Monday, March 4, 2013

....बोझ




अपने दर्द, अपनी तकलीफें
छिपाने की तुम्हारी हर कोशिश
नाकाम हो जाती है -
जब सोते हुए -
तुम्हारे धूप से झुलसे
माथे की सिलवटों के बीच
छिपी श्वेत गहरायी लकीरें पढ़ती हूँ ...
उस शांत नीरव चेहरे से
रिसती थकान
तुम्हारी तकलीफें  ...
तुम्हारे बोझ को मेरे सामने
उघाड़ देती हैं ....

कितना सहते हो घर से बाहर !
और ऐसे में
जब अनायास ही
तुम्हारी खीज पर बिफर पड़ती हूँ -
तब!
नहीं छिप पाता वह तुम्हारा
टूटकर बिखरना !

तुम मुझसे सिर्फ
सुकून ही तो मांगते हो -
दुनिया से मिले बोझों को
कुछ देर उतारना चाहते हो ...
मेरी गोद में सर रख -
हलके होना चाहते हो !

और मैं...
तुम्हारे तेवर ...
तुम्हारी झुंझलाहट के एवज में -
छीन लेती हूँ -
वह छोटासा सुख !
और पोस्ती हूँ 'अपने' अहम् को !!!

31 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण कविता.

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  2. एक हकीकत को पिरोया है आपने-
    बच्चों की जिम्मेदारी निभाने के बाद-
    जब इक-दुसरे की अधिक जरुरत होती है तब--------

    पोसा जाता इत अहम्, उत एक्स्ट्रा की चाह |
    अपने अपने कर्म पर, रखते युगल निगाह |
    रखते युगल निगाह, घरेलू जिम्मेदारी |
    मिलकर लेते बाँट, नहीं कोई आभारी |
    बढती जाए आयु, बढे कुछ अधिक भरोसा |
    ह्यूमर होता शून्य, अहम् दोनों ने पोसा ||

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  3. बेहद सहज तरीके से माथे की सिलवटों को निहारती पोस्ट.. उम्दा ..

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  4. गहराती अनुभव की सुंदर छटा है आज आपकी कविता मे...
    बहुत सहज और सुंदर अभिव्यक्ति ....
    शुभकामनायें सरस जी ...!!

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  5. उलझे सवाल का उम्दा जवाब .....
    शुभकामनायें!

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  6. सार्थक सीख की और इंगित कराती रचना .... बहुत सुन्दर

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  7. और मैं...
    तुम्हारे तेवर ...
    तुम्हारी झुंझलाहट के एवज में -
    छीन लेती हूँ -
    वह छोटासा सुख !
    और पोस्ती हूँ 'अपने' अहम् को !!!

    एक बेहद गहन तस्वीर पेश की है।

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  8. खूबसूरत भाव. बहुत सुन्दर तरीके से लिखा है आपने. अहम पोसने के अंत ने बता दिया कितनी प्रेम सिक्त कविता है. माथे पर की सिलवटें वाकई कुछ छुपने नहीं रह देती हैं. ग़ालिब का शेर याद आ रहा है -

    वो मेरी चीन ऐ-ज़बीं से ग़म-ऐ-पिन्हाँ समझा
    राज़-ऐ-मक्तूब ब बेरब्ति-ऐ-उन्वा समझा

    (वो मेरे माथे की सिलवटों को देख कर मुझमें छुपा दुःख जान गए
    जैसे ख़त के बेतरतीब तरीके से लिखे शीर्षक से उसमे छुपे असमंजस का पता चलता है )

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  9. परिस्थिति के सवाल का जवाब आसानी से नहीं दिया जा सकता ... आप की परिस्थिति क्या हूँ उस वक़्त क्या पता ... पर जानते समझते हुवे किये कर्म का पश्चाताप होना भी संवेदनशील बनाता है ... इसे बाहर लाने की जरूरत है ...

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  10. जीवन की इस कठिन डगर में जिम्मेदारियों ,
    के बोझ तले उपजे तनाव को कुछ इसी तरह ,
    कम करते आगे बढ़ते जाते हैं........
    पति-पत्नी के बीच यह भी प्रेम का एक रूप है
    सार्थक रचना ,सरस जी

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  11. एक एड आता है टीवी पर मोबाइल फोन का, पति और पत्नी के फोन एक्सचेंज कर देता है बेटा, इस एड को कविता में ढालना होता तो बिल्कुल उसका रूप ऐसा ही होता।

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  12. सच्चाई है ये बहुत ही बेहतरीन रचना ...
    बहुत ही बढ़ियाँ

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  13. यह आँचल की मीठी खुशबू है,जो फ़ैल रही है ...... अहम् से परे,प्यार के आगे

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  14. हमसफ़र ऐसा ही होना चाहिए बहुत ही बढ़िया
    सादर !

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  15. अहम् धीरे धीरे आपस के सम्बन्धों में दरार पैदा कर देता है,,,

    Recent post: रंग,

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  16. गहन भावों से भरपूर कविता!

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  17. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  18. आज की ब्लॉग बुलेटिन ज्ञान + पोस्ट लिंक्स = आज का ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  19. खूब .... सच तो शायद यही है......

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  20. अपने दर्द, अपनी तकलीफें
    छिपाने की तुम्हारी हर कोशिश
    नाकाम हो जाती है -
    जब सोते हुए -
    तुम्हारे धूप से झुलसे
    माथे की सिलवटों के बीच
    छिपी श्वेत गहरायी लकीरें पढ़ती हूँ .

    सुप्रभात
    लकीरों को महसूस करना उसे जीना हुआ तब अहम् नहीं प्रेम और समर्पण छलक जाता है और खीझना ही प्रेम का दूसरा पहलू है।
    आपने मानव मन के गूढ़ भावों को करीब से छुआ है।

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  21. आह!
    चाहे अनचाहे ही , मगर तुम्हारे दर्द को नहीं समझती ,ऐसा नहीं !

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  22. गहरी समझ और मन के जुड़ाव में भी कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ आ जाती है- संवेदनाए गहनतर करती हुई !

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  23. जाने अनजाने कई बार परिस्थितियाँ हावी हो जाती हैं मति भ्रमित करती हैं और बाद में पश्चाताप से मन में ग्लानि होती है इसी ऊहापोह को बहुत खूबसूरती से उतारा है शब्दों में बहुत बहुत बधाई

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  24. बहुत सुन्दर .उम्दा पंक्तियाँ .

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  25. अन्दर दबी हुई कुछ ऐसी ही बातों को उभारती हुई..

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  26. बहुत सुन्दर लगभग हर घर में ये होता है

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  27. आह ...कैसे छूट गई मुझसे इतनी सुन्दर रचना.
    बेहद गहरे भाव संजोय हैं.

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  28. तब!
    नहीं छिप पाता वह तुम्हारा
    टूटकर बिखरना !
    कितने सहज से हैं यह शब्‍द ... पर इनकी गहनता एक आह! के पार पहुँचती है

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