकल ने उनसे शादी कर ली थी .सुनकर और आश्चर्य हुआ.
अंकल तो शादी शुदा थे , गाँव में उनका एक बेटा भी था ...फिर यह कैसे ?
उस उम्र में कौतुहल इसके आगे कभी बढ़ा ही नहीं .
धीरे धीरे उनका आना जाना बढ़ गया . वह घर की एक सदस्या बन गयीं. फिर तो अक्सर ही दोनों हमारे घर आते, रात का खाना पीना साथ होता और वह लोग वहीँ सो जाते.
आंटी से पता चला की वे एक बहुत ही कट्टर ईरानी परिवार से थीं . इतने  कट्टर की अगर उनके भाइयों को पता चल जाता की वे कहाँ हैं तो उनके टुकड़े टुकड़े कर देते .वे अक्सर कहतीं "अगर मैं अपने बिरादरी वालों के हाथ लग गयी तो वे मेरा संगसार कर देंगे ...मुझे पत्थरोंसे मार मारकर ख़त्म कर देंगे ".सुनकर दहशत होती . अचानक वह पूरा दृश्य , उसकी बर्बरता आँखों के सामने नाच जाती ...बड़ा भयानक लगता . लेकिन उनकी मुस्कराहट देखकर लगता  वह ऐसे की ठौलबाज़ी कर रही हैं ...मज़ाक कर रही हैं . अगर ऐसा होता तो इतने आराम से थोड़ी बता रही होतीं
 फिर उनके एक बेटा हुआ. बहुत ही प्यारा ,बहुत ही सुन्दर . इतना सुन्दर बच्चा हमने पहले कभी नहीं देखा था. सुंदर ,गोरा, हृष्टपुष्ट . जब वह मुस्कुराता तो देखनेवालों की ऑंखें उसके गालों के गढ़हों में धंस जातीं. किलकारियां मारता तो उस पर इतना प्यार आता की दांत  भींचें भींचें जबड़ा दुःख जाता. कभी रोते नहीं देखा उसे ...बहुत ही खुशमिजाज़ ...राह चलते अनजान लोग भी रूककर उसे पुचकारने से अपने को रोक पाते.

बस ऐसे ही समय बीतता गया . कभी कभी आंटी  मजाक करतीं , " पता नहीं इस कलुए के चक्कर में कैसे पड़ गयी. मेरे लिए तो इतने सुन्दर सुन्दर लड़कों के रिश्ते रहे थे  ज़रूर जादू टोना करके मुझको फाँसा है".
धीरे धीरे हंसी में कही गयी बातों में अब तल्ख़ी नज़र आने लगी. बातें अब भी वही थीं लेकिन सुर बदला हुआ था ." मैंने तो अपनी जिंदगी बर्बाद कर दी इस आदमी के चक्कर में . पता नहीं मेरा ही दिमाग ख़राब हो गया था . इसने मुझपर जादू टोना किया था वरना मुझे क्या दिखा इसमें .मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की इससे शादी करके .....". और समय के साथ साथ शिकायतों का दौर बढ़ता गया .
उन्ही दिनों हम लोगों ने एक नया फ्लैट ले लिया और हम लोग गोरेगांव से बांद्रा शिफ्ट हो गए . अंकल आंटी कुछ समय तक आते रहे फिर धीरे धेरे उनका भी आना कम हो गया . वर्ष बीतते गए और नई स्मृतियों ने विगत स्मृतियों को पीछे धकेल दिया.
आज अचानक वे सारी स्मृतियाँ कतारबद्ध सी आँखों के सामने से गुज़र गयीं .

दरवाज़ा बंद कर मैं भी मम्मी और आंटी के पास जा बैठी . आंटी लगातार रोये जा रही थीं .."भाभी मैंने तो अपनी ज़िन्दगी किसी तरह घिसट घिसट कर , मार खा खा कर , उसके ज़ुल्म सह सहकर काट दी . लेकिन जब उस बच्चे को देखती हूँ तो कलेजा मुँह को आता है . अभी उसकी उम्र ही क्या है . साल का बच्चा , मोहल्ले की सारी शराब की दुकानें पहचानता है...गन्दी गन्दी हौलीयों के चक्कर काटता है
वह उसे मार मारकर भेजता है ..मेरे लिए शराब ला ..."
"वह मासूम बच्चा मार के डर से उन गन्दी गन्दी जगहों से उसके लिए शराब की बोतलें लाता है . वह पढ़ने बैठता है , तो उसे मार मारकर उसकी किताबें फ़ेंक देता है . उस बच्चे के चेहरे पर डर जैसे छप सा गया है...आँखों की खोह में दहशत तैरती रहती है . नींद में चौंक चौंककर उठ जाता है ..उस वहशी ने मेरे बच्चे को डर का एक जीता जागता रूप बना दिया है ...आँखों के नीचे काले गड्ढे ...
हमेशा सहमा सहमा सा रहता है वह घर में ....मैं क्या करूँ भाभी मुझसे नहीं देखा जाता ...मुझसे मेरे बच्चे की यह हालत नहीं देखी जाती . वह फूल सा बच्चा कुम्हला गया है . मैं क्या करूँ भाभी , सोचती हूँ उसे ज़हर दे दूं और खुद भी ज़हर खा लूं . लेकिन उसकी मासूमियत देखकर लगता है , मैं माँ हूँ उसकी ...ऐसा सोच भी कैसे सकती हूँ ...भाभी लेकिन मैं क्या करूँ ...वह ऐसे नहीं तो वैसे मर जायेगा , भाभी  उसे बचा लीजिये ".
"मैं सेल्स्वोमन की तरह घर घर जाती हूँ , दो पैसे कमाती हूँ , अपने बच्चे को पढ़ा सकूं - लेकिन वह सारे पैसे छीनकर शराब पी जाता है ".

यह सब देख दिल द्रवित हो गया . अपने सुरक्षित परिवार में रहते कभी नहीं जाना था की परिवार ऐसा भी हो सकता है . पिता इतना वीभत्स इतना घृणित कैसे हो सकता है ..क्या बच्चे का संरक्षण माँ का ही जिम्मा है ......क्यों सिर्फ उसका जी दुखता है अपने बच्चे के लिए ..क्यों उसकी आँखें टीसती हैं उसके आँसूओंसे ......बहुत कुछ घुमड़ता रहा भीतर .

वह विलाप करतीं रहीं . कहीं मम्मी भी असमर्थ लगीं . वह भी पापा के अधीन थीं. यह तो एक ऐसा कुचक्र है जो अविरत चलता आया है , चलता रहेगा . वह जानती थीं वह कुछ नहीं कर सकतीं . बस उनकी पीठ सहलाकर उन्हें चुप करा सकतीं थीं ...और  यही वह कर रही थीं.