Monday, October 19, 2020

बरगद होता है पिता




बरगद होता है पिता

शाखाएँ फैला

जोड़े रहता है

कुनबे को...

जेठ के ताप

भादों की वृष्टि

पूस के शीत को

कंधों पर रोकता

पालता है

परिवार को....

करता है

अनगिनत त्याग

कहलाता है स्वार्थी ...

झुकता भी है

मिन्नत करता है

साहूकार से

हर निवाले के लिए

और रहता है सदा

उपेक्षित...

नही बाँट पाता अपना स्नेह

अपनी चिंता

अपनी मजबूरी

किसी और से...

फेर लेता है स्नेहभरा हाथ

सोए हुए शीशों पर

बना रहता है कठोर

कि अनुशासन रहे...

क्रोध का मुखौटा

कर देता है दूर

अपनों से

सहता है पीड़ा

अकेलेपन की

दंश हृदयहीन होने का...

होता जाता है विलग

कुनबा उससे,

वह कुनबे से

उसका योगदान रह जाता है

अनकहा

अनगुना...!


सरस दरबारी






7 comments:

  1. बहुत भावपूर्ण रचना ।बहुत सुंदर,,

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आ हार्य मधुलिका जी..😊

      Delete
  2. Replies
    1. सादर आभार आद विभा रानी जी..😊

      Delete
  3. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति। बधाई।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया जेनी जी..😊

      Delete
  4. सादर आभार पम्मी जी..😊

    ReplyDelete