बरगद होता है पिता
शाखाएँ फैला
जोड़े रहता है
कुनबे को...
जेठ के ताप
भादों की वृष्टि
पूस के शीत को
कंधों पर रोकता
पालता है
परिवार को....
करता है
अनगिनत त्याग
कहलाता है स्वार्थी ...
झुकता भी है
मिन्नत करता है
साहूकार से
हर निवाले के लिए
और रहता है सदा
उपेक्षित...
नही बाँट पाता अपना स्नेह
अपनी चिंता
अपनी मजबूरी
किसी और से...
फेर लेता है स्नेहभरा हाथ
सोए हुए शीशों पर
बना रहता है कठोर
कि अनुशासन रहे...
क्रोध का मुखौटा
कर देता है दूर
अपनों से
सहता है पीड़ा
अकेलेपन की
दंश हृदयहीन होने का...
होता जाता है विलग
कुनबा उससे,
वह कुनबे से
उसका योगदान रह जाता है
अनकहा
अनगुना...!
सरस दरबारी
बहुत भावपूर्ण रचना ।बहुत सुंदर,,
ReplyDeleteहार्दिक आ हार्य मधुलिका जी..😊
Deleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर आभार आद विभा रानी जी..😊
Deleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति। बधाई।
ReplyDeleteशुक्रिया जेनी जी..😊
Deleteसादर आभार पम्मी जी..😊
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