Saturday, March 31, 2012

विषमता










ज़िन्दगी -
एक रुंधे गले सी !
टहलती हूँ तो वे यादें...
बैठती हूँ तो वे क्षण ...
सोचती हूँ तो वे तकलीफें
मेरे इर्द-गिर्द एक गुंजलक बना जाती हैं
इनसे मुक्त होने की चेष्टा में,
और अधिक जकड जाती हूँ गहरी डूबती जाती हूँ ...
फिर तुम-
तुम मुझे तार तो सकते नहीं
फिर क्यों डुबोने के प्रयास में जुटे रहते हो ?
सहारा दो -
क्या इसके लिए भी कहना पड़ेगा...
सोच क्या रहे हो ?
तोड़ दो यह गुंजलक
एक बार फिर ...
वही स्पर्श दोहराओ,
जिसे मैं भूलती जा रही हूँ !

23 comments:

  1. आह ! कितनी वेदना और पुकार …………सुन्दर भाव्।

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  2. बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

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  3. bhawvibhor kar diya aapki abhiwaykti ne.....

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  4. दूरी असहनीय है.................

    बहुत सुन्दर....

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  5. सुंदर भावाभियक्ति!! बहुत खूब.

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  6. Mann ko chhu gai aapki abhivyakti....
    एक बार फिर ...
    वही स्पर्श दोहराओ,
    जिसे मैं भूलती जा रही हूँ !

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  7. तुम मुझे तार तो सकते नहीं
    फिर क्यों डुबोने के प्रयास में जुटे रहते हो ?
    सहारा दो -
    क्या इसके लिए भी कहना पड़ेगा.?
    AAP ITANA DARD KAHAN SE LE AATIN HAIN?
    JIWAN SE JUDE JIWAN KE RANGON MEN RANGI
    KHUBSURAT LADIYAN.

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  8. असहनीय वेदना से भरे व्याकुल शब्द...

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  9. बहुत खूब आंटी!

    राम नवमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!


    सादर

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  10. यादों में कई बार डूबना उतराना पड़ता है. कोमल संवेदनाएँ.

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  11. विस्मृति को विस्मृत करने के लिए खुद आवाज़ देनी होती है ...

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  12. गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति ...
    हार्दिक बधाई.

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  13. कई बार आपकी पोस्ट के लिए शब्द कम पढ़ जाते हैं .....हैट्स ऑफ (बस इतना ही )

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  14. गहन भाव लिए बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  15. एक बार फिर ...
    वही स्पर्श दोहराओ,
    जिसे मैं भूलती जा रही हूँ !... वाह !! क्या बात ... क्या बात ... क्या बात ... :)

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  16. सोचती हूँ तो वे तकलीफें
    मेरे इर्द-गिर्द एक गुंजलक बना जाती हैं
    इनसे मुक्त होने की चेष्टा में,
    और अधिक जकड जाती हूँ गहरी डूबती जाती हूँ ......बहुत ही उम्दा रचना है ,बधाई आप को

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  17. फिर तुम-
    तुम मुझे तार तो सकते नहीं
    फिर क्यों डुबोने के प्रयास में जुटे रहते हो ?
    सहारा दो -
    क्या इसके लिए भी कहना पड़ेगा...
    बहुत सुन्दर रचना ..सरस जी ...कोमल सुन्दर मूल भाव जिन्दगी को संवारती हुयी ..
    भ्रमर ५

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  18. सच कहूँ तो, आपके ब्लॉग का नाम "मेरे हिस्से की धूप" पढ़ कर आई थी, क्योंकि ये नाम मेरे एक पसंदीदा नोवेल के नाम से मिलता है "उसके हिस्से की धूप"...
    आपकी कविता बहुत आच्छे है, कम शब्दों में बहुत कुछ लिख दिया आपने... :)

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  19. सच कहूं तो आपके ब्लॉग का नाम "मेरे हिस्से की धूप" पढ़ कर आपके ब्लॉग में आई थी, ये नाम मेरे एक पसंदीदा नोवेल का भी है...
    आपकी कविता बहुत अच्छी है, कम शब्दों में बहुत सारे अहसास समेट लिए आपने... :)

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  20. कभी कभी बीते हुवे को दोहराना जरूरी हो जाता है ... नवीनीकरण जरूरी होता है .. प्रेम का वही स्पर्श जरूरी होता है ... बहुत लाजवाब रचना ...

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  21. सुन्दर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  22. बहुत बढ़िया रचना,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...

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