दमित इच्छाओं का बोझ ढोता,
थकान निचोड़ फेकने की आशा लिए ,
-वह!!!
उस सुर्ख कालीन की और बढ़ता जा रहा है.
क़दमों के बोझ से दबे कालीन को -
कीमती करार दे-
वह उसके बीचों बीच जा लेटता है.
'दलदल' पर बिछा वह कालीन -
धंसने लगता है.
निरंतर धंसते कालीन पर छाया मटमैलापन
अब उससे छिप नहीं पाता
लेकिन...
उस अहसास को जी लेने की लालसा
उसे बांधे रहती है.
धीरे धीरे कालीन गुम हो जाता है
और आँखों में भर जाती है
दलदल की कालीख!!!!!
भौतिकता के पीछे भागने से क्या हासिल होगा आखिर........
ReplyDeleteसार्थक लेखन सरस जी.
धीरे धीरे कालीन गुम हो जाता है
ReplyDeleteऔर आँखों में भर जाती है
दलदल की कालीख!!!!!
सच तो यही है।
सादर
धीरे धीरे कालीन गुम हो जाता है
ReplyDeleteऔर आँखों में भर जाती है
दलदल की कालीख!!!!!
..vqkt ki yahi maar akhar jaati hain...
bahut badiya rachna!!
धीरे धीरे कालीन गुम हो जाता है
ReplyDeleteऔर आँखों में भर जाती है
दलदल की कालीख!!!!!
....यही तो वक़्त का सच है...बहुत सुंदर रचना...
बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति,बेहतरीन सटीक रचना,......
ReplyDeleteवह उसके बीचों बीच जा लेटता है.
'दलदल' पर बिछा वह कालीन -
धंसने लगता है.
MY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....
लेकिन...
ReplyDeleteउस अहसास को जी लेने की लालसा
उसे बांधे रहती है.
US PAR KYA HAI YAH SAB SAMAJHATE HAIN.
HAMEN BHI MALUM HAI ANT FIR BHI......
दमित इच्छाओं क बोझ .... और उसमें से भी निकाल जीने की आशा ... बहुत अच्छी प्रस्तुति ॥गहन अर्थ लिए हुये ...
ReplyDeleteअक्सर ऐसा ही क्यूँ होता है !
ReplyDeleteगहन भाव लिए हुए उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteकल 21/03/2012 को आपके ब्लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... मुझे विश्वास है ...
उफफ्फ्फ्फ़ बेहतरीन, लाजवाब, शानदार........ऐसी सटीक क्रमबद्ध पोस्ट बहुत दिन बाद पढ़ी है........हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeletebehad prabhawsahsli......
ReplyDeletebahut sundar likhti hai aap,bdhaai :)
ReplyDeleteजीने का दिखावा करते करते ये जिंदगी भी कभी थक जाती है ..... निराशा के उन्हीं पलों का सुन्दर चित्रण किया है आपने.
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