मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
ताकि जग का ताप हर लूं -
ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..
लेकिन यह क्या ...!
मैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!
खेत भी त्राहि त्राहि कर उठे -
फुनगियों पर रुका अनाज
मुरझाकर झड़ने लगा
विक्षिप्त व्यथित कायाएं
रोग ग्रस्त हो गयीं....
यह मैंने क्या किया !
नहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
जग को जीवन देते हो ---
तपना ही तुम्हारी नियति है
और मेरी ....
धरती बन .....
सांझ को घर लौटने पर
उस ताप पर ....
मरहम बन जाना ......!!!
खूबसूरत अहसासों पर बधाई ...
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
बहुत सुंदर एहसास .... कभी कभी परोपकार करते हुये अनिष्ट भी हो जाता है ....
ReplyDeleteसुन्दर कविता सरस जी .... सूरज कि तपिश जलन नहीं जीवन देती है.
ReplyDeleteस्त्री जीवन बिलकुल ऐसा ही तो होता है... बहुत बढ़िया कविता
ReplyDeleteसूरज का ताप सभी को जीवन देता है,,,
ReplyDeleteसभी ब्लॉगर परिवार को करवाचौथ की बहुत बहुत शुभकामनाएं,,,,,
RECENT POST : समय की पुकार है,
बहुत ही खूबसूरत भाव.
ReplyDeletebehtreen bhaapurn rachna....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सरस जी....
ReplyDeleteसूरज के ताप पर मरहम बनती धरती.....
बहुत बढ़िया..
अनु
मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
ReplyDeleteताकि जग का ताप हर लूं -
ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..
नारी की गरिमा को समेटे बहुत ही खुबसूरत भावना से भरी रचना .
नाराज न हों तो अ:तस की जगह अंतस होना चाहिए क्या ?
कहने की कोशिश की माफ़ी सहित .शायद अर्थ स्पष्ट हो .
वाह !!! बहुत ही बढिया
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteयह ऊष्मा ही तो जीवन देती है ! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeletebahut hi khubsurat prastuti saras jee...manav mn ki uljhanon ko...
ReplyDeletetapti garmi se chhan kar nikalti behtareen rachna..:)
ReplyDeleteनहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
ReplyDeleteजग को जीवन देते हो ---
तपना ही तुम्हारी नियति है
एक और सुंदर प्रस्तुति. बधाई.
और मेरी ....
ReplyDeleteधरती बन .....
सांझ को घर लौटने पर
उस ताप पर ....
मरहम बन जाना ......!!!
...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई...
लेकिन यह क्या ...!
ReplyDeleteमैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!
बेहतर भावाभिव्यक्ति ...!
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteजिसकी जो प्रक्रिया है .... वह भले ही कभी असहनीय हो उठे,पर .... असह्य होना भी ज़रूरी है न , सहने की क्षमता को जानने के लिए
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको
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