इस नाटक में ऐसे कई प्रसंग उन गहन अंतर्सत्यों को उद्घटित करते हैं जो रावण के प्रति अब तक की हमारी मान्यताओं और धारणाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा, सुधि दर्शकों एवं पाठकों को एक पुनर्विश्लेषण के लिए बाध्य कर देते हैं .
एक दृश्य है जिसमें मंदिर के द्वार पर एक सुन्दर महारानी दान दे रही हैं. पंक्ति में खड़े दरिद्र और साधू दान लेकर चलते जाते हैं. अंत में रह जाता है रावण जो साधू वेश में है .महारानी कैकेयी उसकी और भी वस्त्र और मुद्राओं का थाल बढ़ा देती हैं. रावण उसे स्वीकार नहीं करता और कहता है .
रावण : महारानी कैकेयी,
एक साधु क्या करेगा
इन वस्त्रों और मुद्राओंका?
कैकेयी : फिर क्या चाहिए आपको ?
रावण : जो माँगूगा मिलेगा ?
कैकेयी : अवश्य मिलेगा .
आज इस द्वारसे
कोई निराश नहीं जायेगा
मेरे परम प्रिय पुत्र राम के
राज्याभिषेक के दिन .
रावण : अपने वचन से
फिर तो न जाएँगी
महारानी कैकेयी ?
कैकेयी : यह प्रश्न करने के पूर्व
सोच तो लिया होता
बात किससे कर रहे हो
आये हो किसके द्वार पर .
तुम्हारे सामने खड़ी है
रघुकुल की रानी कैकेयी,
राम की माता
राजा दशरथ की पत्नी
जो प्राण देकर भी
फिरेगी नहीं अपने वचन से.
बोलो क्या चाहिए तुम्हें?
रावण : क्षमा करना महारानी .
पर जो माँगने आया हूँ
नहीं मांग सकता
सबके सामने .
वैसे भी उत्तम दान
गुप्त ही रहता है ;
वह ज्ञात होता है
जिसने दिया है उसे
अथवा उसको जिसने लिया है .
( कैकेयी दासियों को संकेत करती है और दोनों वहां से चली जाती हैं. मंच पर रह जाते हैं केवल रावण और कैकेयी. )
कैकेयी : निस्संदेह साधू नहीं हो तुम.
साधू के वेश में कौन हो,
चाहते हो क्या
मैं कुछ नहीं जानती .
परन्तु इतना अवश्य जानती हूँ;
वचन दिया है
तो पूरा भी करूंगी ,
चाहे उसके पश्चात
काटना पड़ा तुम्हारा शीश या अपना भी .
बोलो क्या चाहिए ?
रावण : अनुमान सही है आपका .
मैं साधू नहीं;
साधू के वेश में
हूँ एक राक्षस .
नाम है मेरा रावण .
पर आज जो मांगने
आया हूँ आपसे
वह कोई भी राक्षस
कभी नहीं मांगेगा
किसी मानव या देवता से.
कैकेयी : जो भी माँगना है
शीघ्र मांगो
मत बढ़ाओ
मेरा कौतुहल
मेरी चिंता को.
बोलो क्या चाहिए तुम्हें?
रावण : देवी, यह मस्तक
यह रावण का मस्तक
जो नहीं झुका है
किसी के सम्मुख
शिव के अतिरिक्त
आज झुक रहा है
महारानी कैकेयी के सामने .
मांगने आया हूँ आपसे दान में
कल्याण विश्व का
विनाश पाप का .
कैकेयी : कल्याण विश्व का
विनाश पापका ?
यह दान देने वाली मैं कौन?
कैसे दे सकती हूँ वह
जिस पर अधिकार नहीं है मेरा ?
रावण : आज के दिन
जो दे सकता है यह दान
वह न कोई देवता है
न कोई भगवान
केवल आप ही दे सकती हैं
यह महादान .
कैकेयी : जो भी कहना है
कह डालो स्पष्ट
कम्पित हो रहा है मेरा ह्रदय
किसी विपत्ति की आशंका से .
रावण : स्पष्ट सुनना है तो
वज्र कर लीजिये
अपने ह्रदय को
और सुनिए ध्यानसे .
दिए थे दो वचन
राजा दशरथ ने आपको;
मांग सकती हैं जो
आप कभी भी उनसे.
वही दो वचन
लेने आया है यह साधू
जो आपको माँगना है
आज अपने पति से.
कैकेयी : क्या है बोलो.
क्या है वह ?
रावण : राम को राज्य नहीं
वनवास चौदह वर्ष का .
कैकेयी : फिर कहना एक बार .
कदाचित भूल हुई है
तुम्हारे कहने में
या भूल हुई है
मेरे सुनने में.
रावण : भूल किसीसे नहीं हुई
महारानी कैकेयी
आपने ठीक ही सुना है .
राम को राज्याभिषेक नहीं
वनवास चौदह वर्ष का .
यही माँगा है मैंने दान में .
( कैकेयी को चक्कर आ जाता है पर किसी प्रकार अपने आप को संभालती है )
कैकेयी : यह क्या माँगा तुमने
प्राण भी मांगो मेरे
तो दे दूँगी अभी
इसी क्षण .
पर तुमने तो माँगा है
मेरे प्राणों के प्राण को .
राम वन चले गए
तो केवल मेरे ही नहीं
सारी अयोध्या के
प्राण चले जायेंगे .
इसके बदले में
और जो भी चाहो
मांग लो साधू .
रावन : नहीं चाहिए मुझे कुछ और
देना है तो वही दीजिये
जो माँगा है मैंने.
अन्यथा कह दीजिये
कि रघुकुल की महारानी
राम की माता
राजा दशरथ की पत्नी
पूरा नहीं कर सकती
अपना दिया वचन.
कैकेयी: तुम जो भी हो
साधू हो या राक्षस
पर आज महारानी कैकेयी
तुम्हारे सम्मुख
हाथ जोड़कर
भिक्षा मांगती है तुमसे .
मांग लो कुछ और
पर मेरे राम के लिए वनवास न मांगो
.
परम-प्रिय पुत्र है वह मेरा
भरत से भी अधिक प्रिय.
और फिर दोष क्या है उसका
क्यों चाहते हो उसका वनवास
क्या बिगाड़ा है उसने तुम्हारा ?
रावन: कुछ नहीं बिगाड़ा
उन्होंने किसीका .
राम का काम तो
बनाना है, बिगाड़ना नहीं.
कैकेयी : फिर भी चाहते हो मिले
वनवास राम को
और मुझे कलंक कुमाता का ?
यदि मैंने ऐसा किया
तो आने वाले युगों में
कोई भी माता नहीं रखेगी
अपनी पुत्री का नाम कैकेयी .
यह शब्द हो जायेगा
एक अभिशाप, एक कलंक
जो लगा रहेगा सदा मेरे मस्तक पर .
रावण : यदि आप चाहती हैं
जन्म हो या मृत्यु
सुख हो या दुःख,
जय हो या पराजय ,
हानि हो या लाभ;
हर संकट हर विपत्ति में
लोग पुकारें एक ही नाम ,
और वह नाम हो राम .
यदि आप चाहती हैं
अमर हो जाये आपके परम प्रिय पुत्र
श्री राम का नाम ;
तो यह कलंक लेना पड़ेगा
आपको अपने नाम पर .
यदि आप चाहती हैं
राम राज्य करें लोगों के ह्रदय पर;
तो यह राज सिंहासन
छीनना पड़ेगा राम से
और देना पड़ेगा वनवास.
कैकेयी : पर इस सबका
वनवास से क्या सम्बन्ध ?
रावण: बहुत बड़ा सम्बन्ध है देवी
बैठ गए राम सिंहासन पर
हो गया उनका राज्याभिषेक;
तो रघुवंश के
अन्य राजाओं की भाँती
वह भी राज्य करके
चले जायेंगे स्वर्ग,
लुप्त हो जायेंगे
इतिहास की धूल में;
और शेष रह जायेगा वह महान कार्य
जिसके लिए जन्म हुआ है
दशरथ पुत्र रामका .
कैकेयी : कौनसा महान कार्य ?
किसलिए जन्म हुआ है
मेरे प्रिय पुत्र राम का?
( क्रमश: )
ये तो बिल्कुल नही जानकारी दी है आपने अब तो आगे का इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteअदभुत ज्ञान को साझा किया है... आभार
ReplyDeleteवाह ! अद्भुत ! आगे पढने की प्रतीक्षा में हूँ .
ReplyDeleteसादर.
वाह: सच में अद्भुत जानकारी दी सरस जी..आँखे खुल गई...आगे का इंतज़ार
ReplyDeleteक्या नाटक का यह अंश काल्पनिक है या इस प्रसंग की प्रमाणिकता भी है ?
ReplyDeleteअन्सारीजी, इस श्रृंखला के शुरुआत की दो किश्तों में हमने सभी मूलभूत तथ्यों के स्त्रोंतोंको विस्तार से उद्घटित किया था ....इसके बाद तो लेखक , नाटककार या कवि अपनी कल्पना शक्ति से उन तथ्यों में रंग भरता है ...
Deleteआशा है अनेकों रामायणों में से किसी न किसी में ऐसा उल्लेख आया होगा .. अगर नहीं भी तो भी कवि की कल्पना और उसके दृष्टिकोण को नमन है ...
ReplyDeleteचरण स्पर्श ,आपको मेरा पोस्ट कैकेयी समर्पित करता हूँ .
ReplyDeleteअद्भुत पोस्ट
मैंने भी ये प्रसंग पढ़ा था..रोचक है प्रस्तुतिकरण..अच्छी लगी..
ReplyDeleteबढिया ..
ReplyDeleteपुरानी कडियां भी देखनी होंगी ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
MUJHE AGALI KADI KA INTAJAAR RAHEGA
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteशSSSSSSSSSS कोई है
बेहतरीन , आगे का इंतज़ार है |
ReplyDeletewaah ....acchi hai kalpna ki udan...
ReplyDeletebahut khoob..:)
ReplyDeleteBahut achhi kalpanaa, vistrat tippani baad me likhungi...
ReplyDelete