कब समझोगी कि
पुरुषों की नज़र में
तुम्हारी अच्छाइयाँ
तुम्हारी कमजोरियाँ
ही रहेंगी…
हर रूप में हारी हो
बेटी होने के नाते
प्राथमिकताओं से
जो भाई के पक्ष में रहीं…
बीवी होने के नाते
कर्तव्यों से
जो सिर्फ तुम्हारे हिस्से में रहे…
माँ होने के नाते
त्यागसे जो सदा तुम्हारा
फ़र्ज़ रहा…
बेटे और पति की अनबन में
तारतम्य की लचीली
डोर पर,
बिना बाँस चलती रहीं
बार बार गिर
टूटतीं रहीं…
तुम्हारा समर्पण
उछाला जाता रहा
फुटबॉल सा
पाले बदलते रहे
कभी एक की ताकत बनीं
तो दूसरे की…
बिखरतीं रहीं
बार बार सिमटती रहीं
पारे सी…
अनुभव सिखाता है
पर तुम रहीं मूर्ख की मूर्ख
अनुभवों से भी न सीखा...
छीजती रहीं
मिटाती रहीं
अपना अस्तित्व
ओस की बूँद सम...
बिछी रही कदमों में
हरसिंगार सी
बिखेरती रहीं खुशबू
शीतलता, स्नेह ...
तुम्हारे हिस्से क्या आया ?
सरस दरबारी
सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर आभार ...!
Delete
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
08/11/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
जी शुक्रिया ...!
Deleteबिछी रही कदमों में
ReplyDeleteहरसिंगार सी
बिखेरती रहीं खुशबू
शीतलता, स्नेह ...
तुम्हारे हिस्से क्या आया ?
बेहतरीन पंक्तियां
साधुवाद 🙏🍁🙏
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
सादर आभार आदo वर्षा जी
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय ...!
Deleteजी सादर आभार अनीता जी ...:)
ReplyDeleteसच । क्या आया तुम्हारे हिस्से । मर्मस्पर्शी रचना ।
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