Friday, November 2, 2012

ताप -




मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
ताकि जग का ताप हर लूं -
ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
 ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..

लेकिन यह क्या ...!
मैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!

खेत भी त्राहि त्राहि कर उठे -
फुनगियों पर रुका अनाज
मुरझाकर झड़ने लगा
विक्षिप्त व्यथित कायाएं
रोग ग्रस्त हो गयीं....

यह मैंने क्या किया !
नहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
जग को जीवन देते हो  ---
तपना ही तुम्हारी नियति है

और मेरी ....
धरती बन .....
सांझ को घर लौटने पर
उस ताप पर ....
मरहम बन जाना ......!!!

20 comments:

  1. खूबसूरत अहसासों पर बधाई ...
    शुभकामनाएँ!

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  2. बहुत सुंदर एहसास .... कभी कभी परोपकार करते हुये अनिष्ट भी हो जाता है ....

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  3. सुन्दर कविता सरस जी .... सूरज कि तपिश जलन नहीं जीवन देती है.

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  4. स्त्री जीवन बिलकुल ऐसा ही तो होता है... बहुत बढ़िया कविता

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  5. सूरज का ताप सभी को जीवन देता है,,,
    सभी ब्लॉगर परिवार को करवाचौथ की बहुत बहुत शुभकामनाएं,,,,,

    RECENT POST : समय की पुकार है,

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  6. बहुत ही खूबसूरत भाव.

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  7. बहुत सुन्दर सरस जी....
    सूरज के ताप पर मरहम बनती धरती.....

    बहुत बढ़िया..
    अनु

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  8. मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
    ताकि जग का ताप हर लूं -
    ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
    ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
    ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..

    नारी की गरिमा को समेटे बहुत ही खुबसूरत भावना से भरी रचना .
    नाराज न हों तो अ:तस की जगह अंतस होना चाहिए क्या ?
    कहने की कोशिश की माफ़ी सहित .शायद अर्थ स्पष्ट हो .

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  9. वाह !!! बहुत ही बढिया

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  10. यह ऊष्‍मा ही तो जीवन देती है ! बहुत सुंदर अभिव्यक्‍ति !

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  11. bahut hi khubsurat prastuti saras jee...manav mn ki uljhanon ko...

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  12. नहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
    जग को जीवन देते हो ---
    तपना ही तुम्हारी नियति है

    एक और सुंदर प्रस्तुति. बधाई.

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  13. और मेरी ....
    धरती बन .....
    सांझ को घर लौटने पर
    उस ताप पर ....
    मरहम बन जाना ......!!!

    ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई...

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  14. लेकिन यह क्या ...!
    मैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
    वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
    मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!

    बेहतर भावाभिव्यक्ति ...!

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  15. जिसकी जो प्रक्रिया है .... वह भले ही कभी असहनीय हो उठे,पर .... असह्य होना भी ज़रूरी है न , सहने की क्षमता को जानने के लिए

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  16. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको

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